शनिवार, 14 जनवरी 2023

कविता

 कविता:तुम्हारा रूप

1.

सफेद कागज पर

तुम्हारा रूप

यूं खिलता है

जैसे

काली बिंदी

माथे पर किसी

मनीषा के

2.

तुम्हारे चेहरे पर

रंग रोपन

कम हो तो

बोलती हो

अर्थ खोलती हो

ज्यादा

3.

तुम देखने की नहीं

दिखाने के काम आती हो

अंतर्मन में समाने की कोशिश

तुम्हारी अहर्निश

4.

बहुत संकोची हो तुम

खुलती ही नहीं तुरंत

कई कई बार बजाने पर

सांकल, हिलती डुलती हो

07.11.2020

बुधवार, 11 जनवरी 2023

मुझे पहचानोःएक पाठकीय

 शैलेंद्र शांत

मुझे पहचानोःएक पाठकीय
स्त्री दहन की क्रूरता व पाखंड से दो-चार कराता उपन्यास

कथा साहित्य के परिचित और चर्चित नाम संजीव सामाजिक चेतना से समृद्ध कथाकार हैं। उनकी हर रचना मानवीय गरिमा को लेकर फिक्रमंद रही है-शोषण,अत्याचार,गैर-बराबरी के खिलाफ लगातार बोलती-बतियाती। किसान, कोयला खदान के मजदूर, उपेक्षत कलाकार, विडंबनाओं की शिकार स्त्री व उसकी पीड़ा आदि उनके कथानक के आधार रहे हैं। चाहें उनकी कहानियां हो या उपन्यास। उनका ताजा उपन्यास भी इसी बात की गवाही  देता है।
`मुझे पहचानो' उनका नवीनतम उपन्यास है। यह सती प्रथा की विसंगतियों और व्यथा की ओर बहुत धैर्य और विस्तार से ध्यान खींचता है।
चली आ रही परंपरा के नाम पर जबरन या धोखे से जिंदा जला दी गई स्त्री के महिमामंडन, सती के नाम पर मेले-ठेले, पूजा-अराधना के कर्मकांड सतत जारी है। ' तद्भव' के चलीसवें अंक में छपे उनके उपन्यास में बहुत सजग से इसे चित्रित किया गया है। पन्नों या आकार के लिहाज से यह संजीव का शायद सबसे छोटा उपन्यास है। लेकिन कथ्य बड़ा है और कहने की जरूरत नहीं कि प्रासंगिक भी। 
वैसे, यह सच है कि जबरन सती बना देने की वारदातें इधर कम हुई हैं, पर सती प्रथा का महिमामंडन अब भी थमा नहीं। उसकी याद डरावनी है। भारतीय समाज में स्त्री के खिलाफ सदियों तक बरती गई क्रूरता, लज्जाजनक ही नहीं, मानवीय विवेक पर सवाल दर सवाल उठाने वाली है। इसी विडंबना को रेखांकित करता यह उपन्यास, जो पाठक को बेहद बेचैन कर देने वाला है। बेजोड़ कथा शिल्पी ने क्रूर सामंती सोच, परंपरा के निर्वाह के नाम पर शिकार बनाई गई स्त्रियों की व्यथा-कथा को पेश किया है। कुसंस्कारों की बेदी पर स्त्रियाँ को चढ़ाए जाने के इतिहास को खंगालने की चेष्टा की गई है इसमें। राजा राममोहन राय की कोशिशों से ब्रिटिश शासन की ओर से इस कुप्रथा पर रोक के बाद भी धर्म की आड़ में स्त्री दहन की विसंगति जारी रही है । उसका महिमामंडन होता रहा है । मेले लगते रहे हैं । सती के स्थान-मंदिर बनते रहे हैं । धर्म के धूर्त बनिए चढावे से मालोमाल होते रहे हैं ।
`लो आ गए रत्नों के देश में-रत्नापट्टी!'
इस वाक्य से शुरू होता है उपन्यास। गाइड कुंज बिहारी दुबे जो मैनेजर मनोज सिंह का दोस्त है, को यह बताता है। इसके बाद डूब चुकी रियासत के अजीबो-गरीब किस्से का सिलसिला। रानी,पटरानी, भोग-विलास,सामंती अहंकार, कुसंस्कार के सुने-सुनाए जाते रहे किस्से, मिथक आदि से सने-पगे। इसी क्रम में एक निहायत सुंदर, हंसमुख युवती को जिंदा चिता पर बैठा देने की क्रूरता...
``नदी के उस पार पहाड़ी पर भी, जो ढलती हुई गढ़ी दूर से झलक रही है, वह राय साहब का महल और आगे बाईं ओर दो मंजिला कोठी आएगी, लाल साहब की। याद रहे, सामने आते ही जूते उतार लेना,नजरी नीची रहे।...यही दस्तूर है...यह एक तपे तपाए राजे रजवाड़े का इलाका है। रानियों से राजा साहब को जो लड़के पैदा हुए, राय साहब कहलाए और रखैलों से जो हुए,लाल साहब।''
दोस्त दुबे मैनेजरी दिलाने मनोज सिंह को यहां लाता है और मित्र के सवालों के जवाबों में आखिरी सांसें गिन रहे रजवाड़े की कहानी, रहस्य, अतीत बताते हुए सती देवी की कथा तक पहुंचता है। उसे रजवाड़े के लोगों की जरूरतों का ख्याल रखना है, मुकदमें लड़ना है और राजनीतिक महत्वाकांक्षा को पूरे कराने में भी अपनी भूमिका तय करनी है।
शीर्षकहीन 18 अध्याय में कथ्य का विस्तार है। कहीं-कहीं फंतासी के सहारे रोचक, दुखी और अचंभित कर देने वाले वाकयों के विवरण,जिसे पढ़ने की चाह बनी रहती है। जबरन चिता पर बैठा दी गई सावित्री कुवंर प्राकृतिक चमत्कार से थोड़ा झुलसने के बाद भी बच जाती है। ऐन वक्त पर आए आंधी-तूफान उसे नदी के हवाले कर देते हैं। एक मल्लाह की कुटिया में उसे पनाह मिलती है। उसे सती करार देकर उसके नाम पर मेले तक लगने शुरू हो जाते हैं। मेले पहले से भी लगता रहे हैं सतियों के नाम पर। पांचवें साल इसी मेले में इसके समापन पर राजा राममोहन के बड़े भाई जगनमोहन की पत्नी अलोका मंजरी के सती दाह का मंचन होता है-हैल्युसिनेशन। इसी से तोगों को इस बात का पता चलता है कि वह जलकर भष्म होने से बच गई थी। हालांकि पाठक को पहले के एक अध्याय में। कथा के सूत्रधार दुबे और मनोज के मार्फत।
...अलोका मंजरी को ढोल नगाड़े,तुरही के बीच लाया जाना। पति के शव को लेकर समहरण के लिए बैठना,चिता की आग। लोगों का चला जाना। सुबह फिर लौटना, झाड़ियों में छुपती अलोका को लाकर पुनः चिता के हवाले करना।
जलती हुई ज्वाला,लपलपाती लपटें,अलोका मंजरी की जलती लाश-लगा, आसमान से बिजली चमकी और भयंकर गड़गड़ाहट के बीच अलोका मंजरी की चिता से एक सुंदरी प्रकट हुई। उसके दोनों ओर 5-5 वर्ष के दो बच्चे।
`कौन है? कौन है? कैसे आ गई? के रोष भरे निषेधात्मक शोर की अवमानना करती, ढीठ बन आगे बढ़कर उसने माइक को थाम लिया-
आप सारे विद्वान सतियों की पात्रता, अपात्रता पर फिर फिर विचार करते रहेंगे,आज एक जिंदा सती पर विचार कर लीजिए।'
`कौन है जिंदा सती? धर्माचार्य ने टोका।
`मैं मैं सावित्री कुंवर! इसी जगह उसे जलाकर मार डाला गया था,पांच साल पहले, इसी जगह पांच साल बाद फिर से आविर्भूत हो रही हूं।
पहचानिये मुझे, जिसे उसके जन्मदाता पिता ने नहीं पहचाना, जन्मदात्री मां ने नहीं पहचाना,रियासतदारों ने नहीं पहचाना-पहचानिये मुझे। डी.एन.ए.मिलाकर देख लीजिए। एक लंबी जंजीर घेर रही है हम अलोकाओं को।हां मैं अलोका मंजरी हूं, राजा राममोहन राय की भाभी,जिसे उनके पति जगमोहन बैनर्जी की मौत पर मारपीट कर सती बनाया गया, आंधी,पानी, झड़ झंझा की रात सुबह देखा कि मरी नहीं तो गांववालों ने फिर से जलाया।'
`सैकड़ों वर्षों से जलायी जाती रही, धर्म और परंपरा की बेदी पर सैकड़ों वर्षों से। पर इसकी जिद देखिए, यह मरी नहीं, जिंदा है। जलने के दाग- ये,ये,ये,ये।' उसने कपड़े खोलकर दाग दिखाने शुरू किये एक एक कर।
राय साहब ने लठैतों को बुलाया,पर धर्माचार्य ने रोक दिया।
`सिर के कुछ केश जल गए थे, चमड़े जल गए थे- ये रहे। कुछ आग बाहर थी, कुछ अंदर। इस अलोका को स्वर्ग ने नहीं लोका। स्वर्ग से उतर कर आ गई सावित्री कुंवर के रूप में आपके सामने। अपने दो बच्चे और...पति के साथ। मेरी एक संतान पूर्व पति राजा उदय प्रताप के दूसरे पुत्र की है-यह लव, और दूसरी संतान इस पति से है-कुश, दूसरे पति अनमोल से।'
`मैं आपके सामने हूं-पांच सालों से हूं आपके सामने, आपने पहचाना नहीं, क्योंय़ इसलिए कि आप तो मुझे जलाकर पतिलोक भेज दिया था।पर मैं ढीठ लौट आई स्वर्ग से।'
`आप चाहें तो इस आलोका को फिर से मारकर जला दें। मेरे इस दाह में आप सभी स्त्री पुरुष, माता पिता शामिल रहे,सारे पुण्यार्थों, धर्म, परंपराओं, समाज-मैं आपके कठघरे में खड़ी हूं। विचार कीजिए।'
 उपन्यास के आखिरी अध्याय के अंतिम आखिर के दो पन्ने कथा को उसके मुकाम तक पहुंचाते हैं। पाठक के मन को उद्वेलित करते हुए। स्त्री की दिशा-दशा पर विमर्श के दरवाजे को खोलते हुए। दस्तावेजी तथ्यों से भरे उपन्यास में बंगाल का विवरण प्रचूर है। यहीं वायसराय विलियम बेंटिक ने राजा राममोहन राय के कहने पर 1829 में कानून बनाया था।
....सूचनार्थ, शास्त्रार्थ, विवाद और संवाद बढ़ते जा रहे थे कि बंगाल से आई एक रपट के सफे दर सफे खुलने लगे। सन् 1823 के बंगाल सरकार के पुलिस प्रतिवेदन के अनुसार उस वर्ष यानी 1823 में बंगाल में कुल 575 सतियों की खबर है, जिसमें ब्राह्मणी 234, क्षत्राणी 35, सेठानी या वैश्य 14 और शुद्रा 292 बतायी जाती हैं।...उपन्यास में बहस-संवाद के जरिए इस कुप्रथा से प्रभावित रहे इलाकों की खोज-खबर ली गई है, परंपरा,संस्कृति के नाम पर पाखंड, क्रूरता आदि को उजागर करते हुए। कुलमिलाकर यह पठनीय और जरूरी उपन्यास है,इसका स्वागत होना चाहिए।

