शुक्रवार, 11 अक्तूबर 2019

कविता के बाबत

# कविता के बाबत
एक बार कविता पर विचार करते हुए यह ख्याल मन में आया-सच्ची कविता भेड़चाल का हिस्सा नहीं बनती। वह अपने समय, अपनी परंपरा को पढ़ती, उससे सीखती-समझती रहती है । वह अपने आसपास के सच से आंखें भी नहीं मूंदती। भेड़चाल कभी-कभी विश्वसनीय शक्ल पकड़ने में भी कामयाब होती दिखने लगती है, सो सच्ची कविता उस पर निगाह जरूर रखती है। उसे जांचती-परखती है। भेड़चाल का साम्राज्य रचने वालों की मंशा को समझने की कोशिश करती है। ऐसे में उसे अपनी परंपरा के सार्थक बिंदुओं से दो-चार होना पड़ता है। तब उसकी मदद के लिए कालिदास, रहीम ,कबीर, तुलसी. सूर, निराला, नागार्जुन, केदार, त्रिलोचन आदि तक पांव बढ़ा देते हैं।
कविता के बाबत हमारे पूर्वजों ने या अग्रज पीढी ने कुछ कम नहीं कहा है। कविता क्या है, उसकी  आवश्यकता क्या है, क्यों हैं, इस पर बहुत कुछ कहा गया है, आगे भी कहा-लिखा जाता रहेगा। बहरहाल,
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने कहा है-
मनुष्य के लिए कविता इतनी प्रयोजनीय वस्तु है कि संसार की सभ्य असभ्य सभी जातियों में,किसी न किसी रूप में पाई जाती है । चाहे इतिहास न हो, विज्ञान न हो, दर्शन न हो,पर कविता का प्रचार अवश्य रहेगा।बात यह है कि मनुष्य अपने ही व्यापारों का ऐसा सघन और जटिल मण्डल बाँधता चला आ रहा है कि जिसके भीतर बँधा बँधा वह शेष सृष्टि के साथ अपने हृदय का सम्बन्ध भूला सा रहता है।इस परिस्थिति में मनुष्य को अपनी मनुष्यता खोने का डर बराबर रहता है।इसी से अंतःप्रकृति में मनुष्यता को समय समय पर जगाते रहने के लिए कविता मनुष्य जाति के साथ लगी चली आ रही है और चली चलेगी।जानवरों को इसकी ज़रूरत नहीं।
# अभी एक पत्रिका में कवि राणा प्रताप को पढ़ा। वह कहते हैं- कविता के चेहरे की लालिमा उसका जीवन संघर्ष है,उसका संघर्ष--संकुल लोक है और विचार से आकुल-व्याकुल उसका मन-प्राण है ।
...आह से उपजा होगा गान...तो हम कब से सुनते-पढ़ते आ रहे हैं। वियोगी होगा पहला कवि, आह से उपजा होगा गान। निकल कर आंखों से चुपचाप, बही होगी कविता अनजान। इस बात को कहने वाले सुमित्रानंदन पंत का मानना था कि कविता विचारों या तथ्यों से नहीं, बल्कि अनुभूति से होती है। 
#‘‘जहाँ न पहुंचे  रवि  वहां पहुंचे कवि‘‘यह बात उसकी बेजोड़ कल्पनाशक्ति के कारण ही कहा जाता है।
#रूसी कवि मयाकोव्सकी कहते हैं-अगर कविता को उच्च गुण विशिष्टता प्राप्त करनी है, अगर उसे भविष्य में पनपना है तो हमें चाहिए कि उसे हल्का-फुल्का काम समझ कर अन्य सभी प्रकार के मानवीय श्रम से अलग करना छोड़ दें।
कविता के बाबत विचार करते वक्त इन पंक्तियों के लेखक के अंदर से यह आवाज आई-कविता जंग है नाइंसाफी के खिलाफ, असंवेदनशीलता के खिलाफ। जीव-जगत की हमसफर और प्रेम की भाषा-अभिलाषा है कविता...मगर कविता बस इतनी भर थोड़े ही है।
धूमिल की इस कविता को देखें-
#कविता क्या है?
कोई पहनावा है?
कुर्ता-पाजामा है?'
ना, भाई ना !
