सोमवार, 12 सितंबर 2016

कतार


कतार
चुनाव के बाद वाला दिन था। बैंक में जबरदस्त भीड़। बेचारे कई बूढ़े यानी बुजुर्ग भी कतार में। कुछ आगे वाले सज्जन को बता कर सोफे या कुर्सी पर विराजमान। ऐसे ही एक भद्र वरिष्ठ नागरिक से मैंने पूछ लिया-कैसे हैं?
इरादा वक्त काटने का भर का था।
उन्होंने कहा -भालो आछी (ठीक हूं)।
वह सज्जन बंगला भाषी यानी बंगाली थे।
-‘अकेले आए हैं?’
-‘हें...(हां)’
-‘आपना के तो चीनते पाड़छी ना...’( आपको तो पहचान नहीं पा रहा)
उन्होंने मुझे गौर से देखा।
-‘तो क्या हुआ, थोड़ी बातचीत करें, वक्त कटेगा। कतार देख रहे हैं न?... बहुत देर तक इंतजार करना पड़ेगा नंबर आने का।’
-‘हां, ठीक बोलचेन...’
-‘अच्छा, बुरा मत मानिएगा, आपकी उम्र क्या होगी?’
-‘आसीर काछा-काछी ’(अस्सी के करीब)।
-‘वाह, लगते नहीं है...’
-‘पेंशन पाई तो, जा खुशी खाई, योग कोरी, हाटी, आड्डाबाजी
कोरी...’(पेंशनधारी हूं, पसंद की चीजें खाता हूं, योग करता हूं, टहलता हूं, गप्पे मारता हूं..)
-‘बहुत अच्छा। ऊपर वाला, हर बुजुर्ग को ऐसा ही सुअवसर दे...’
वह मुस्करा रहे थे। मैंने बस यूं ही उनसे पूछा - ‘अच्छा यह तो बताइए आपने अब तक के जीवन से क्या सबक पाया?’
-‘जेब खाली न होने दो, खुद को स्वस्थ रखो...’
उनके बगल में बैठे एक सज्जन हमारी बातें गौर से सुन रहे थे। उनसे भी चुप नहीं रहा गया।
-हां, वह गाना सुना है न?-बाप बड़ा न भैया, सबसे बड़ा रुपैया..और हां, सेहत का भी ख्याल जरूरी है...
-‘दरअसल,भगवान बहुत आलसी हो गया है। वह सरकारी नौकरों की तरह शायद घूसखोर भी हो गया है। वह जिनको बुलाना चाहिए बुलाता ही नहीं। हम बुजुर्गों को देखता कौन है। बच्चे अपने में मस्त हैं, पड़ोसी अपने में। तरह-तरह के रोग है, असविधाएं हैं, तकलीफें हैं, किसी से किसी का मतलब ही नहीं। और उधर भगवान सोया हुआ है...’
यह एक बीच में टपके एक दूसरे भद्र मानुष थे।
-‘हम लोगों से तो अच्छे पशु-पक्षी हैं, कुत्ते-बिल्ली हैं, न धन-दौलत की चिंता, न घर-परिवार की, न राशन की दुकान की, न बाजार की और न ससुरी राजनीति की...’
बीच में मेरे एक परिचित भी आ टपके। बिना मांगे अपनी इच्छा भी सुना दी-‘मैं तो अगले जन्म में कुत्ता बनना पसंद करूंगा। आदमी तो कत्तई नहीं।’
-‘अरे बाप रे, यह क्या कह रहे हैं मास्टर साहब? कितने दुरदुराए जाते हैं बेचारे, जिसे देखो वहीं ईंट-पत्थर -डंडे दे मारता है...’
-‘पर खाने-पीने की, पहने-ओढ़ने की घर के तमाम झमेले तो उन्हें नहीं झेलने होते...’
-‘दादा, कुत्ता बनना ही चाहते हैं तो उत्तम प्रजाति वाला बनिएगा। कोई चिंता नहीं रहेगी,मेम साहबों की गोदी में मजे कीजिएगा’-यह एक दूसरे बुजुर्ग का हस्तक्षेप था हमारी वार्ता में। इस पर ठहाके जमकर लगे।
हंसते हुए मैं कतार में लग गया। वह आगे बढ़ रही थी...