मंगलवार, 10 जनवरी 2023

अटारी पर चांद

 

    'अट्ठारह साल की लड़की अकेली विश्व भ्रमण के लिए निकली है, यह बात मेरे लिए नई तो नहीं, क्यों कि मैं पहले भी कुछ लड़कियों से मिल चुकी हूं,लेकिन आश्चर्य यह था कि ...केवल एक हजार यूरो की रकम उसकी थाती थी। उसका प्लान है कि वह जहां जाएगी कुछ काम कर खर्च निकाल लेगी। ...उसके भ्रमण की सीमा में कई देश थे,पर भारत नहीं।...मैंने कहा कि जूलिया....लेकिन तुम भारत आए बिना विश्व भ्रमण करोगी अच्छा नहीं लग रहा है।...मुझ से अनेक बार पूछा गया भारत में इतने रेप क्यों होते हैं और मुझे उन्हें समझाने वक्त लगता कि रेप भारतीय संस्कृति नहीं, वैश्विक संस्कृति का ही एक भाग है..रेप की घटनाएं ज्यादा होते हुए भी स्थिति ऐसी नहीं कि आप भारत में रह ही नहीं सकते।...खैर, हम बात जूलिया की कर रहे हैं, ना जाने कितनी लड़कियां हमारे घरों से निकलना चाहती हैं, लेकिन कहां निकल पातीं, विश्व भ्रमण का सपना तो किशोर-युवकों का भी पूरा नहीं हो पाता।'

   ये उद्धरण कवयित्री रति सक्सेना की यात्रा-वृतांत की किताब 'अटारी पर चांद' से हैं। रति जी कि इस किताब में तमाम कलाकृतियों, कला-दीर्घाओं, सुंदर भवनों आदि के आंखों देखे ब्यौरे हैं, जो जर्मन की समृद्धि की कहानी बयान करती है, साथ ही युद्धों के, नाजी सेना की क्रूरताओं की बानगी भी पेश हैं इसमें। विडंबना और समय का फेर यह कि उसके देश में ही हिटलर पर कोई बात नहीं करना चाहता।

    लेखिका को जर्मन कलाकारों की संस्तुति पर प्रदत्त विश्व प्रसिद्ध वालब्रेता रेजीडेंसी में स्कॉलरशिप मिली थी। उन्होंने 2016 में लगभग तीन माह के प्रवास में वहां ‘पोइट्री थेरोपी’ प्रोजेक्ट पर काम किया। जाहिर है, अपनी यात्रा के उल्लेखनीय पल, अनुभव, प्रेक्षण भी पन्नों पर दर्ज करती रहीं, जिसका सुफल यह किताब है। और हम जैसे उनकी आँखों से इस जर्मन को देख, महसूस कर पा रहे हैं। यकीनन दूसरे पाठक भी लाभ उठा रहे होंगे इसका। 

   एक यह विवरण- '...एनरेट्टे अकेली रहती हैं। एक बार उन्होंने बताया कि उनका एक ब्वॉय फ्रेंड था, जो धोखा देकर चला गया। बाद में वह बताने लगी कि आजकल जर्मन पुरुष जवानी में गर्लफ्रेंड के साथ रहते हैं, जब वे अधेड़ या बूढ़े हो जाते हैं तो थाईलैंड जाकर थाई लड़कियां लाते हैं, वे अधिकतर खरीद कर ही लाते हैं। फिर वे उनकी सेवा करती हैं, क्योंकि जर्मन स्त्रियां मजबूत और मेहनती होती हैं, वे स्वतंत्र व्यक्तित्व रखती हैं।'

तो जर्मन का एक तस्वीर यह भी है। 

    एक मार्मिक विवरण यह भी - जब हम रोतेन्बर्ग पहुंचे तो महसूस हो गया कि हम पर्यटन केंद्र में पहुँच गए हैं। गुड़ियों के घरौंदों जैसे खूबसूरत रंगे-चुने घर, रंगों के चुनाव में हर घर एक दूसरे से प्रति स्पर्धा करता हुआ-सा। ...हम एक संग्राहलय में पहुँच गए, जिसमें सजा देने के अमानवीय औजार थे। सच कहूं तो शहर की सारी खूबसूरती इस संग्राहालय को देखते ही भड़भड़ा कर टूट गई।...दोष कुछ भी हो सकता था, किसी स्त्री का डायन करार दिया जाना या किसी पुरुष के व्यभिचारी होने की शंका होना या फिर कोई चोरी-चपाटी आदि। सजा में नाखूनों को उखाड़ने से लेकर जीभ पर ताला लगाने तक के औजार थे।...यह सब देख मन बहुत व्यथित हो उठा...और सच कहूं तो लगा कि लौट चलो इस देश से।'

 बहरहाल, इसी देश में अब जूलिया की पीढ़ी भी तैयार है। एक दिन बर्लिन की दीवार भी टूटी। और कई भ्रम भी। नहीं बदला है तो शायद अंध-राष्ट्रवाद की परिणति के दुःस्वप्न। हिटलर के प्रति इतनी घृणा की सामान्य जर्मन उस पर बात नहीं करना चाहता।

   प्रवेश वर्जित: डकाउ यातना शिविर जिसे कंसेंट्रेशन कैंप कहा जाता है, हिटलर की नाजी मानसिकता का पहला शिविर था, जिसे सोच-समझ कर यहूदियों की हत्या करने के उद्देश्य से बनाया गया था। कहा जाता है कि इसमें विभिन्न देशों के दो लाख से ज्यादा कैदी थे, जिनमें से 41,500 कैदी मारे गए थे। ( मार दिए गए थे, लिखना ज्यादा सही होगा) सहसा सब चुप्पा से गए। जैसे याद आया कि हम मौत से मिलने जा रहे हैं।...बाहर बोर्ड था, (जिस पर लिखा था) कृपया बच्चों और कुत्तों को भीतर न ले आएं।...फिर महसूस हुआ कि हम ही कैदी हैं।...मृतकों की राख पर फुलवारी उगा रखी थीबोर्ड पर लिखा था कि कोई इस फुलवारी पर पैर न रखें, यहां मृतकों की राख बिछी है।...चैंबरों की तरफ जाने से पहले तीन उपासना घर दिखे, शायद उनका निर्केमाण तब हुआ, जब यह यातना घर से शरणार्थी शिविर में बदला गया। मैं यही सोच रही थी कि देव यहां वास कर रहे थे तो उन्होंने इस अत्याचार को क्यों सहा। ( अपने यहां राम जी भी तो सह ही रहे हैं, भक्तों के उत्पात को)'

  इस किताब से एक विवरण और- 'लौटते वक्त मैं और शारलोत्ते साथ थे, हम लोग राजनीतीक स्थितियों की बात करने लगे। मैंने कहा कि युद्ध के बाद जर्मनों के साथ जो कुछ हुआ, वह भी दुखद था, क्योंकि समस्या किसी एक नेता ने पैदा की थी।'

शारलोते ने जवाब दिया, 'जब जनता किसी गलत नेता को चुनती है तो वह उसके पाप में बराबर की भागीदीर बन जाती है।'

'निःसंदेह, लेकिन जब जनता भीड़तंत्र के साथ चलती है।' मैंने कहा।

'फिर भी गलती तो है ही', शारलोत्ते का जबाव था।

'गलती का पता जब तक लगता है, अक्सर देर हो जाती है'-मैं कहना चाहती थी, लेकिन चुप ही रही।

   अपने मेजबान, दोस्त-गाइड के साथ घूमती-बतकही करती और तमाम लुभाने और बदरंग दृश्यों के लेखकीय ब्यौरे से भरे इस वृतांत से गुजर लेना, बहुत से अहसासों से दो-चार होने जैसा भी है। 

   इस किताब में रति जी ने कुछ कविताएं भी दर्ज की है। डकाउ पर लिखी बहुत ही मार्मिक कविता के इस अंश के साथ इस चर्चा को विराम देने की इजाजत चाहूंगा।

'लिखा तो यह भी था कि

कृपया शोर ना मचाएं, जोर से ना हँसें

ऐसा कुछ ना करें कि मृतकों की आत्मा को

कष्ट मिले,

लेकिन व्यक्तिगत सामान वाली लाइब्रेरी में

कैदियों के सामान में खूबसूरत प्रेमिकाओं की तस्वीरों के साथ

बच्चों और पालतू कुत्तों की तस्वीरें भी हैं


कैम्प में सन्नाटा है, सैकड़ों दर्शनार्थियों के बावजूद

मानो कि अभी कोई ना कोई मृतात्मा बोल उटेगी

.....

लेकिन क्या आदमी को आदमी बनाने के लिए

यातना घर जरूरी है


सवाल अधूरा है...'


 इस पठनीय 'यात्रा-वृतांत' की किताब को न्यू वर्ल्ड पब्लिकेशन ने प्रकाशित किया है। 




सोमवार, 19 दिसंबर 2022

'ग़जल को ग़ज़ल ही रहने दें'

 

जैसे भाषा में बोलियां हैं सा'ब

मुल्क में वैसे ही मियां हैं सा'ब


साथ सदियों से रहते आए मगर 

अब भी सदियों की दूरियां हैं सा'ब


आपने ऐसे कैसे सोच लिया !

आपके भी तो बेटियां हैं सा'ब


जुट गयीं तो नहीं बचेगा कुछ

ये सियासत की चीटियां हैं सा'ब


रंग मजहब बिरादरी पैसा

प्यार में कितनी गुत्थियां हैं सा'ब


एक ही तो 'किताब' है अपनी

उसमें भी कितनी गलतियां हैं सा'ब


ये न टेढ़ी हुईं न घी निकला

कैसी मतदानी उंगलियां हैं सा'ब


इनको तो बक्श दीजिए मालिक !

गमछे में बांधी रोटियां हैं सा'ब

यह देवेंद्र आर्य की एक गजल है, जो इनके ताजा संग्रह 'मन कबीर' में दर्ज है। इस संग्रह में ऐसी ही कई गजलें हैं, तल्ख,करारी और कुछ कमजोर सी लगने वाली गजलें भी, जिनमें कुछेक मजबूत शेर हैं। ये सभी समकाल से नज़र मिलाकर बतियाती, सवाल और मुठभेड़ करती लगती हैं। 

जैसे-

चिटक बेशक गए हैं दिल के रिश्ते

अभी तक टूट कर बिखरा नहीं हूँ

 रिश्तों में तोड़-फोड़ के इस दौर खुद को बिखरने से बचाना, उम्मीद को उम्र देने जैसी बात है। 

...... 

कोई कैसे मान ले जिंदा हैं आप

हो कोई काग़ज अगर, दिखाइये

 इधर की यह बड़ी बिडंबना और भुगतभोगी ही इस पीड़ा को समझते हैं। इस पीड़ा को जुबान देने वाला शायर भी बेशक। 

...... 

