सोमवार, 19 दिसंबर 2022

'ग़जल को ग़ज़ल ही रहने दें'

 

जैसे भाषा में बोलियां हैं सा'ब

मुल्क में वैसे ही मियां हैं सा'ब


साथ सदियों से रहते आए मगर 

अब भी सदियों की दूरियां हैं सा'ब


आपने ऐसे कैसे सोच लिया !

आपके भी तो बेटियां हैं सा'ब


जुट गयीं तो नहीं बचेगा कुछ

ये सियासत की चीटियां हैं सा'ब


रंग मजहब बिरादरी पैसा

प्यार में कितनी गुत्थियां हैं सा'ब


एक ही तो 'किताब' है अपनी

उसमें भी कितनी गलतियां हैं सा'ब


ये न टेढ़ी हुईं न घी निकला

कैसी मतदानी उंगलियां हैं सा'ब


इनको तो बक्श दीजिए मालिक !

गमछे में बांधी रोटियां हैं सा'ब

यह देवेंद्र आर्य की एक गजल है, जो इनके ताजा संग्रह 'मन कबीर' में दर्ज है। इस संग्रह में ऐसी ही कई गजलें हैं, तल्ख,करारी और कुछ कमजोर सी लगने वाली गजलें भी, जिनमें कुछेक मजबूत शेर हैं। ये सभी समकाल से नज़र मिलाकर बतियाती, सवाल और मुठभेड़ करती लगती हैं। 

जैसे-

चिटक बेशक गए हैं दिल के रिश्ते

अभी तक टूट कर बिखरा नहीं हूँ

 रिश्तों में तोड़-फोड़ के इस दौर खुद को बिखरने से बचाना, उम्मीद को उम्र देने जैसी बात है। 

...... 

कोई कैसे मान ले जिंदा हैं आप

हो कोई काग़ज अगर, दिखाइये

 इधर की यह बड़ी बिडंबना और भुगतभोगी ही इस पीड़ा को समझते हैं। इस पीड़ा को जुबान देने वाला शायर भी बेशक। 

...... 

आप दलहन की बात छेड़ेंगे

जिक्र वह छेड़ देगा केसर का

आज की सियासत की बेशर्मी और असंवेदनशीलता को उजागर करने के लिए यह शेर कितना माफिक है, बताने की जरूरत नहीं। 

..... 

सब चुप हैं डर के मारे मगर फिर भी हो रही

राजा के नंगे होने की चर्चा गली-गली

.... 

जिसको देखो है वही सूखे बदन बारिश में

छत भी कोई नहीं, सर पर कोई छाता भी नहीं

.... 

मोहब्बत नाम है उस जिंदगी का

कि जिसमें आँच है और प्यास भी है

..... 

बेटा बहू तो दूर, खसम भी न आए पास

मैं सो गई थी रात में घर को खिला-पिला

.... 

धर्म और पूँजी का का है रिश्ता यही

ताने में बाना, बाने में ताना

.... 

ये चंद शेर भी बहुत कुछ कहते हैं -अपने समय के यथार्थ को आईने के सामने खड़े करते हुए। देवेंद्र कहन के एक अलग अंदाज लिए हमारे समय के खास गजलकारों में से एक हैं। प्रगतिशील, जनवादी और प्रयोगधर्मी । यह उनका छठा ग़ज़ल संग्रह है। दिल्ली के 'न्यू वर्ल्ड पब्लिकेशन' से आया है । 

इनकी इस किताब पर अग्रज कवि- गजलगो, संपादक रामकुमार कृषक कहते हैं कि "इनके यहां कविता की ताज़गी और ताप दोनों को एकसाथ अनुभव कर सकते हैं। ...नए बिंबों और प्रतीकों की भी उनके यहां कमी नहीं , और शेरों की ज़मीनी अंतर्वस्तु के अनुरूप उन्हें बरतने की सलाहियत की भी । "

इस संग्रह के लिए किसी से ब्लर्ब या भूमिका नहीं लिखाई गई है। आर्य ने जरूर 'कुछ अपनीःकुछ शायरी की' बात कही है। गजल के सफर के बाबत बात करते हुए देवेंद्र इस बात से सहमत दिखते हैं कि गजल को गजल ही रहने दिया जाए। अपने बााबत यह कहते हैं कि" बताने के लिए सिर्फ इतना है कि मैं शायरी करता हूं, सियासत नहीं। शायरी ही मेरी सियासत है। जैसे कबीर अपनी भक्ति में सियासत कर रहे थे।....कविता भी डूबते को तिनके को सहारा होती है, जैसे कि जैसे ईश्वर दुखी इंसान को आखिरी सहारा..."

