गुरुवार, 23 जून 2016

कारवां बढ़ता रहे

कारवां बढ़ता रहे
शैलेंद्र
इन दिनों कविता को लेकर कुछ साहित्य प्रेमी लोगों को कुछ ज्यादा ही चिंता हो चली है। इसको लेकर गैर कवियों को ही नहीं सुकवियों को भी चिंता होने लगी है। अच्छी कविताएं लिखने का दावा करने वालों की चिंता इस बात लेकर बढ़ी है कि बुरी कविता ने उनकी अच्छी कविताओं के सामने संकट पैदा कर दिया है। वे कहीं कविता की आतंकारी भीड़ में खोती जा रही है। मंचीय कविता तो पहले से ही लिखी-पढ़ी-छपी जाने वाली कविता पर सितम ढाती रही है, इधर पत्र-पत्रिकाओं में बेशुमार छपने वाली बुरी कविताओं ने भी गजब ढाना शुरूकर दिया है। यानी इसने अच्छे, चर्चित, प्रसिद्ध सुकवियों की कविताओं के सामने पहचान का संकट पैदा हो गया है। रद्दी, खराब या बुरी कविताओं की भीड़ में उनकी अच्छी-कालजयी कविताएं गुम हो जा रही हैं। पाठक तो उन्हें पहचान ही नहीं पा रहे हैं। अच्छी-बुरी की शिनाख्त की तमीज तो उनमें है नहीं, उस पर आलोचक बंधु भी पाठकों के कान नहीं पकड़ रहे हैं। उन्हें बता नहीं रहे कि भैये ये रहीं अच्छी कविताएं, इन्हें ही पढ़ो। यानी अमुक-तमुक को ही पढ़ो। संपादकों के भी बीच-बीच में कान-वान पकड़ते। कहां-कहां से ढूंढ लाते हो भई इतने कवि-कविताएं। काहे फैलाते हो भई अपसंस्कृति। यह तो सांस्कृतिक अपराध है-इतना भी नहीं समझते। हम और हमारे सुकवि जिनके नाम सुझाएं-उनको ही छापा करो बारी-बारी। सीधी-सपाट, किसी के भी समझ आने वाली पंक्तियां भला कविता हो भी कैसे सकती हैं। वह कविता भला अच्छी हो भी कैसे, जिसे समझने में आलोचक या खुद कोई सुकवि मदद न करे।
ग्यारह राज्यों की भाषा, जिसे पुरे देश में 60-70 करोड़ या इससे भी ज्यादा पढ़ने या समझने वाले लोग हों, उस भाषा में 500-1000 या इससे भी कम प्रतियां छपने वाली पत्रिकाओं के मूढ़ संपादकों को कविता की तमीज ही नहीं सो बुरी कविता छापे चले जा रहे हैं। ये लघु पत्रिका निकालने वालों का तो कविता के बिना काम ही नहीं चलता। कुछ सिरफिरे प्रकाशक हैं, जो बहुत सारे बुरे कवियों की बुरी कविताओं की किताबें छापे चले जा रहे हैं। भले ही वे 200-300 प्रतियों के संस्करण हो।
ये लोग बाजारू या बड़ी पूंजी से निकलने वाले पत्रओ-पत्रिकाओं से भी सबक नहीं लेते। वहां कितने प्रेम से कविता ही क्यों, पूरे साहित्य को हाशिए पर धकेल दिया गया है। फैशन, प्रसाधन, फिल्मी गपशप, टीवी समाचार, खेल, मंत्र-तंत्र, राशिफल आदि की जगह कविता या साहित्य के लिए जगह क्यों जाया करनी चाहिए। यहां के संपादक कितने समझदार हैं। वे अच्छी-बुरी के चक्कर में फंसते ही नहीं। समझदारी का ही नहीं, समय का भी यही तकाजा है कि इसी तरह के ज्ञान बढ़ाऊ गद्य छापे जाएं, जैसा कि वे छाप रहे हैं। अच्छी कविता के पुजारियों को बाकी चीजों से भला क्या लेना-देना।
बेहतर होता कि बुरी कविताओं से ऊबे लोग यह लिख-पढ़ कर बताते कि ऐसे लिखी जाती है अच्छी कविता। हमारे आलोचक बंधु भी कोई तरकीब बता देते या कुछ अच्छी कविताएं लिख कर बतौर नजीर पेश करते, जिससे बुरी कविता लिखने वाले कुछ सबक लेते।
दरअसल, काव्य-लेखन दृष्टि, अहसास व अभ्यास का भी मामला है। कलात्मक साधना के साधक अपनी साधना में लगे रहें, इस पर भी किसी को आपत्ति नहीं होनी चाहिए। पर बेबसी, बेचैनी और गुस्से से भरे माहौल में धीर-गंभीर कविता कम ही जन्म लेगी। अधीरता के संवेग से निकली कविता से वही अपेक्षित है, जो तर्कसंगत भी लगे। फूल, पत्तियां, बहार, जीवन-मृत्यु के रहस्य की जगह लोक के लौकिक और कभी न खत्म होते दिखने वाले जीवन-संघर्ष-विसंगतियों की चर्चा जब कविता में होगी तो उसमें सपाट बयानी भी होगी और आड़ी-तिरछी अपूर्ण-सी लगने वाली पंक्तियां भी, जो आंखों-दिलों में चुभती हैं, लिखी जाएंगी। दिल्ली बलात्कार कांड पर या ऐसी ही किसी वीभत्स वारदात पर कविता लिखी जाएगी तो उसमें धीरता की चाह कवि और कविता पर ज्यादती होगी। प्रतिक्रिया और प्रतिरोध की भाषा सपाट, आक्रामक और मुखर ही होगी। ऐसा होना समय की मांग होती है। कलात्मक अभिव्यक्ति की मालाजाप अराधना कम।
इस सवाल का जवाब हमें तलाशना ही चाहिए कि कविता में बौद्धिकता की बोझ कितनी होनी चाहिए। क्या इतनी कि वह साहित्य के साधारण पाठक को संप्रेषित ही न हो पाए और पाठक पत्रिका या किताब के पन्नों को पलटते हुए कहीं और कूच कर जाए। दरअसल, वह कविता किसी काम की नहीं जिसे सिर्फ और सिर्फ कवि या फिर उसका चहेता आलोचक या संपादक ही समझ पाए। सहज संप्रेषित कविता को कमजोर या बुरी कविता कह कर नाक-भौं सिकोड़ने का कोई मतलब नहीं।
हिंदी में कविता के ऊफान से ऊबे लोगों को बंगला, मराठी, मलयालम, तमिल, असमिया के कवितामय संसार को भी देखना चाहिए। कविता से यहां प्रेम का रिश्ता है, ऊब का नहीं। यहां सैकड़ों की संख्या में कविता की पत्रिकाएं निकल रही हैं। अपने कोलकाता में पुस्तक मेले में लघु पत्रिकाओं के लिए सम्मान के साथ जगह दी जाती है। बड़ी संख्या में कवि-कवयित्रियां कविताएं सुनते-सुनाती हैं। कविता पुस्तकों का लोकार्पण होता है। कवि-कवयित्रियों की कविताओं की आवृति होती है। यहां लगने वाले लघु पत्रिका मेले में पांच-छह दिन डेढ़-दो सौ कवि अपनी कविताएं सुनाते हैं। दूसरों की सुनते हैं। यहां नए-युवा कवियों को गर्मजोशी से स्वागत किए जाने की परंपरा है। नए धीरे-धीरे मंजेंगे इस उम्मीद के साथ। रद्दी-बुरी-खराब का रोना यहां कम ही है।

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