आप दलहन की बात छेड़ेंगे

जिक्र वह छेड़ देगा केसर का

आज की सियासत की बेशर्मी और असंवेदनशीलता को उजागर करने के लिए यह शेर कितना माफिक है, बताने की जरूरत नहीं। 

..... 

सब चुप हैं डर के मारे मगर फिर भी हो रही

राजा के नंगे होने की चर्चा गली-गली

.... 

जिसको देखो है वही सूखे बदन बारिश में

छत भी कोई नहीं, सर पर कोई छाता भी नहीं

.... 

मोहब्बत नाम है उस जिंदगी का

कि जिसमें आँच है और प्यास भी है

..... 

बेटा बहू तो दूर, खसम भी न आए पास

मैं सो गई थी रात में घर को खिला-पिला

.... 

धर्म और पूँजी का का है रिश्ता यही

ताने में बाना, बाने में ताना

.... 

ये चंद शेर भी बहुत कुछ कहते हैं -अपने समय के यथार्थ को आईने के सामने खड़े करते हुए। देवेंद्र कहन के एक अलग अंदाज लिए हमारे समय के खास गजलकारों में से एक हैं। प्रगतिशील, जनवादी और प्रयोगधर्मी । यह उनका छठा ग़ज़ल संग्रह है। दिल्ली के 'न्यू वर्ल्ड पब्लिकेशन' से आया है । 

इनकी इस किताब पर अग्रज कवि- गजलगो, संपादक रामकुमार कृषक कहते हैं कि "इनके यहां कविता की ताज़गी और ताप दोनों को एकसाथ अनुभव कर सकते हैं। ...नए बिंबों और प्रतीकों की भी उनके यहां कमी नहीं , और शेरों की ज़मीनी अंतर्वस्तु के अनुरूप उन्हें बरतने की सलाहियत की भी । "

इस संग्रह के लिए किसी से ब्लर्ब या भूमिका नहीं लिखाई गई है। आर्य ने जरूर 'कुछ अपनीःकुछ शायरी की' बात कही है। गजल के सफर के बाबत बात करते हुए देवेंद्र इस बात से सहमत दिखते हैं कि गजल को गजल ही रहने दिया जाए। अपने बााबत यह कहते हैं कि" बताने के लिए सिर्फ इतना है कि मैं शायरी करता हूं, सियासत नहीं। शायरी ही मेरी सियासत है। जैसे कबीर अपनी भक्ति में सियासत कर रहे थे।....कविता भी डूबते को तिनके को सहारा होती है, जैसे कि जैसे ईश्वर दुखी इंसान को आखिरी सहारा..."

 उनके इस कथन की गवाही देती इसी किताब की यह गजल गौरतलब है-


तन तुलसी और मन कबीर भए

तब जाके शायर फ़क़ीर भए

रूमी अस जब रूह भयी तब

सूरदास जस ई शरीर भए

कविता होइ गए खुदे निराला

मुक्तिबोध सउंसे ज़मीर भए

तू कचरस हम चाउर कच्चा

प्यार पगे दूनो बखीर भए

छूट गयो पगहा कवित्त कै

जब कविता में कवि अधीर भए

काटत पीटत लांघत रेखा

छोट बड़ा हमहूं लकीर भए

आपे नहीं अकेल आरिया

एकरे पहिले एक 'नज़ीर' भए


मन में कबीर को जगह देना जोखिमों को आमंत्रण देना है। देवेंद्र की गजलें, इसके लिए समर्पित लगती हैं। दुष्यंत कुमार ने हिंदी में गजल जो मान दिलाया, उसे आगे ले जाने वालों में आर्य भी शामिल एक उल्लेखनीय नाम बन चुके हैं। 

उन्हें इस संग्रह के लिए बधाई! 


सोमवार, 12 दिसंबर 2022

नई बात

एक मुखड़ा

दो तीन अंतरे

काफी होते थे कभी

दास्ताँ सुनान को

फलसफा जिंदगी के

दोहराने को। 

कैलाश मनहर की किताब पर संक्षिप्त चर्चा

 

कहीं कुछ सड़ रहा है

संप्रति हमारे समय में एक तरफ तो सुविधापरस्त, मौकापरस्त कलमों की आमद बहुतायत में देखी जा रही है तो कुछ बिगाड़ के डर से झूठ नहीं बोलने वाली कलमें भी हैं। एक तरह से प्रतिरोध की भाषा को रचने वाली कलमें। कालजयी रचने की तमन्ना की जगह अपने समयकाल की विसंगतियों से टकराने वाली कलमें। ऐसी ही कलमों में शुमार हैं कैलाश मनहर। सीधी, सपाट और अभिधा में जरूरी बयान दर्ज करते जा रहे हैं। कविता में कला के मक्खन की चिकनाई की जगह जीवन से गायब होते रस की तलाश में बेचैन कविताएं अभिधा की शरण में जाने को मजबूर है।
     उबाऊ नहीं होनी चाहिए किंतु
     ऊब की अभिव्यक्ति जरूर होनी चाहिए कविताओं में
    कविता के बारे में कविता में कवि यह दर्ज कर अपनी राह के बाबत स्पष्ट कर देता है। यह भी कि-
    मेरे लफ्जों में थोड़ा दमखम है
    मुझको भी जेल में ढालेंगे वे
    (गीतिका-5)
    इस आशंका के बावजूद कवि की यह अपील-
    कहीं कुछ सड़ रहा है
    पता करो कवियों, वैज्ञानिकों,मानवाधिकार कार्यकर्ताओं
    जाने हवा में यह कैसी गंध बहती जा रही है
    हो सकता है किसी कविता की हत्या हुई हो
    किसी तार्किक विचार को मार दिया गया हो...
    (दुर्गंध)
    कवि के ताजा संग्रह -उतरते इक्कीस के दो महीने- में सानेट,गीतिका,पद और अतुकांत कविता के शिल्प में समकालीन विडंबनाओं से मुठभेड़ करते दिखते हैं-सच माने में अभिव्यकित के खतरे उठाते हुए। इस संग्रह में शामिल कविताओं के बारे में वरिष्ठ आलोचक जीवन सिंह ने उचित ही कहा है-साधरणता के सौंदर्य बोध की कविताएँ। उनके सपाटबयानी की भी तारीफ की है। जब अभिधा में बातें कहने की जरूरत आ पड़े तो इसे टाला भी नहीं जा सकता है। इस तरह बोलती कविताओं के कवि हैं कैलाश मनहर। मधुशाला प्रकाशन, भरतपुर, राजस्थान से आए संग्रह में कुछ प्रूफ की गलतियां हैं तो साज-सज्जा पर भी उचित ध्यान नहीं दिया गया है। 
    बहरहाल, इस संग्रह के लिए मनहर जी को बधाई। यहां इस संग्रह से कुछ कविताएं भी पेश कर रहा हूं ताकि पाठक खुद इससे दो-चार हो सकें।

1.
अंधभक्त गुलाम

संस्कृति के नाम पर
सत्ताधीश फैला रहे हैं सामाजिक वैमनस्य
और तुम चुप बैठे हो
धर्मांधता फैला कर
वे एक दूसरे के खून का प्यासा बना रहे हैं
और तुम डर रहे हो
विकास के नाम पर
बेचे जा रहे हैं वे देश के संसाधन और तुम
अनदेखी कर रहे हो
मंदी की हाहाकारी से
जूझते देश को मन की बात सुना रहे हैं वे
और तुम सुने जाते हो
बेरोज़गारी के कारण
अवसाद में डूबे युवा कर रहे हैं ख़ुदकशी
और तुम अन्जान हो
लगातार बढ़ती जातीं
ऱोजमर्रा ज़रूरतों की क़ीमतों के बावज़ूद
तुम बेफ़िक़्र दिखते हो
जब भी भाषण देते हैं
हर बार झूठ बोलते हैं प्रधान और तुम हो
घुटनों में सिर दिये बैठे
बहुत ज़रूरी लगता है
बोलना किन्तु अँधभक्ति के कारण कुंठित
तुम बेशर्मी दिखाते हो
सही बात तो यह है कि
तुम कोई स्वतंत्र मनुष्य नहीं हो ख़ुदगर्ज़ों
तुम सत्ता के ग़ुलाम हो
2.
डूबना

