मंगलवार, 31 अक्तूबर 2017

तनाव की भट्ठी




तनाव की भट्ठी
शैलेंद्र शांत
बात तो एक छोटे और सस्ते मकान में शिफ्ट होने की थी। भले ही वह एक कमरे का ही क्यों न हो। क्योंकि एक अकेले आदमी के लिए अधिक किराये के मकान की क्या जरूरत। इसलिए छोटे मकान की तलाश जारी थी । इस बाबत परिचितों से मदद की अपेक्षा लाजिमी थी। कुछ परिचित इस कोशिश में लगे थे और कुछ ने इस दिशा में पहल करने का भरोसा भी दिया था। उनमें से एक मैं भी था। 
बहुत पांव घिसाई और झंझटों के बाद दोनों बेटियों की शादी से वे निपट चुके थे। पुत्र जी का भी हाल ही में विवाह हो गया था। जीवन संगनी कुछ साल पहले ही साथ छोड़ कर जा चुकी थीं। बेटियां ससुराल में और पुत्र जी दूसरे शहर में। नौकरी ले गई थी उसे उस शहर में । पुत्र चाहते थे कि पिताश्री साथ में ही रहें। कई परिचितों - रिश्तेदारों की भी यही राय थी। पर वर्मा जी अपने शहर में ही बने रहना चाहते थे। उस इलाके के आसपास जहां उनके 40 साल गुजरे थे। वह एक निजी संस्थान की नौकरी से अवकाश प्राप्त कर चुके थे । संस्थान के क्वाटर के छूटने के बाद किराये के मकान में रहते थे। पत्नी के नहीं रहने और बच्चों की दुनिया बस जाने के बाद अब वह बड़ा और महंगा लगने लगा था। वे शाम को होम्योपैथी की डिस्पेंसरी चलाते थे। थोड़े सामाजिक जीव भी थे। मौके-बेमौके जरूरतमंदों के काम आने वाले। जाहिरा तौर पर स्वाभिमानी भी। सत्तर के करीब पहुंच चुके थे वे, लेकिन लगते नहीं थे। हमेशा उत्साह से भरे रहते थे वर्मा जी। वे अपने लिए खाना बना लेते थे। कपड़े साफ कर लेते थे। यानी पूरी तरह से स्वावलंबी। हालांकि हाल में ही उनको पेसमेकर लगाना पड़ा था। लेकिन हाल तक पूरी तरह स्वस्थ। 
उस दिन वह अपने एक रिश्तेदार के घर पर थे। वहीं इस बात पर बहस छिड़ गई थी कि इस ढलती उम्र में उन्हें अपने पुत्र के साथ ही रहना चाहिए। जाने कब स्वास्थगत परेशानी बढ़ जाए। ऐसे में किसी सगे का पास होना जरूरी है। सो उन्हें अब आराम करना चाहिए। रिश्तेदार के पड़ोसी की इस राय से शायद वह व्यथित थे। उनके चेहरे पर खिंची रेखाएं इसकी गवाह थीं। लेकिन वह उनकी राय पर हंस भर रहे थे। मैं वहां मौजूद था। मुझे यह अच्छा नहीं लग रहा था। मुझे बोलना पड़ा कि वर्मा जी स्वस्थ हैं। अपनी डिस्पेंसरी चलाते रहना चाहते हैं। जिस समाज, माहौल, इलाके से उनका सालों का साथ बना रहा है, उसे वे छोड़ना नहीं चाहते। तो उन पर दूसरे शहर में बेटे के पास चले जाने का सलाह नहीं दी जानी चाहिए। बच्चे उनसे आकर मिल लिया करेंगे। अब शहरों की दूरी उतनी रही भी नहीं। दरअसल, बातचीत का लहजा कुछ ऐसा था, जिससे उसमें दबाव का भाव झलकता था। इस तरह का मनोवैज्ञानिक दबाव उचित नहीं था। 
वैसे भी इन दिनों यह बात आम हो चली है कि बच्चे दूसरे शहरों में नौकरी करते हैं और माता-पिता अपने शहर वाले घर में। कोलकाता में या दूसरे महानगरों में भी बहुत से बुजुर्ग अकेले रहते हैं। बुजुर्ग महिलाएं तक रहती हैं परिचारिकाओं के सहारे। मेरी एक पड़ोसन इसकी साक्षात उदाहरण हैं। उनकी बहू शहर के दूसरे छोर पर फ्लैट लेकर रहती हैं। नौकरीशुदा बहू को वहां से दफ्तर आने-जाने में सुविधा है। जाहिर है, पुत्र भी साथ में रहते हैं। पति दिवंगत हो चुके हैं। वे बीच-बीच में उनसे मिलने आते रहते हैं। ऐसे उदाहरण अब कम नहीं। पेंशन या घर के किराये से या बैंकों में जमा पैसों पर मिलने वाले सूद के सहारे जीवन की गाड़ी खींचती रहती है। लायक बच्चों से भी आर्थिक मदद मिलती ही है। इसके पीछे घर, शहर, इलाके के मोह के साथ ही अपनी तरह से रहने की आजादी की चाह भी होती है। हकीकत तो यह है कि एक ही शहर में नौकरी या व्यवसाय के कारण बच्चे-बहुएं अलग-अलग छोर पर रहने के लिए मजबूर हैं। कुछ स्वतंत्र रूप से रहने के इरादे से भी। 
वर्मा जी की भी शायद यही चाह थी। वह स्वावलंबी भी थे। डिस्पेंसरी से इतनी आय हो जाती थी, जिससे उनका खर्चा निकल जाए। पुराने किराए के मकान को छोड़ अपनी डिस्पेंसरी के आसपास मकान तलाशने की कोशिश उनकी जिजीविषा का ही संकेत था। इसे मान दिया जाना ही अपेक्षित था। सो मैंने भी उनके लिए सस्ता और छोटा मकान लताशने की कोशिश शुरू कर दी थी। दो-एक परिचितों से इस बाबत चर्चा भी की थी। लेकिन इस कोशिश पर विराम लग गया। कोई हफ्ता ही गुजरा होगा कि उनके रिश्तेदार का फोन आया कि वर्मा जी नहीं रहे। दो दिन पहले ही ब्रेन स्ट्रोक के कारण उनका निधन हो गया। हड़बड़ी और घबराहट में वह उस दिन मुझे खबर नहीं कर पाए। पटना से पुत्र जी आ गए थे। यह रिश्तेदार उनके समधी हैं। वर्मा जी की बड़ी बेटी इन्हीं के बेटे से ब्याही गई है। एक बेटी दूसरे शहर में। बेटी भी सगी ही होती ही न। वर्मा जी को शायद इन सगों के सहारे पर कहीं ज्यादा भरोसा रहा होगा। इस शहर और यहां बनाए अपने समाज पर भी। वैसे भरोसा तो जिंदगी पर भी उन्हें कम नहीं था। लेकिन कथित अपनों-परिचितों के दयाभाव वाली चिंताओं - सलाह से वे व्यथित जरूर होते होंगे। कहीं इस दयाभाव ने ही तो नहीं न बुझने वाली तनाव की भट्टी में झोंक दिया, न जाने क्यों मेरे मन में यह सवाल उठ रहा है वर्मा बाबू को याद करते वक्त।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें