शनिवार, 4 अगस्त 2012

दुख की बदली

छंटती ही नहीं
दुख की बदली
चली आती है
रूप बदल-बदल कर
कभी भूरी, कभी काली
बढ़ाती ही जाती बदहाली
बरसती आंसुओं के मानिंद
जब कभी बरसती है
दुख की बदली
आशंकाओं के झुरमुट
पसरते ही चले जाते हैं
जैसे कि पसरती जाती बाढ़ की नदी
होता रहे तबाह कोई
उसको क्या परवाह
फुरसत देती है तो बस
आह भरने भर को
दुख की बदली
कोई तो रोके उसे
बिलखने से
वह बिलखती है जब-जब
बिलखाती है, बस बिलखाती ही जाती है।