मंगलवार, 7 जून 2016

(बेतरतीब किस्सा-1)


माता जी यानी अम्मा के बक्से से मिली जन्मकुंडली के मुताबिक अपन 60वें में दाखिल हो चुके हैं। होश संभालने के बाद हाथ लगी इस कुंडली से पता चला कि अपन सात महीने पहले पैदा हो चुके थे दस्तावेजी तारीख से। यानी पांच अक्तूबर 1956 को। सर्टिफिकेट में दर्ज है पांच मई 1957। आपको मालूम ही होगा कि तब अस्पतालों से प्राप्त जन्म-प्रमाणपत्र स्कूली दाखिले के लिए अनिवार्य नहीं था। पिताश्री या अभिभावक जो बता देते वही सही मान कर स्कूल के रजिस्टर में दर्ज कर लिया जाता था। यानी उस परंपरा के निर्वाह दस्तावेजी कागजों में होता रहा। पर सच तो यही है कि छह अक्तूबर 2015 से अपन 60वें में दाखिल हो गए। पचपन में बचपन के बाबत कुछ नहीं लिखा-कहा, तो अब 60वें में बीते दिनों के कुछ लमहों को याद कर लेते हैं।
शायद 14-15 साल के होते-होते शेरो-शायरी, फिल्मी गानों के असर ने तुकबंदी की ओर मुझे आकर्षित किया। प्रकृति और प्रेम ही मेरी तुकबंदियों के आधार थे। स्कूली पढ़ाई में ‘...चेतक बन गया निराला था,’ ‘ ...वीर तुम बढ़े चलो, धीर तुम बढ़े चलों’, ‘चंदन विष व्यापै नहीं’, ‘मन ही राखो गोय...’ जैसी कविताओं, दोहों ने प्रभावित तो किया था, पर रानू, गुलशन नंदा, समीर आदि के साथ ही कर्नल रंजीत जैसों के उपन्यासों, फिल्मी प्रेम कहानियों ने, गीतों ने ज्यादा प्रभावित किया। समाज में आस-पास भी किस्से ही किस्से बिखरे पड़े थे, जिनमें प्रेम के तत्व कुछ ज्यादा थे। फिल्मी परदे पर राजेश खन्ना अवतरित हो रहे थे। फिल्मी गीतों का असर तब किस पर नहीं रहा होगा। सो तुकबंदियों में उनका असर कैसे न पड़ता। ‘दूर नगर में बसे मेरे प्रीतम, याद उनकी सताती है...’ किस्म की तुकबंदियों का असर 20वें साल तक रहा। इरादा कहानियां बुनने का भी रहा और दुखांत किस्म के उपन्यास लिखने का भी, कुछ स्याही खर्च भी हुए इस बाबत, लेकिन न कोई कहानी मुकम्मल बनी न उपन्यास ही आगे बढ़ा। बस तुकबंदियों का सिलसिला जारी रहा। ‘चांद तुम पर्वत के पार न जाना...’, ‘ये कैसा न्याय है भगवान, कोई रो रहा है, कोई हंस रहा है...’, ‘आंखें तुम्हारी झील सी, कैसे न डूब जाता मैं...’
वह चौहत्तर-पचहत्तर के दिन थे। कादम्बिनी में नए कवियों के लिए प्रवेश नामक एक स्तंभ निकला करता था। कई मर्तबा उसके लिए कविताएं भेजी, पर छपी नहीं। ‘निहारिका’ या ‘सुषमा’ में एक प्रेम कहानी भी लिख भेजी। पर वह भी छपी नहीं। निराशा तो जरूर हुई होगी, पर कुछ न कुछ, कभी-कभार कापियों में दर्ज करता रहा। 1976 में जब आगे की पढ़ाई के लिए तब के बिहार और अब के झारखंड से उत्तर प्रदेश के पैतृक निवास वाले जनपद जाना हुआ तो राजनीतिक जागरूकता और सामाजिक यथार्थ से मुठभेड़ ने गैर-बराबरी, जात-पांत, शोषण-उत्पीड़न की तरफ ध्यान खीचना शुरू कर दिया। वहीं ‘दिनमान’, ‘सारिका’ में दिलचस्पी पैदा हुई। कमलेश्वर, दुष्यंत कुमार, रघुवीर सहाय, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना आदि के साथ-साथ कामरेड़ों में भी दिलचस्पी पैदा हुई। गरीबी, सामंतवाद, पूंजीवाद, शोषण मुक्त समाज जैसी बातों के मर्म को समझने की किताबी कोशिश भी शुरू हुई। और वहीं कुछ सपाट, अनगढ़ कविताएं लिखी और कुछेक गजलनुमा तुकबंदी भी। पहली कविता बलिया के एक साप्ताहिक में छपी। साप्ताहिक का नाम था-कुटज। अपने अग्रज की तरह और मित्रवत रहे हरिबंश जी तब उसका अनौपचारिक संपादन करते थे। उन्हीं की पहल से यह कविता छपी थी। अक्षर-अक्षर जोड़ कंपोजिटर ने इसका फ्रूफ निकाल कर दिखाया था। पन्ने पर अपनी पहली कविता को दर्ज देख धड़कनें तेज हो गई थीं। मन खुश तो हुआ ही होगा। पर कंपोजिटरों में भी गजब का उत्साह था। शायद यह उत्साह मिठाई को लेकर ज्यादा था। उस दिन मिठाई तो नहीं, चाय-समोसे का दौर जरूर चला था। वह आयोजन हरिबंश जी की तरफ से ही हुआ था। कविता का शीर्षक था-झगरू का मुर्दा। इसमें न्याय-व्यवस्था और सामंती मानसिकता पर सवाल उठाया गया था। उस समय वहां से ‘रससुलभ’ नाम की पत्रिका निकालते थे नरेंद्र शास्त्री। वे कवि-कहानीकार थे। पेशे से अध्यापक। सारिका, धर्मयुग में उनकी कहानियां छप रही थीं। वहीं अपने विनय बिहारी सिंह से जान-पहचान हुई थी। बाद में उनसे दिल्ली में भी मिलना हुआ। और 1991 में तो हम जनसत्ता में आ गए। बलिया में भगवती प्रसाद द्विवेदी जी से बीए में पढ़ते वक्त ही हुई थी। वे उसी किराए के मकान में रह कर पढ़ाई और नौकरी की तैयारी कर रहे थे, जिसमें मैं भी अपने अनुज के साथ रहता था। वे भी कविताएं लिखते थे और ‘आज’ वगैरह में छप भी रहे थे। गोष्ठियों में भी जाया करते थे। गीत-गजलों का शौक डा. राजेंद्र भारती को था, सो ‘रससुलभ’ को अपनी तरह से सभी मदद करते थे। यह भी तब ट्रेडिल मशीन पर छपती थी। हम रोज पता करने पहुंच जाते कि कितने पेज कंपोज हुए। ...
(बेतरतीब किस्सा जारी रहेगा)

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