मंगलवार, 11 सितंबर 2012

गेहूं के दाने

गेहूं के दाने

कितने कतरे खून के सूखे
कितना बहा पसीना
कितनों के घर कर्ज में डूबे
कितनों को परिजन पड़े गंवाने

वे क्या जाने
वे क्या जाने

...

कुछ बेदर्दी ले गए औने-पौने में
भरने अपने खजाने
कुछ ले गए गोदामों उन्हें सड़ाने

मेत्री-अफसर और क्या करते
देते रहे सफाई
बनाते रहे बहाने

इस मंजर को देख
तड़पे दिल उनका
जिनको पड़े उगाने
गेहूं के दाने।

शैलेंद्र

सोमवार, 10 सितंबर 2012

नियोजन!

नियोजन!

हम तो लड़खड़ाते रहे
गिरते-पड़ते रहे
संभलने की हर कोशिश के बावजूद
हम भरे-पूरे कुनबे से ऊबे तो कहा-
ठीक है,मान लेते हैं-
बस दो या तीन बच्चे
होते हैं घर में अच्छे
पर हमसे कहा गया
...

कि बात बन नहीं रही
मुसीबतें कम नहीं रहीं
सो थोड़ा और सुधर जाएं हम
बन जाएं थोड़ा और जिम्मेदार
हमने कहा-ठीक है सरकार
यह भी लेते हैं मान
कि अगला अभी नहीं
दो के बाद कभी नहीं
इतने पर भी बात बनी नहीं तो
लिया हमारे आत्मजनों ने मान
कि अगला बच्चा अभी नही
एक के बाद कभी नहीं
फिर भी तो मुसीबत कमी नहीं
महंगाई सुरसा थमी नहीं।
अब कौन सा करें उपचार
कौन सा नियोजन!

शैलेंद्र