डूबना होता है
किसी लुहार का
लोहा कूटते समय कि मज़बूत
और धारदार बन सकें
सभी औज़ार
डूबना होता है
किसी प्रेमी का कि
उबरने का मन ही न करे
प्रेमिका की यादों के
ख़्यालों से
डूबना होता है
किसी कवि का कि
पूरी तरह रच सके
अपनी संवेदनायें
कविता में
डूबना होता है
किसी गृहिणी का
भोजन बनाते समय कि
सुपाच्य और स्वादिष्ट बन सके
घर परिवार हेतु
सारा भोजन
डूबना होता है
किसी नाव का कि
तट के पास आते ही
अचानक पलट कर
डूब जाये
डूबना होता है
किसी मुल्क का कि
अँधास्था भड़का कर
कोई तानाशाह नष्ट कर दे
तमाम संस्कृति और
सुभविष्य भी
3.
ऐसी तानाशाही

कितने दिन तक बने रहेंगे तिकुनिया की ज़मीन पर
खून के धब्बे
कितने दिन तक मँडराते रहेंगे वहाँ गिध्द और कौए
कितने दिन तक आवाजाही नहीं करेंगे उस रस्ते से
सामान्य लोग
कितने दिन तक रहेंगे उधर सियार और लोमड़ियाँ
चिन्तित हूँ मैं
कि आख़िर कितने दिन तक जमी रहेगी वहाँ मृत्यु
पुत्र मोह से बेचैन पिता गया था जेल में मिलने तो
क्या पड़ी थी पत्रकारों को कि
कोई असुविधाजनक सवाल पूछें उससे बढ़ाने को
दिल-दिमाग़ की बेचैनी ज़्यादा
कि गाली नहीं देगा तो क्या करेगा कोई मंत्री पिता
कैसा तो पहाड़ टूट पड़ा मंत्री पर कि जेल में गया
उसका प्रिय पुत्र हत्या के जुर्म में
कि हो ही जाता है पद के अहंकार में कभी कभार
आ जाता है गुस्सा विरोधियों पर
कुचल दिया तो कुचल दिया दस-पाँच जनों को हाँ
क्या ज़रूरत थी फैलाने की बात
मंत्री पुत्र को क्या इतना भी हक़ नहीं इस मुल्क में
जब तक रहेंगे सत्ता में ऐसे मंत्री
तब तक बने रहेंगे खून के धब्बे और मँडराते रहेंगे
तिकुनिया की ज़मीन पर गिध्द और कौए तब तक
नहीं करेंगे आम लोग उस रस्ते से आवाजाही और
विचरते रहेंगे सियार-लोमड़ियाँ
तिकुनिया के आसपास तब तक जमी रहेगी मृत्यु
जब तक रहेगी ऐसी तानाशाही
4.
कविता के बारे में

उबाऊ नहीं होनी चाहियें किन्तु
ऊब की अभिव्यक्ति ज़रूर होनी चाहिये कविताओं में
नीरस होते जाते जीवन की जो
ज़ुल्म सहते सहते होता जा रहा है लगभग विचारशून्य
अवरुद्ध-सा हो गया है पशुवत
सटीक बयानी ज़रूरी है किन्तु
सपाट बयानी नहीं होनी चाहिये कविताओं में कि जैसे
सच्चाई की अभिव्यक्ति मार्मिक अभिव्यंजना में हो पर
किसी प्रकार का पूर्वाग्रह न हो
पुनरुक्ति दोष से बचना चाहिये
कवियों को नहीं लिखनी चाहिये एक ही बात बार बार
एक ही रूप में कभी नहीं रखना चाहिये अपना विचार
बना तो रहना चाहिये प्रतिबध्द
सिर्फ़ विरोध में ही नहीं होनी चाहिये कविता कि सदैव
अभाव-अभियोग ही देखे जायें
कविताओं में लिखी जानी चाहियें जीवंत परम्परायें भी
सत्ता के ही विरूद्ध नहीं लिखी जानी चाहियें कवितायें बल्कि विपक्ष को भी यदा कदा
चुनौती देता रहना चाहिये कि बना रहे सर्वथा नियंत्रण
न जाने कितने कितने प्रतिमान
बताते रहे वे मुझे कविता लिखने के बारे में और मैं कि
सुने जा रहा था उनका प्रवचन
लगातार सोचते हुये कि इतना यदि किया जाये सायास
तो कैसे लिखी जायेगी कविता
5.
दुर्गंध

मेरी नाक गंधा रही है
यह सारा वातावरण गंधाता है
शायद यह समय ही गंधाता है
असहनीय है यह गंध
कहीं कुछ सड़ रहा है
पता करो कवियों वैज्ञानिकों मानवाधिकार कार्यकर्ताओं
जाने हवा में यह कैसी गंध बहती जा रही है
हो सकता है किसी कविता की हत्या हुई हो
किसी तार्किक विचार को मार दिया गया हो
हो सकता है किसी क्रान्तिकारी की हत्या कर दी गई हो
सड़ती हुई गंध है यह
कभी तो कोई न्यायाधीश मर जाता है होटल के कमरे में
आयातित हैलीकाप्टर में मारा जाता है सेना का जनरल
राष्ट्र की सुरक्षा के लिये मारे जा रहे हैं राष्ट्र जन
धर्म की रक्षा के नाम पर मारे जा रहे हैं विधर्मी
पुलिस थाने में टोंटी से लटक कर मर जाता है कोई युवा
तंत्र की सलामती के लिये लोक की हत्या की जा रही है
इस समय वातावरण में यह लाशें सड़ने की गंध है
यदि इसे दुर्गंध कहें तो
देशद्रोही होने का आरोप भी लगाया जा सकता है
अँधास्था का ध्रुवीकरण है
और धर्म पर ख़तरा बता कर मारी जा रही है
विवश विलापित मानवता
साज़िशें बहुत विकट हैं
किन्तु आतताई सत्ता को चुनौती देने के लिये ज़रूरी है
दुर्गंध को दुर्गंध कहना
6.
साजिश

जनता को भड़का रहे हैं
अफ़वाहें फैला रहे हैं तानाशाह के गुर्गे
लगातार सुर्रियाँ छोड़ रहे हैं
आँदोलनरत मज़दूरों के विरुद्ध उकसा रहे हैं
जबकि विदूषक हंसी उड़ा रहे हैं
आँदोलनकारियों की और तानाशाह की बातों पर
विश्वास करना सिखा रहे हैं कि
वही सब कुछ सही है जो कहा जा रहा है
झूठे संचार माध्यमों द्वारा
सत्ता में भी तो ऐसे ही आया है तानाशाह
देश-समाज में फैला कर धर्मांध कट्टरता बहुसंख्यकों में
पैदा करते हुये मिथ्या गर्वबोध का उन्माद
ध्वस्त करते हुये पारस्परिक आत्मीयता का संवाद-सेतु
छल-कपटपूर्वक हड़पी है उसने सत्ता भी
साम्राज्यवादी ताक़तों का
दलाल बना हुआ तानाशाह तलुअे चाटता है
पूँजीपति व्यापारियों और विदेशी राज्याध्यक्षों के
और अपनी सत्ता की सलामती के लिये
बना कर तरह तरह के काले क़ानून
दफ़्न करता है सच्चाई को
जब जब भी आँदोलित होता है जनमानस
जत्थों में निकलने लगते हैं
तानाशाह के अत्याचारों से त्रस्त नर-नारी
सड़कों पर इकठ्ठे होने लगते हैं मेहनतकशों के हुज़ूम
तो तानाशाह की नींद उचटती है और
रचने लगते हैं तानाशाह के सिपहसालार नई साज़िशें
जैसे कि अभी अपने
आक़ाओं द्वारा सिखाये गये
"फूट डालो और राज करो" के छद्म से
तानाशाह फूट डाल रहा है मेहनतकश
आँदोलनकारियों में
7.
कविता लिखने की बजाय