कविता-
शब्दों की अदालत में
मुजरिम के कटघरे में खड़े बेकसूर आदमी का
हलफ़नामा है।
-- धूमिल
-रीतिकाल, भक्तिकाल, आधुनिक काल, नई कविता, अकविता, लॉंग नाइंटीज, लोकधर्मी कविता, नई सदी की कविता, 16 मई 2006 के बाद की कविता आदि के अपने-अपने रूप हैं, गंध हैं। लिखने की अपनी वजहें हैं। कब,कहां,कैसे और क्यों लिखें पर अंतिम रूप से कुछ भी कहना मुश्किल है। कभी एक यह कविता बन गई थी, पढ़कर देखिए कि कविता कब लिखी जाए-
कविता
कभी भी लिखी जा सकती है
देर रात, अलसुबह या भरी दोपहरी में
जब गोलियां तोड़ती हों सन्नाटा
होता हो कहीं अजान
रसोई चौके से निपट चुकी हों औरतें
जब उकसाई जाती हो भीड़
जन्म लेता हो जब हिंस्र पशु
उगले जाते हों झूठ पर झूठ
कविता कहीं भी लिखी जा सकती है
कैदियों के बीच, सलाखों के पीछे
उन वर्दियों को लानत भेजते हुए
जो रख नहीं पाई थीं अपनी लाज
शराबखाने में, कोठे के पीछे
जहां बार-बार उद्घाटित होता है
मानव सभ्यता का सच
कई-कई झूठ होते हैं बेनकाब।
...................
कविता कैसी हो पर माथापच्ची के साथ ही चिंता इस बात पर भी जरूरी है कि वह लोगों के बीच मौजूद रहे, पाठक से दोस्ती बनाए रखे। वैसे, इस समस्या को कोई तुरता हल भी नहीं। इस बाबत एक पत्रिका में यह छोटी टिप्पणी लिखी थी। पढ़ लीजिए।

तुरता कोई इलाज नहीं
इधर पुस्तक मेले के दौरान एक बड़े प्रकाशन समूह ने कई कवियों के संग्रह लाने की घोषणा की और दूसरे मझोले और छोटे प्रकाशकों ने भी। सोशल मीडिया में। यहां फिलवक्त पैसे जाया नहीं होते। अखबारों में कम ही जा पाते हैं। कभी-कभी कुछ बड़ी पत्रिकाओं में जरूर दिख जाते हैं इनके विज्ञापन। विज्ञापन ही नहीं, तो उससे बाजार के बनने की संभावना भी कम। फिर पाठक कैसे बने। कविता के सामने एक बड़ा संकट तो यह भी है। मंचीय कविता हंसने- हंसाने, उत्तेजित करने की भूमिका से आगे बढ़ नहीं पा रही। कविता के इलाके स्तर में गिरावट की शिकायत पुरानी है। गढ़े गए नए-पुराने प्रतिमानों के बावजूद। यह अपनी जगह ठीक भी है। छंदों से मुक्ति को भी कुछ लोग संकट की वजह मानते रहे हैं। हालांकि निराला से लेकर मुक्तिबोध की कविताएं इसे गलत करार देती हैं। कविता आंदोलनों ने भी एक-दूसरे को दाखिल-खारिज कर कविता को संकट से निकालने की दावा करती रही हैं। इधर हाल में नब्बे के दशक की कविता ने भी यह काम किया। कुछ कवि तो इन आंदोलनों से नामी-गिरामी-ईनामी तो हो जाते रहे हैं। इतिहास या पाठ्यक्रमों में जगह बनाने की जंग में भी कुछ कामयाब हो जाते रहे हैं। पर समाज में वह स्वीकृति नहीं मिल पा रही है, जिसकी अपेक्षा है।
दूसरी तरफ पत्रिकाओं ने, फेसबुक, ब्लाग आदि ने कविता के उत्पादन को बढ़ाने में मददगार की भूमिका अदा की है। युवा लेखन के आयोजनों से भी बहुत सारे कवि सामने आए हैं। यह कविता के लिए अच्छा संकेत है कि बुरा, इस पर एकमत की कोई संभावना नहीं। इसको लेकर गैर कवियों को ही नहीं सुकवियों को भी चिंता है। अच्छी कविताएं लिखने का दावा करने वालों की चिंता है कि बुरी कविता ने उनकी अच्छी कविताओं के सामने संकट पैदा कर दिया है। मंचीय कविता पहले से ही सितम ढाती रही है, अब पत्र-पत्रिकाओं में छपने वाली बुरी कविताओं ने भी यही काम करना शुरू कर दिया है। यानी इसने अच्छे, चर्चित, प्रसिद्ध सुकवियों की कविताओं के सामने पहचान का संकट पैदा कर दिया है। बुरी कविता की भीड़ में उनकी अच्छी-कालजयी कविताएं गुम हो जा रही हैं। पाठक तो उसे पहचान ही नहीं पा रहे हैं। आलोचक भी पाठकों के कान नहीं पकड़ रहे हैं। उन्हें बता नहीं रहे कि भैये ये रहीं अच्छी कविताएं, इन्हें ही पढ़ो। सपाट-सीधी कविता भी कोई कविता है। वह कविता अच्छी भला हो भी कैसे, जिसे समझने में आलोचक या खुद कोई सुकवि मदद न करे। तो कविता का थोड़ा संकट यहां भी है। 60-70 करोड़ या इससे भी ज्यादा पढ़ने या समझने वालों की भाषा में 500-1000 या इससे भी कम प्रतियां छपने वाली पत्रिकाओं के संपादकों को कविता की तमीज ही नहीं सो ज्ञान बढ़ाऊ गद्य की जगह अच्छी कविता को नुकसान पहुंचाने वाली कविताएं छापे चले जा रहे हैं। प्रकाशक भी बुरे कवि, बुरी कविता को छापे ही चले जा रहे हैं। भले ही 200-300 प्रतियों का संस्करण छाप रहे हैं। यानी पाठक तो अपेक्षित संख्या में बन नहीं रहे। टीवी के धारावाहिक, हास्य के फूहड़ कार्यक्रम और गीत-संगीत से दूर भागती फिल्में कविता या साहित्य के प्रति प्रेम पैदा करने में कोई दिलचस्पी ही नहीं ले रहे। दूसरी तरफ विद्यालयों, कालेजों में भी साहित्य के संस्कार को पुष्पित, पल्लवित करने के उपक्रम नहीं के बराबर हैं। यह माहौल कविता ही नहीं, पूरे साहित्यिक-सांस्कृतिक हलके के लिए चिंता बढ़ाने वाला है। फिर भी अपने समय-समाज की विसंगतियों, चुनौतियों को जज्ब करने हुए, सूक्ष्म निरीक्षण, आबजर्वेशन करते हुए साधारण जन तक की समझ में आ सकने वाली भाषा की शरण में कवियों को जाना होगा। हालांकि, ऐसे कवि हमारे बीच हैं भी, कविताएं भी हैं। उस तरफ ध्यान खींचने की पहल भी जरूरी है।
कविता के बाबत जनसत्ता में भी एक छोटा आलेख लिखा था। उसे भी देख लीजिए।
कारवां बढ़ता रहे
इन दिनों कविता को लेकर कुछ साहित्य प्रेमी लोगों को कुछ ज्यादा ही चिंता हो चली है। इसको लेकर गैर कवियों को ही नहीं सुकवियों को भी चिंता होने लगी है। अच्छी कविताएं लिखने का दावा करने वालों की चिंता इस बात लेकर बढ़ी है कि बुरी कविता ने उनकी अच्छी कविताओं के सामने संकट पैदा कर दिया है। वे कहीं कविता की आतंकारी भीड़ में खोती जा रही है। मंचीय कविता तो पहले से ही लिखी-पढ़ी-छपी जाने वाली कविता पर सितम ढाती रही है, इधर पत्र-पत्रिकाओं में बेशुमार छपने वाली बुरी कविताओं ने भी गजब ढाना शुरूकर दिया है। यानी इसने अच्छे, चर्चित, प्रसिद्ध सुकवियों की कविताओं के सामने पहचान का संकट पैदा हो गया है। रद्दी, खराब या बुरी कविताओं की भीड़ में उनकी अच्छी-कालजयी कविताएं गुम हो जा रही हैं। पाठक तो उन्हें पहचान ही नहीं पा रहे हैं। अच्छी-बुरी की शिनाख्त की तमीज तो उनमें है नहीं, उस पर आलोचक बंधु भी पाठकों के कान नहीं पकड़ रहे हैं। उन्हें बता नहीं रहे कि भैये ये रहीं अच्छी कविताएं, इन्हें ही पढ़ो। यानी अमुक-तमुक को ही पढ़ो। संपादकों के भी बीच-बीच में कान-वान पकड़ते। कहां-कहां से ढूंढ लाते हो भई इतने कवि-कविताएं। काहे फैलाते हो भई अपसंस्कृति। यह तो सांस्कृतिक अपराध है-इतना भी नहीं समझते। हम और हमारे सुकवि जिनके नाम सुझाएं-उनको ही छापा करो बारी-बारी। सीधी-सपाट, किसी के भी समझ आने वाली पंक्तियां भला कविता हो भी कैसे सकती हैं। वह कविता भला अच्छी हो भी कैसे, जिसे समझने में आलोचक या खुद कोई सुकवि मदद न करे।
ग्यारह राज्यों की भाषा, जिसे पुरे देश में 60-70 करोड़ या इससे भी ज्यादा पढ़ने या समझने वाले लोग हों, उस भाषा में 500-1000 या इससे भी कम प्रतियां छपने वाली पत्रिकाओं के मूढ़ संपादकों को कविता की तमीज ही नहीं सो बुरी कविता छापे चले जा रहे हैं। ये लघु पत्रिका निकालने वालों का तो कविता के बिना काम ही नहीं चलता। कुछ सिरफिरे प्रकाशक हैं, जो बहुत सारे बुरे कवियों की बुरी कविताओं की किताबें छापे चले जा रहे हैं। भले ही वे 200-300 प्रतियों के संस्करण हो।