 उनके इस कथन की गवाही देती इसी किताब की यह गजल गौरतलब है-


तन तुलसी और मन कबीर भए

तब जाके शायर फ़क़ीर भए

रूमी अस जब रूह भयी तब

सूरदास जस ई शरीर भए

कविता होइ गए खुदे निराला

मुक्तिबोध सउंसे ज़मीर भए

तू कचरस हम चाउर कच्चा

प्यार पगे दूनो बखीर भए

छूट गयो पगहा कवित्त कै

जब कविता में कवि अधीर भए

काटत पीटत लांघत रेखा

छोट बड़ा हमहूं लकीर भए

आपे नहीं अकेल आरिया

एकरे पहिले एक 'नज़ीर' भए


मन में कबीर को जगह देना जोखिमों को आमंत्रण देना है। देवेंद्र की गजलें, इसके लिए समर्पित लगती हैं। दुष्यंत कुमार ने हिंदी में गजल जो मान दिलाया, उसे आगे ले जाने वालों में आर्य भी शामिल एक उल्लेखनीय नाम बन चुके हैं। 

उन्हें इस संग्रह के लिए बधाई! 


सोमवार, 12 दिसंबर 2022

नई बात

एक मुखड़ा

दो तीन अंतरे

काफी होते थे कभी

दास्ताँ सुनान को

फलसफा जिंदगी के

दोहराने को। 

कैलाश मनहर की किताब पर संक्षिप्त चर्चा

 

कहीं कुछ सड़ रहा है

संप्रति हमारे समय में एक तरफ तो सुविधापरस्त, मौकापरस्त कलमों की आमद बहुतायत में देखी जा रही है तो कुछ बिगाड़ के डर से झूठ नहीं बोलने वाली कलमें भी हैं। एक तरह से प्रतिरोध की भाषा को रचने वाली कलमें। कालजयी रचने की तमन्ना की जगह अपने समयकाल की विसंगतियों से टकराने वाली कलमें। ऐसी ही कलमों में शुमार हैं कैलाश मनहर। सीधी, सपाट और अभिधा में जरूरी बयान दर्ज करते जा रहे हैं। कविता में कला के मक्खन की चिकनाई की जगह जीवन से गायब होते रस की तलाश में बेचैन कविताएं अभिधा की शरण में जाने को मजबूर है।
     उबाऊ नहीं होनी चाहिए किंतु
     ऊब की अभिव्यक्ति जरूर होनी चाहिए कविताओं में
    कविता के बारे में कविता में कवि यह दर्ज कर अपनी राह के बाबत स्पष्ट कर देता है। यह भी कि-
    मेरे लफ्जों में थोड़ा दमखम है
    मुझको भी जेल में ढालेंगे वे
    (गीतिका-5)
    इस आशंका के बावजूद कवि की यह अपील-
    कहीं कुछ सड़ रहा है
    पता करो कवियों, वैज्ञानिकों,मानवाधिकार कार्यकर्ताओं
    जाने हवा में यह कैसी गंध बहती जा रही है
    हो सकता है किसी कविता की हत्या हुई हो
    किसी तार्किक विचार को मार दिया गया हो...
    (दुर्गंध)
    कवि के ताजा संग्रह -उतरते इक्कीस के दो महीने- में सानेट,गीतिका,पद और अतुकांत कविता के शिल्प में समकालीन विडंबनाओं से मुठभेड़ करते दिखते हैं-सच माने में अभिव्यकित के खतरे उठाते हुए। इस संग्रह में शामिल कविताओं के बारे में वरिष्ठ आलोचक जीवन सिंह ने उचित ही कहा है-साधरणता के सौंदर्य बोध की कविताएँ। उनके सपाटबयानी की भी तारीफ की है। जब अभिधा में बातें कहने की जरूरत आ पड़े तो इसे टाला भी नहीं जा सकता है। इस तरह बोलती कविताओं के कवि हैं कैलाश मनहर। मधुशाला प्रकाशन, भरतपुर, राजस्थान से आए संग्रह में कुछ प्रूफ की गलतियां हैं तो साज-सज्जा पर भी उचित ध्यान नहीं दिया गया है। 
    बहरहाल, इस संग्रह के लिए मनहर जी को बधाई। यहां इस संग्रह से कुछ कविताएं भी पेश कर रहा हूं ताकि पाठक खुद इससे दो-चार हो सकें।

1.
अंधभक्त गुलाम

संस्कृति के नाम पर
सत्ताधीश फैला रहे हैं सामाजिक वैमनस्य
और तुम चुप बैठे हो
धर्मांधता फैला कर
वे एक दूसरे के खून का प्यासा बना रहे हैं
और तुम डर रहे हो
विकास के नाम पर
बेचे जा रहे हैं वे देश के संसाधन और तुम
अनदेखी कर रहे हो
मंदी की हाहाकारी से
जूझते देश को मन की बात सुना रहे हैं वे
और तुम सुने जाते हो
बेरोज़गारी के कारण
अवसाद में डूबे युवा कर रहे हैं ख़ुदकशी
और तुम अन्जान हो
लगातार बढ़ती जातीं
ऱोजमर्रा ज़रूरतों की क़ीमतों के बावज़ूद
तुम बेफ़िक़्र दिखते हो
जब भी भाषण देते हैं
हर बार झूठ बोलते हैं प्रधान और तुम हो
घुटनों में सिर दिये बैठे
बहुत ज़रूरी लगता है
बोलना किन्तु अँधभक्ति के कारण कुंठित
तुम बेशर्मी दिखाते हो
सही बात तो यह है कि
तुम कोई स्वतंत्र मनुष्य नहीं हो ख़ुदगर्ज़ों
तुम सत्ता के ग़ुलाम हो
2.
डूबना

डूबना होता है
किसी लुहार का
लोहा कूटते समय कि मज़बूत
और धारदार बन सकें
सभी औज़ार
डूबना होता है
किसी प्रेमी का कि
उबरने का मन ही न करे
प्रेमिका की यादों के
ख़्यालों से
डूबना होता है
किसी कवि का कि
पूरी तरह रच सके
अपनी संवेदनायें
कविता में
डूबना होता है
किसी गृहिणी का
भोजन बनाते समय कि
सुपाच्य और स्वादिष्ट बन सके
घर परिवार हेतु
सारा भोजन
डूबना होता है
किसी नाव का कि
तट के पास आते ही
अचानक पलट कर
डूब जाये
डूबना होता है
किसी मुल्क का कि
अँधास्था भड़का कर
कोई तानाशाह नष्ट कर दे
तमाम संस्कृति और
सुभविष्य भी
3.
ऐसी तानाशाही

कितने दिन तक बने रहेंगे तिकुनिया की ज़मीन पर
खून के धब्बे
कितने दिन तक मँडराते रहेंगे वहाँ गिध्द और कौए
कितने दिन तक आवाजाही नहीं करेंगे उस रस्ते से
सामान्य लोग
कितने दिन तक रहेंगे उधर सियार और लोमड़ियाँ
चिन्तित हूँ मैं
कि आख़िर कितने दिन तक जमी रहेगी वहाँ मृत्यु
पुत्र मोह से बेचैन पिता गया था जेल में मिलने तो
क्या पड़ी थी पत्रकारों को कि
कोई असुविधाजनक सवाल पूछें उससे बढ़ाने को
दिल-दिमाग़ की बेचैनी ज़्यादा
कि गाली नहीं देगा तो क्या करेगा कोई मंत्री पिता
कैसा तो पहाड़ टूट पड़ा मंत्री पर कि जेल में गया
उसका प्रिय पुत्र हत्या के जुर्म में
कि हो ही जाता है पद के अहंकार में कभी कभार
आ जाता है गुस्सा विरोधियों पर
कुचल दिया तो कुचल दिया दस-पाँच जनों को हाँ
क्या ज़रूरत थी फैलाने की बात
मंत्री पुत्र को क्या इतना भी हक़ नहीं इस मुल्क में
जब तक रहेंगे सत्ता में ऐसे मंत्री
तब तक बने रहेंगे खून के धब्बे और मँडराते रहेंगे
तिकुनिया की ज़मीन पर गिध्द और कौए तब तक
नहीं करेंगे आम लोग उस रस्ते से आवाजाही और
विचरते रहेंगे सियार-लोमड़ियाँ
तिकुनिया के आसपास तब तक जमी रहेगी मृत्यु
जब तक रहेगी ऐसी तानाशाही
4.
कविता के बारे में

उबाऊ नहीं होनी चाहियें किन्तु
ऊब की अभिव्यक्ति ज़रूर होनी चाहिये कविताओं में
नीरस होते जाते जीवन की जो
ज़ुल्म सहते सहते होता जा रहा है लगभग विचारशून्य
अवरुद्ध-सा हो गया है पशुवत
सटीक बयानी ज़रूरी है किन्तु
सपाट बयानी नहीं होनी चाहिये कविताओं में कि जैसे
सच्चाई की अभिव्यक्ति मार्मिक अभिव्यंजना में हो पर
किसी प्रकार का पूर्वाग्रह न हो
पुनरुक्ति दोष से बचना चाहिये
कवियों को नहीं लिखनी चाहिये एक ही बात बार बार
एक ही रूप में कभी नहीं रखना चाहिये अपना विचार
बना तो रहना चाहिये प्रतिबध्द
सिर्फ़ विरोध में ही नहीं होनी चाहिये कविता कि सदैव
अभाव-अभियोग ही देखे जायें
कविताओं में लिखी जानी चाहियें जीवंत परम्परायें भी
सत्ता के ही विरूद्ध नहीं लिखी जानी चाहियें कवितायें बल्कि विपक्ष को भी यदा कदा
चुनौती देता रहना चाहिये कि बना रहे सर्वथा नियंत्रण
न जाने कितने कितने प्रतिमान
बताते रहे वे मुझे कविता लिखने के बारे में और मैं कि
सुने जा रहा था उनका प्रवचन
लगातार सोचते हुये कि इतना यदि किया जाये सायास
तो कैसे लिखी जायेगी कविता
5.
दुर्गंध

मेरी नाक गंधा रही है
यह सारा वातावरण गंधाता है
शायद यह समय ही गंधाता है
असहनीय है यह गंध
कहीं कुछ सड़ रहा है
पता करो कवियों वैज्ञानिकों मानवाधिकार कार्यकर्ताओं
जाने हवा में यह कैसी गंध बहती जा रही है
हो सकता है किसी कविता की हत्या हुई हो
किसी तार्किक विचार को मार दिया गया हो
हो सकता है किसी क्रान्तिकारी की हत्या कर दी गई हो
सड़ती हुई गंध है यह
कभी तो कोई न्यायाधीश मर जाता है होटल के कमरे में
आयातित हैलीकाप्टर में मारा जाता है सेना का जनरल
राष्ट्र की सुरक्षा के लिये मारे जा रहे हैं राष्ट्र जन
धर्म की रक्षा के नाम पर मारे जा रहे हैं विधर्मी
पुलिस थाने में टोंटी से लटक कर मर जाता है कोई युवा
तंत्र की सलामती के लिये लोक की हत्या की जा रही है
इस समय वातावरण में यह लाशें सड़ने की गंध है
यदि इसे दुर्गंध कहें तो
देशद्रोही होने का आरोप भी लगाया जा सकता है
अँधास्था का ध्रुवीकरण है
और धर्म पर ख़तरा बता कर मारी जा रही है
विवश विलापित मानवता
साज़िशें बहुत विकट हैं
किन्तु आतताई सत्ता को चुनौती देने के लिये ज़रूरी है
दुर्गंध को दुर्गंध कहना
6.
साजिश

जनता को भड़का रहे हैं
अफ़वाहें फैला रहे हैं तानाशाह के गुर्गे
लगातार सुर्रियाँ छोड़ रहे हैं
आँदोलनरत मज़दूरों के विरुद्ध उकसा रहे हैं
जबकि विदूषक हंसी उड़ा रहे हैं
आँदोलनकारियों की और तानाशाह की बातों पर
विश्वास करना सिखा रहे हैं कि
वही सब कुछ सही है जो कहा जा रहा है
झूठे संचार माध्यमों द्वारा
सत्ता में भी तो ऐसे ही आया है तानाशाह
देश-समाज में फैला कर धर्मांध कट्टरता बहुसंख्यकों में
पैदा करते हुये मिथ्या गर्वबोध का उन्माद
ध्वस्त करते हुये पारस्परिक आत्मीयता का संवाद-सेतु
छल-कपटपूर्वक हड़पी है उसने सत्ता भी
साम्राज्यवादी ताक़तों का
दलाल बना हुआ तानाशाह तलुअे चाटता है
पूँजीपति व्यापारियों और विदेशी राज्याध्यक्षों के
और अपनी सत्ता की सलामती के लिये
बना कर तरह तरह के काले क़ानून
दफ़्न करता है सच्चाई को
जब जब भी आँदोलित होता है जनमानस
जत्थों में निकलने लगते हैं
तानाशाह के अत्याचारों से त्रस्त नर-नारी
सड़कों पर इकठ्ठे होने लगते हैं मेहनतकशों के हुज़ूम
तो तानाशाह की नींद उचटती है और
रचने लगते हैं तानाशाह के सिपहसालार नई साज़िशें
जैसे कि अभी अपने
आक़ाओं द्वारा सिखाये गये
"फूट डालो और राज करो" के छद्म से
तानाशाह फूट डाल रहा है मेहनतकश
आँदोलनकारियों में
7.
कविता लिखने की बजाय

सरकार की हाँ में हाँ मिलाना ही यदि देशभक्ति है
तो मैं देशभक्त नहीं हूँ या कि
सरकार के दुष्कृत्यों की आलोचना करना
या सवाल करना यदि देशद्रोह है तो मैं देशद्रोही हूँ
सरकारी मंत्रियों के ऊलजलूल बयानों का विरोध करना
यदि अशिष्टता है तो मैं अशिष्ट हूँ
और न्याय की हत्या के विरोध में
आवाज़ उठाना भी यदि बग़ावत है तो मैं वाक़ई बाग़ी हूँ
सुनो ओ आम और खास लोगों
कि धर्मांध कट्टरता से
हिंसक बन कर
विधर्मियों की हत्या करना ही यदि धर्म है
तो मैं पूर्णत: अधर्मी हूँ
यदि भूखे लोगों के लिये
अनाज की ज़रूरत बताना कोई षड़्यन्त्र है
तो मैं षड़यन्त्रकारी हूँ कि
यदि वास्तव में अपने
जंगल और ज़मीन को बचाना नक्सलवाद है
तो मैं भी नक्सलवादी हूँ
यदि शासन के छल-छद्मों के प्रति लोगों को सचेत
करना अर्बन नक्सली होना है
तो मैं स्वयं के अर्बन नक्सल होने पर गर्व करता हूँ
चाहो तो गिरफ़्तार कर लो मुझे
कि मैं अपने
फ़र्ज़ से हटने वाला क़तई नहीं हूँ
इस ख़तरनाक समय में मुझे
कविता लिखने की बज़ाय संघर्ष ज़रूरी लगता है
8.
भेड़िया
बहुत उदार दिख रहा है
भेड़िया माफ़ी भी मांग रहा है अपने द्वारा
मारी गईं भेड़ों के बारे में
बहुत शरीफ़ दिख रहा है भेड़िया कि
रेवड़ में घात लगा कर हमला करने को बता रहा है
भेड़ों के प्रति अपने प्यार का प्रमाण
बहुत निरीह दिख रहा है भेड़िया
जबकि नष्ट नहीं हुई है उसकी भेड़ों को चबाने की
लपलपाती हुई हिंस्र अभिलाषा
स्वांग रच रहा है भेड़िया
चहेता बनने के लिये भेड़-बकरियों का
राम नाम जप रहा है वह
तपस्वी बता रहा है ख़ुद को भेड़िया
खा नहीं सका भेड़ों को तो
अपनी तपस्या की कमी बता रहा है
संभल कर रहना रे लोगों
भेड़-बकरियाँ नहीं बल्कि मनुष्य हो तुम जबकि
वह वास्तव में भेड़िया है
9.
नमन करता हूँ उस गृहिणी को जो
आग जला कर सेंकती है
दोनों वक़्त मेरे लिये गर्मागर्म रोटी
नमन करता हूँ अनाज के उन दानों को
जिन्हें किसान ने उपजाया
जिनके पिसने से बनता है आटा
और जिस आटे से बनाई जाती है रोटी
नमन करता हूँ रसोई गैस को और तवे को
नमन करता हूँ उन वनस्पतियों को
जिनके सूखे ईंधन से जलती है
चूल्हे में आग और तवे पर सिंकती है रोटी
नमन करता हूँ मेघों को और नदियों को
जल से भरे घड़े को नमन करता हूँ
नमन करता हूँ समुद्र को और नमक को
सुबह उठते ही
मैं किसी ईश्वर या देवी-देवता को
नमन नहीं करता बल्कि
आग जल अन्न नमक और लोहे को
नमन करता हूँ
नमन करता हूँ उन आदिम पूर्वजों को
जिन्होंने ढूँढ़े आग जल अन्न नमक और लोहा
साथ ही नमन करता हूँ गृहिणी को भी
10.
साधो!अपना देश महान |
लगभग सब नेताओं की है गुण्डों-सी पहचान |
करते वे शिकार लोगों का ऊँची बना मचान |
जनता का मुँह अरु सत्ता के बंद पड़े हैं कान |
जिसकी जितनी पहुँच है ऊँची उसका उतना मान |
लोकतन्त्र तो लुप्त पड़ा है ख़तरे में संविधान |
पुरस्कार लिप्सित कवि करते भ्रष्टों का गुणगान |
झूठा योगी गुण्डा शाह अरु जुमलेबाज़ प्रधान |
निपट अधर्मी चला रहे हैं मिथ्या धर्म दूकान |
सबक सिखायेंगे सत्ता को मिल मज़दूर-किसान |