सरकार की हाँ में हाँ मिलाना ही यदि देशभक्ति है
तो मैं देशभक्त नहीं हूँ या कि
सरकार के दुष्कृत्यों की आलोचना करना
या सवाल करना यदि देशद्रोह है तो मैं देशद्रोही हूँ
सरकारी मंत्रियों के ऊलजलूल बयानों का विरोध करना
यदि अशिष्टता है तो मैं अशिष्ट हूँ
और न्याय की हत्या के विरोध में
आवाज़ उठाना भी यदि बग़ावत है तो मैं वाक़ई बाग़ी हूँ
सुनो ओ आम और खास लोगों
कि धर्मांध कट्टरता से
हिंसक बन कर
विधर्मियों की हत्या करना ही यदि धर्म है
तो मैं पूर्णत: अधर्मी हूँ
यदि भूखे लोगों के लिये
अनाज की ज़रूरत बताना कोई षड़्यन्त्र है
तो मैं षड़यन्त्रकारी हूँ कि
यदि वास्तव में अपने
जंगल और ज़मीन को बचाना नक्सलवाद है
तो मैं भी नक्सलवादी हूँ
यदि शासन के छल-छद्मों के प्रति लोगों को सचेत
करना अर्बन नक्सली होना है
तो मैं स्वयं के अर्बन नक्सल होने पर गर्व करता हूँ
चाहो तो गिरफ़्तार कर लो मुझे
कि मैं अपने
फ़र्ज़ से हटने वाला क़तई नहीं हूँ
इस ख़तरनाक समय में मुझे
कविता लिखने की बज़ाय संघर्ष ज़रूरी लगता है
8.
भेड़िया
बहुत उदार दिख रहा है
भेड़िया माफ़ी भी मांग रहा है अपने द्वारा
मारी गईं भेड़ों के बारे में
बहुत शरीफ़ दिख रहा है भेड़िया कि
रेवड़ में घात लगा कर हमला करने को बता रहा है
भेड़ों के प्रति अपने प्यार का प्रमाण
बहुत निरीह दिख रहा है भेड़िया
जबकि नष्ट नहीं हुई है उसकी भेड़ों को चबाने की
लपलपाती हुई हिंस्र अभिलाषा
स्वांग रच रहा है भेड़िया
चहेता बनने के लिये भेड़-बकरियों का
राम नाम जप रहा है वह
तपस्वी बता रहा है ख़ुद को भेड़िया
खा नहीं सका भेड़ों को तो
अपनी तपस्या की कमी बता रहा है
संभल कर रहना रे लोगों
भेड़-बकरियाँ नहीं बल्कि मनुष्य हो तुम जबकि
वह वास्तव में भेड़िया है
9.
नमन करता हूँ उस गृहिणी को जो
आग जला कर सेंकती है
दोनों वक़्त मेरे लिये गर्मागर्म रोटी
नमन करता हूँ अनाज के उन दानों को
जिन्हें किसान ने उपजाया
जिनके पिसने से बनता है आटा
और जिस आटे से बनाई जाती है रोटी
नमन करता हूँ रसोई गैस को और तवे को
नमन करता हूँ उन वनस्पतियों को
जिनके सूखे ईंधन से जलती है
चूल्हे में आग और तवे पर सिंकती है रोटी
नमन करता हूँ मेघों को और नदियों को
जल से भरे घड़े को नमन करता हूँ
नमन करता हूँ समुद्र को और नमक को
सुबह उठते ही
मैं किसी ईश्वर या देवी-देवता को
नमन नहीं करता बल्कि
आग जल अन्न नमक और लोहे को
नमन करता हूँ
नमन करता हूँ उन आदिम पूर्वजों को
जिन्होंने ढूँढ़े आग जल अन्न नमक और लोहा
साथ ही नमन करता हूँ गृहिणी को भी
10.
साधो!अपना देश महान |
लगभग सब नेताओं की है गुण्डों-सी पहचान |
करते वे शिकार लोगों का ऊँची बना मचान |
जनता का मुँह अरु सत्ता के बंद पड़े हैं कान |
जिसकी जितनी पहुँच है ऊँची उसका उतना मान |
लोकतन्त्र तो लुप्त पड़ा है ख़तरे में संविधान |
पुरस्कार लिप्सित कवि करते भ्रष्टों का गुणगान |
झूठा योगी गुण्डा शाह अरु जुमलेबाज़ प्रधान |
निपट अधर्मी चला रहे हैं मिथ्या धर्म दूकान |
सबक सिखायेंगे सत्ता को मिल मज़दूर-किसान |




शुक्रवार, 25 मार्च 2022

श्रम और संबंधों को तरजीह देती कविताएं

 बलभद्र

श्रम और संबंधों को तरजीह देती कविताएं

इस कवि की कविताओं से छिट-पुट मुलाकात होती रही है। हिन्दी के अलावा भोजपुरी में भी लिखते हैंं। इनकी कविताओं में श्रम को मान देने की झलक मिलती रही है। पहली बार उनके  संग्रह की कविताओं से गुजर कर पता चला कि रिश्तों को तरजीह देने की कई कविताएं भी हैं कवि के पास। दादा,पिता,मां आदि को बहुत आत्मीय ढंग से याद किया गया है। बाबा की चिरई, माई की घर-गृहथ्ती, स्नेह ममत्व, पिता की जीवटता-समर्पण मन को मोहने, द्रवित करने का काम करती जाती हैं। इसी तरह फसल काटती मजूरन, साइकिल से कोयला ले जाते लोग,ईंट पाथने वाले, आदीवासी औरत आदि पर कविताएं भी। कविता संग्रह का नाम है-' समय की ठनक' । इसे लोकायत प्रकाशन ,वाराणसी ने छापा है। आलोचक गोपाल प्रधान ने इस पर लंबी भूमिका लिखी है।कवि का नाम है बलभद्र। पेशे से आचार्य हैं। जसम जैसे संगठन से जुड़े हुए। जाहिर है, प्रतिरोध का स्वर को भी जगह है इसमें। गोपाल प्रधान सही कहते हैं कि बिहार के भोजपुर का संघर्षशील इलाका कवि का अपना इलाका है, लेकिन उनकी संवेदना उसी क्षेत्र तक सीमित नहीं रहती। वे अपने इस सुपरिचित संसार को लांघकर भूगोल के मामले में नए इलाकों की यात्रा करते हैं....किसी कुशल छायाकार की तरह उन्होंने मेहनत से जुड़े ढेरों बिंब साधे हैं। उनके बिंबों में गति है।
यह सच है। उनकी कई कविताएं इसकी गवाही देतीं हैं। जैसे कि रोपनहारिनें को ही देखें-