ये लोग बाजारू या बड़ी पूंजी से निकलने वाले पत्रओ-पत्रिकाओं से भी सबक नहीं लेते। वहां कितने प्रेम से कविता ही क्यों, पूरे साहित्य को हाशिए पर धकेल दिया गया है। फैशन, प्रसाधन, फिल्मी गपशप, टीवी समाचार, खेल, मंत्र-तंत्र, राशिफल आदि की जगह कविता या साहित्य के लिए जगह क्यों जाया करनी चाहिए। यहां के संपादक कितने समझदार हैं। वे अच्छी-बुरी के चक्कर में फंसते ही नहीं। समझदारी का ही नहीं, समय का भी यही तकाजा है कि इसी तरह के ज्ञान बढ़ाऊ गद्य छापे जाएं, जैसा कि वे छाप रहे हैं। अच्छी कविता के पुजारियों को बाकी चीजों से भला क्या लेना-देना।
बेहतर होता कि बुरी कविताओं से ऊबे लोग यह लिख-पढ़ कर बताते कि ऐसे लिखी जाती है अच्छी कविता। हमारे आलोचक बंधु भी कोई तरकीब बता देते या कुछ अच्छी कविताएं लिख कर बतौर नजीर पेश करते, जिससे बुरी कविता लिखने वाले कुछ सबक लेते।
दरअसल, काव्य-लेखन दृष्टि, अहसास व अभ्यास का भी मामला है। कलात्मक साधना के साधक अपनी साधना में लगे रहें, इस पर भी किसी को आपत्ति नहीं होनी चाहिए। पर बेबसी, बेचैनी और गुस्से से भरे माहौल में धीर-गंभीर कविता कम ही जन्म लेगी। अधीरता के संवेग से निकली कविता से वही अपेक्षित है, जो तर्कसंगत भी लगे। फूल, पत्तियां, बहार, जीवन-मृत्यु के रहस्य की जगह लोक के लौकिक और कभी न खत्म होते दिखने वाले जीवन-संघर्ष-विसंगतियों की चर्चा जब कविता में होगी तो उसमें सपाट बयानी भी होगी और आड़ी-तिरछी अपूर्ण-सी लगने वाली पंक्तियां भी, जो आंखों-दिलों में चुभती हैं, लिखी जाएंगी। दिल्ली बलात्कार कांड पर या ऐसी ही किसी वीभत्स वारदात पर कविता लिखी जाएगी तो उसमें धीरता की चाह कवि और कविता पर ज्यादती होगी। प्रतिक्रिया और प्रतिरोध की भाषा सपाट, आक्रामक और मुखर ही होगी। ऐसा होना समय की मांग होती है। कलात्मक अभिव्यक्ति की मालाजाप अराधना कम।
इस सवाल का जवाब हमें तलाशना ही चाहिए कि कविता में बौद्धिकता की बोझ कितनी होनी चाहिए। क्या इतनी कि वह साहित्य के साधारण पाठक को संप्रेषित ही न हो पाए और पाठक पत्रिका या किताब के पन्नों को पलटते हुए कहीं और कूच कर जाए। दरअसल, वह कविता किसी काम की नहीं जिसे सिर्फ और सिर्फ कवि या फिर उसका चहेता आलोचक या संपादक ही समझ पाए। सहज संप्रेषित कविता को कमजोर या बुरी कविता कह कर नाक-भौं सिकोड़ने का कोई मतलब नहीं।
हिंदी में कविता के ऊफान से ऊबे लोगों को बंगला, मराठी, मलयालम, तमिल, असमिया के कवितामय संसार को भी देखना चाहिए। कविता से यहां प्रेम का रिश्ता है, ऊब का नहीं। यहां सैकड़ों की संख्या में कविता की पत्रिकाएं निकल रही हैं। अपने कोलकाता में पुस्तक मेले में लघु पत्रिकाओं के लिए सम्मान के साथ जगह दी जाती है। बड़ी संख्या में कवि-कवयित्रियां कविताएं सुनते-सुनाती हैं। कविता पुस्तकों का लोकार्पण होता है। कवि-कवयित्रियों की कविताओं की आवृति होती है। यहां लगने वाले लघु पत्रिका मेले में पांच-छह दिन डेढ़-दो सौ कवि अपनी कविताएं सुनाते हैं। दूसरों की सुनते हैं। यहां नए-युवा कवियों को गर्मजोशी से स्वागत किए जाने की परंपरा है। नए धीरे-धीरे मंजेंगे इस उम्मीद के साथ। रद्दी-बुरी-खराब का रोना यहां कम ही है।
कविता के चमन में...