कतार आगे बढ़ रही थी, लेकिन चीटीं की गति से। पर वह लंबी भी होती जा रही थी अपने हनुमान जी की पूंछ की तरह। सो सोफे - कुसिर्यों पर बैठे लोग उठ-उठ कर कतार में लग भी रहे थे। इसे देख एक रोगीनुमा बुजुर्ग हड़बड़ी से उठे तो उनका पासबुक गिर गया, इस पर उनका ध्यान भी नहीं गया तो मेरे ही मुंह से निकल पड़ा - ‘अरे, दादा अपनी जान का तो ख्याल रखिए, देखिए वह फर्श पर पड़ी है।’
बेचारे, पीछे मुड़ कर पासबुक को देखा तो उस पर लगभग झपट से पड़े। मेरे पास आए और कांधे पर हाथ रख आभार जताया।
-‘आप सही कह रहे हैं दादा, अब तो यही जान है-सहारा है।’
वे बातों-बातों में ही बता गए कि उनके दो बच्चे हैं। दोनों अपनी दुनिया में मस्त। एक किसी लड़की के साथ रिलेशनशिप में है और उस पर ही अपनी कमाई लुटाए जा रहा है। उनकी एक बिटिया भी है, जिसकी शादी के लिए उन्हें बहुत सारे पापड़ बेलने पड़े, अब उसे जैसे अपनी मम्मी-पापा से मतलब ही नहीं रहा। ‘बाबा-बाबा’ की रट लगाने वाली बिटिया को अपने पापा से फोन पर भी बातचीत के लिए वक्त नहीं..
मास्टर साहब भी हां में हां मिला रहे थे और बता रहे थे कि अब तो जीने की इच्छा भी खत्म हो चुकी है। पर ऊपर वाला बुलाता ही नहीं।
सामने कतार में ही दो बच्चियां थीं। हमारी बातों को सुन मुस्करा रही थीं। बीच-बीच में लंबी कतार की वजह से ऊब का इजहार भी कर रही थीं। मैंने उनसे कहा- ‘अरे तुम लोग अब घर लौट जाओ, दूसरे दिन आ जाना। कब तक खड़ी रहोगी।’ उसमें से एक ने कहा-‘पिता जी आ जाएं तो हम चले जाएंगे।’ बाद में पता चला कि वह पड़ोस के एक परिचित की बिटिया है और उसी के लिए उसके पापा पैसे जमा करेंगे। वे कतार से बाहर खड़े थे। मैंने कहा, ‘आज तो मुश्किल है’ तो उन्होंने बिटिया की ओर इशारा कर दिया।
-‘अच्छा तो यह आपकी बिटिया है?’
पता चला कि वह बीए में है। यानि कि....?
मैंने खुद को संभाला, नहीं-नहीं, उधर मत ले जाओ ध्यान...मंजर बदलने वाला नहीं। पिता को धन जुटाना ही होगा। वर्षों पाल-पोस कर दूसरे घर पठाना ही होगा। फिर वही कहानी- दुख सहो और फिर किसी को दुख दो। न जाने कब से यही कहानी दोहराई जा रही है....
एक, दो, तीन ,चार..हां अब चार ही लोग रह गए थे मेरे आगे, पीछे बहुत सारे। निश्चित ही सबकी- होगी अपनी-अपनी कहानी । चेहरे पर हंसी बिखेरने वालीे और आंखें गीली करने वाली भी।
अरे, यह क्या मेरी आंखों के कोर गीले क्यों होने लगे। अभी-अभी तो मैं लोगों को हंसाने-छेड़ने में लगा था...ताकि वक्त कटे... यादें पीछा न करें, पर यह संभव भी तो नहीें...कतार में खड़ी बच्ची को देख अपनी प्यारी बिटिया याद आ गई थी। इसी तरह मेरे लिए वह कतार में लग जाया करती थी, वहां जाने से पहले पापा का कितना ख्याल रखती थी...नहीं, पापा उसे जरूर याद आते होंगे-मम्मी भी...
-दादा, कहां खो गए आपका नंबर आ गया। पीछे वाले हम-उम्र ने कांधे पर हाथ रख कर फुसफुसाया।