रोपनहारिनें
बड़े ही विश्वास के साथ
दूधमुँह थाती को सौंप थकी उम्र को
आँगन से दिनभर की मुहलत माँग
छतनार आकाश की छाँव तले
अपने अथक श्रम सीकरों से
हरियाली रचने के व्रत के साथ निकलती हैं रोपनिहारिनें
चेहरे पर मेहनत की मटमैली चमक
बोली में रहर की ढेंढियों-सी खनक
मेड़ों पर पछुआ की ठसक ठिठोली
गीले अहसासों से गदरायी धरती
लचक गये पाँव
धसक गयी मेंड़, थोड़ी
सुगबुगाये घास-फूस
पास के महुवे से फड़क उठीं चिड़ियाँ
झेंप गईं हँसकर अल्हड़ रोपनिहारिनें
उमड़-घुमड़ घटाएं
बरसा गईं रिमझिम
जुड़ा गया तन-मन
हवा की थापों पर थिरकी दिशाएं
निहाल हुए हल के हत्थे पर पलभर सुस्ताते हलवाहे
मन ही मन कुपित सूरज
उगलने लगा आग देखजर्रू-सा
अदहन हुआ पानी
युद्धक्षेत्र-सा तनी रही खेतों में जिद्दी रोपनिहारिनें
कभी धूप कभी छाँव के साथ
सीमित में सिमटे बीचड़ों को
देती हैं संभावना और विस्तार
हवा के झोकों से झालर मारते नन्हे नन्हे पौधे
मुँह और पीठ किस दिशा में हों
मुड़ेंगी कलाइयाँ किस कोण से
कब गाएं, सुस्ताएं कब, कैसे--
हवा के रुख को खूब पहचानती हैं रोपनिहारिनें
धरती के पिछड़े हिस्से पर ही सही
जहाँ जमीन और मर्यादा एक मकसद है
जहाँ आकार ले रहा है बदलाव
अपने गीतों से धरती को जगाती
फुफकारते विषधरों के
हर फन का माकूल प्रतिरोध करती हैं रोपनिहारिनें
धरती की धूसर चूनर पर अंकित
अथक शब्दों में
श्रम की अंतहीन गाथा, जिसे
बांचती हुई पुरखों की जन्मपत्री
उसके अंजाम तक पहुंचाएंगी रोपनिहारिनें
......
बड़की माई (बड़ी मां)कविता ग्राम्य समाज की पूरी तस्वीर को ही पेश कर देती है- पढ़ी जाए यह-

बड़की माई
तब यह मकान बड़ा था
इसमें दस कमरें और दो निकास थे
एक सीढ़ी घर और एक शौचालय
आँगन भी था अच्छा-खासा
इस मकान में तुम्हारा भी था अपना एक कमरा
और उस कमरे में एक पलंग
पलंग के नीचे रखी रहती थी एक बक्सा
मझोले कद-काठी का
बक्से की कुण्डी थी एकदम दुरुस्त
उसमें ताला लगाना तुम कभी नहीं भूलती
तीरथ-धाम या किसी गंगा-स्नान या मेला-बाजार कर
जब भी तुम लौटती
हाथ-मुँह धोने से पहले अपना वो बक्सा खोलती
और उसमें कुछ रखती-सहेजती
हम तब छोटे थे और हमसबों के सिवा
और किसी को उस बक्से में नहीं थी कोई दिलचस्पी
घर की औरतों के लिए तो वह मजाक का विषय था
पर, हम सबों के लिए वह
बतासा, मोतीचूर, बेलग्रामी, लकठो आदि का भंडार था
जिसकी बाक्साइन गंध
हम नहीं भूल पाए हैं आजतक
ओ बड़की माई !
लोग तुम्हें कहते थे मुसमात
ईया तुमको कहती थी जीवन बो
हम तब नहीं जानते थे
कि मुसमात दरअसल है किस बला का नाम
हम तो यही जानते थे
कि मुसमात तीरथ-धाम, गंगा-स्नान, मेला-बाजार करती है
गाँव में बारात जब आती है और उसमें नाच-काच होता है
तो बच-छिपकर रात-रातभर नाच-काच देखती है
हमसबों के लिए अपने बक्से में
बतासा, मोतीचूर, बेलग्रामी, लकठो रखती है
सबकी नजरों से बच-बचाकर देती है
बिना किसी से पूछे-आछे वह
चुपके से कहीं का कहीं निकल जाती है
नहा-धोकर धूप-बाती करती है कुछ गाती-गुनगुनाती है
जिसका पूरापूरी मरम खुला बहुत बाद में
और खुला तो मन आँसुओं से हुआ तर
अपने बक्से में तुम ताला लगाना कभी नहीं भूलती
पर कमरे की महज जंजीर चढ़ा तुम निकल पड़ती
अचानक किसी सुबह
और किसी को कुछ पता नहीं होता
कभी सुबह निकलती तो शाम को ही आ धमकती
कभी गायब रहती हफ्ता-दस दिन
तुम्हारा गायब रहना किसी को भी नहीं अखरता
घर-आँगन के क्रिया-कलाप सब यथावत
अचानक जब आ धमकती किसी सुबह या सांझ
घर की कोई औरत लोटा में पानी ले तुम्हारे धो देती पॉंव
और तीरथ-धाम के अर्जित सारे पुण्य
उसको असीसने में तुम खर्च कर देती
और हम सब तुम्हारे आस-पास मंडराते
कि बक्से से अबकी देखते हैं निकलता है क्या!
तुम रोज नहाती
सूरज महाराज को जल चढाती
अपने कमरे की दीवार पर खूंटियों के सहारे टिके तखते पर
देवी-देवताओं की मूरतों पर जल छिड़कती
धूप-बाती दिखाती
कुछ बुदबुदाती कुछ गाती-
'सूतल रहलीं पलंग पर हो गुरूजी दिहलें जगाय'
तुम्हारे कमरे की पलंग और मूरतों से जोड़कर
मोटा एक अरथ उचरता तब जेहन में
कि इन्हीं मूरतों के जगाने से तुम निकल पड़ती हो तीरथ-धाम
हम सांझ को कभी तुमसे कथा कहने को कहते
तुम सुनाती कोई न कोई कथा
और इसके बाद हम चले जाते अपनी अपनी माँ के पास
और खा-पीकर तुम्हारे कथा-पात्रों के साथ
हम चले जाते नींद के सपनों की दुनिया में
और तुम अपने उस कमरे में अपनी अंतर्ध्वनियों के साथ
धूप -बाती दिखाते तुम गाती गुनगुनाती अक्सर जो एक गीत
उसकी एक पंक्ति कौंधती है बारम्बार
'सामी के सुरतिया मनवा में रखतीं '
जब भी तुम गुनगुनाती यह गीत
स्वर तुम्हारा भींगा भींगा सा लगता
शीघ्र स्नान का प्रभाव तो यह बिलकुल नहीं था
जिस सामी की स्मृतियों में
तुम भिंगोये रखना चाहती थी अपने को
उसकी सूरत को चित् से उतरने नहीं देना चाहती थी
सब कठिन हो चला था तुम्हारे लिए
ओह री माई !
अपनी इस पंक्ति के साथ
ताजिंदगी तुम बनी रही जीवन बो
जीवन सिंह के नहीं होने के बावजूद
धूप-बाती जस जलती हुई,
पास के कुण्डेश्वर शिव का मेला देखा मैंने तुम्हारे संग
तुमने खिलाई थी जिलेबियाँ
तुम हम सबको नहीं ले जा सकती थी अपने साथ कहीं
कहकर तो नहीं मना किया था किसी ने, पर मना था
गाँव की नदी में नहाने तुम जाती थी अक्सर
नदी के पानी को सराहती कहते हुए कि धारा है एकदम निर्मल
स्वच्छ फिटकिरी की तरह
नदी नहाने का लुत्फ़ हम भी तब उठा लेते थे तुम्हारे संग
ब्रह्मपुर, बक्सर, कशी, प्रयाग, हरिद्वार, मथुरा, वृन्दावन, जगन्नाथ धाम, गंगासागर
कहाँ-कहाँ नहीं गई तुम
पर कोई सुननेवाला नहीं था तुम्हारा यात्रा-संस्मरण
अपने सारे संस्मरणों के साथ अब नहीं हो तुम
राजनीति तुम्हारा विषय नहीं रहा कभी
पर इंदिरा गांधी से तुम्हारा न जाने कैसा अपनापा था
आरा, बक्सर, शाहपुर जहाँ कहीं भी आनेवाली होती
इंदिरा गाँधी
तुम वहां पहुंचे बिना नहीं रही
घर की राजनीतिक धारा के विपरीत
तुमने हमेशा अपना वोट इंदिरा गाँधी को ही दिया
पर सतहत्तर में तुम्हारे भी बोल गए थे बदल
इंदिरा की सपने में भी शिकायत नहीं करनेवाली तुम
कहने लगी थी हत्यारिन
तुम कहा करती थी 'जार केहू के ढेर दिन ना चलल बा ना चली'
वोट देते समय मतदानकर्मी तुम्हारे नाम की परची
तुम्हारे हाथ से ले गुहराते
फूला देवी, पति-जीवन सिंह
शायद यही एक अवसर होता तुम्हारे लिए
किसी कागज़ पर अपने नाम के साथ अपने सामी का नाम अंकित देखने का
तुम थी झक्क गोरी, सुन्दर-सुभेख
बड़े-से मकान के भीतर
एक कमरे में रखे बक्से की ताला-कुण्डी में
अँटका तुम्हारा मन
जब आखिरी धाम को किया पयान
जहाँ केवल जाना होता है
तब भी घर की सेहत पर नहीं पड़ा खास फरक
जिनको रोना था, दो धार रो लिया
तुम्हारे बक्से का वह कुण्डी-ताला एक ही झटके में टूट गया
उस बक्से में पड़ी थी मूरतें देवी-देवताओं की
कुछ बतासे, कुछ बिस्कुट
खुली एक दियासलाई, अगरबत्ती का खुला एक पॉकेट
लाइफ़बॉय, सनलाइट साबुन
कुछ पुराने धुराने कपडे
एक तड़प
गीत की वह पंक्ति-'सामी के सुरतिया मनवा में रखतीं '
जिसको उस वक़्त शायद ही किसी ने सुना हो.
..............
और रिश्ते की प्रगाढ़ता को पेश करती नेम-प्लेट भी गौरेतलब है-

नेम-प्लेट
(छोटे भई विमल के लिए)..
आख़िरकार तुमने लगा ही दिया
मेरा नेम-प्लेट,
जो पड़ा हुआ था बनारस मे यूँ ही
लाकर वहाँ से
गाँव के दुआर के बरामदे में लगा ही दिया तुमने
मैंने तो नहीं बनवाया था इसे
बनवाने को कभी सोचा भी नहीं था
यह तो वर्माजी के उत्साही पुत्रों ने
मुझसे बिना कुछ बताए,
दिया था मेरे जन्म-दिन के उपहार के तौर पर
और यह अबतक का प्रथम उपहार था मेरे जन्म-दिन का.
इसे बनारस में बच्चों ने ज़रूर लगाया दीवार पर
पर, मैने ही उतार दिया एक-दो दिन बाद
जब भी मेरी पड़ती इसपर नज़र
मन ही मन शर्मा जाता रहा
कि इतना तो नहीं हो गया बड़ा
और यह आत्म-प्रदर्शन!
और उसी को तुमने लाकर बनारस से
लगा दिया गाँव पर-
'डॉ बलभद्र सिंह
हिन्दी विभाग,
गिरिडीह कॉलेज, गिरिडीह'.
गाँव पर इसे जब देखा पहली बार,
तो पड़ गया आश्चर्य में
अरे, यह यहाँ कैसे!
फिर फोन किया बनारस
तो मालूम हुआ कि उठा लाए तुम वहाँ से
पोंछ-पांछ कर
और दीवाल मे यहाँ ठोककर कीलें
लगा दिया तुमने
चलो ठीक ही किया
पड़ा हुआ था वहाँ बेमतलब
ठीक ही किया तुमने
और जो किया सो आजकल करता ही कौन है?
भाई का नेम-प्लेट शान से लगाते ही कितने हैं?
तुम्हें मालूम होना चाहिए
कि मेरा यह नाम
पिता के चाचा का है दिया हुआ
उनको मिला था यह नाम जगन्नाथ धाम की यात्रा में
और यह भी मालूम होना चाहिए
कि तुम्हारा नाम पिता के छोटका बाबूजी का है दिया हुआ-
जिनको हमसब कहते थे कलकतवा बाबा
कलकत्ता से पोस्ट-कार्ड पर पर लिखकर भेजा था उन्होंने।
बिमल अर्थ सहित......
..........
'समय की ठनक' की कविताओं में ऐसी कई पठनीय कविताएं है, जिससे गुजरना संवेदना के सागर में डुबकी लगाने जैसा है। इसमें दर्ज 'कविता मेरी' बताती है कि कवि ने ये कविताएँ क्यों लिखी हैं। कवि को अपने समय की विद्रूपताएं बाध्य करती हैं कुछ सोचने-विचारने और उन पर कुछ कहने के लिए। संग्रह की पहली कविता अन्न हैं, कलपेंगे से अन्न की महत्ता को रेखांकित करता है कवि।
आया कि
अन्न हैं, कलपेंगे पड़े-पड़े
धंगाते रहेंगे पैरों तले
ठीक नहीं इनका अपमान
वह तो चिरई है बाबा की कविता की यह पंक्तियां कितनी मार्मिक हैं, इसे देखें-
मैं बड़ा हुआ और होता ही गया
फिर हुआ एक दिन ऐसा
कि चिरई की तरह
बाबा ही उड़ गए फुर्र...
पर, उनकी वह चिरई
मैं जहां-जहां जाता हूं
वहां-वहां जाती है
शिव-शिव गुहराती है
जगाती है रोज
मैं देखता चाहता हूं उसे
इसी तरह की कई कविताएं हैं इसमें। जैसे कि बात ठन गई। छोटी मगर, मजबूती से खड़ी रिक्शेवाले के पक्ष में-
धक्का खाया
भरी सड़क पर रिक्शा छितराया
रह गए हम सब हक्के-बक्के
कहीं से कोई बोल न पाया
खड़ा हो गया रिक्शावाला
देह झाड़ कर
गोल बने दो
बात ठन गई।
........
पुलिस फायरिंग, जातीय संघर्ष, जनसंहार जैसी दुखद वारदातों पर भी साहस के साथ दर्ज हुईं हैं कविताएं।
कोई सुने तो एक छोटी कविता है।
चल रही है गेहूं की कटाई
ताबड़तोड़ चल रहे हैं हंसिये
खेतों से उठ रहा है एक संगीत चतुर्दिक
कोई सुने तो समझे
झींगुरों ने भी इसमें डाली है जान।
कवि ने अपनी इस किताब को समर्पित किया है कथाकार मार्कण्डेय की स्मृति को।
इस किताब की कविताएं पढ़ी जानी चाहिए।