सोमवार, 30 दिसंबर 2019

लोक के इस तंत्र पर, यह प्रहार तो देखिए

बात-बात पर, बेवजह तकरार तो देखिए
झूठ की जय-जय,सच की हार तो देखिए

नफरत की खेती हैं करते,तोड़ते दिलों को
देशप्रेमियों का यह नया अवतार तो देखिए

यह गर्म हवा आई किधर से इस गुलशन में
हर तरफ खौफ-गुस्सा, मार-मार तो देखिए

दरपेश हैं हमारे सामने कई-कई मुसीबतें
मुंह उनसे चुराने का कारोबार तो देखिए

शपथ ली जिस किताब की,छेड़ने लगे उसे
लोक के इस तंत्र पर, यह प्रहार तो देखिए

शुक्रवार, 11 अक्तूबर 2019

कविता के बाबत

# कविता के बाबत
एक बार कविता पर विचार करते हुए यह ख्याल मन में आया-सच्ची कविता भेड़चाल का हिस्सा नहीं बनती। वह अपने समय, अपनी परंपरा को पढ़ती, उससे सीखती-समझती रहती है । वह अपने आसपास के सच से आंखें भी नहीं मूंदती। भेड़चाल कभी-कभी विश्वसनीय शक्ल पकड़ने में भी कामयाब होती दिखने लगती है, सो सच्ची कविता उस पर निगाह जरूर रखती है। उसे जांचती-परखती है। भेड़चाल का साम्राज्य रचने वालों की मंशा को समझने की कोशिश करती है। ऐसे में उसे अपनी परंपरा के सार्थक बिंदुओं से दो-चार होना पड़ता है। तब उसकी मदद के लिए कालिदास, रहीम ,कबीर, तुलसी. सूर, निराला, नागार्जुन, केदार, त्रिलोचन आदि तक पांव बढ़ा देते हैं।
कविता के बाबत हमारे पूर्वजों ने या अग्रज पीढी ने कुछ कम नहीं कहा है। कविता क्या है, उसकी  आवश्यकता क्या है, क्यों हैं, इस पर बहुत कुछ कहा गया है, आगे भी कहा-लिखा जाता रहेगा। बहरहाल,
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने कहा है-
मनुष्य के लिए कविता इतनी प्रयोजनीय वस्तु है कि संसार की सभ्य असभ्य सभी जातियों में,किसी न किसी रूप में पाई जाती है । चाहे इतिहास न हो, विज्ञान न हो, दर्शन न हो,पर कविता का प्रचार अवश्य रहेगा।बात यह है कि मनुष्य अपने ही व्यापारों का ऐसा सघन और जटिल मण्डल बाँधता चला आ रहा है कि जिसके भीतर बँधा बँधा वह शेष सृष्टि के साथ अपने हृदय का सम्बन्ध भूला सा रहता है।इस परिस्थिति में मनुष्य को अपनी मनुष्यता खोने का डर बराबर रहता है।इसी से अंतःप्रकृति में मनुष्यता को समय समय पर जगाते रहने के लिए कविता मनुष्य जाति के साथ लगी चली आ रही है और चली चलेगी।जानवरों को इसकी ज़रूरत नहीं।
# अभी एक पत्रिका में कवि राणा प्रताप को पढ़ा। वह कहते हैं- कविता के चेहरे की लालिमा उसका जीवन संघर्ष है,उसका संघर्ष--संकुल लोक है और विचार से आकुल-व्याकुल उसका मन-प्राण है ।
...आह से उपजा होगा गान...तो हम कब से सुनते-पढ़ते आ रहे हैं। वियोगी होगा पहला कवि, आह से उपजा होगा गान। निकल कर आंखों से चुपचाप, बही होगी कविता अनजान। इस बात को कहने वाले सुमित्रानंदन पंत का मानना था कि कविता विचारों या तथ्यों से नहीं, बल्कि अनुभूति से होती है। 
#‘‘जहाँ न पहुंचे  रवि  वहां पहुंचे कवि‘‘यह बात उसकी बेजोड़ कल्पनाशक्ति के कारण ही कहा जाता है।
#रूसी कवि मयाकोव्सकी कहते हैं-अगर कविता को उच्च गुण विशिष्टता प्राप्त करनी है, अगर उसे भविष्य में पनपना है तो हमें चाहिए कि उसे हल्का-फुल्का काम समझ कर अन्य सभी प्रकार के मानवीय श्रम से अलग करना छोड़ दें।
कविता के बाबत विचार करते वक्त इन पंक्तियों के लेखक के अंदर से यह आवाज आई-कविता जंग है नाइंसाफी के खिलाफ, असंवेदनशीलता के खिलाफ। जीव-जगत की हमसफर और प्रेम की भाषा-अभिलाषा है कविता...मगर कविता बस इतनी भर थोड़े ही है।
धूमिल की इस कविता को देखें-
#कविता क्या है?
कोई पहनावा है?
कुर्ता-पाजामा है?'
ना, भाई ना !
कविता-
शब्दों की अदालत में
मुजरिम के कटघरे में खड़े बेकसूर आदमी का
हलफ़नामा है।
-- धूमिल
-रीतिकाल, भक्तिकाल, आधुनिक काल, नई कविता, अकविता, लॉंग नाइंटीज, लोकधर्मी कविता, नई सदी की कविता, 16 मई 2006 के बाद की कविता आदि के अपने-अपने रूप हैं, गंध हैं। लिखने की अपनी वजहें हैं। कब,कहां,कैसे और क्यों लिखें पर अंतिम रूप से कुछ भी कहना मुश्किल है। कभी एक यह कविता बन गई थी, पढ़कर देखिए कि कविता कब लिखी जाए-
कविता
कभी भी लिखी जा सकती है
देर रात, अलसुबह या भरी दोपहरी में
जब गोलियां तोड़ती हों सन्नाटा
होता हो कहीं अजान
रसोई चौके से निपट चुकी हों औरतें
जब उकसाई जाती हो भीड़
जन्म लेता हो जब हिंस्र पशु
उगले जाते हों झूठ पर झूठ
कविता कहीं भी लिखी जा सकती है
कैदियों के बीच, सलाखों के पीछे
उन वर्दियों को लानत भेजते हुए
जो रख नहीं पाई थीं अपनी लाज
शराबखाने में, कोठे के पीछे
जहां बार-बार उद्घाटित होता है
मानव सभ्यता का सच
कई-कई झूठ होते हैं बेनकाब।
...................
कविता कैसी हो पर माथापच्ची के साथ ही चिंता इस बात पर भी जरूरी है कि वह लोगों के बीच मौजूद रहे, पाठक से दोस्ती बनाए रखे। वैसे, इस समस्या को कोई तुरता हल भी नहीं। इस बाबत एक पत्रिका में यह छोटी टिप्पणी लिखी थी। पढ़ लीजिए।

तुरता कोई इलाज नहीं
इधर पुस्तक मेले के दौरान एक बड़े प्रकाशन समूह ने कई कवियों के संग्रह लाने की घोषणा की और दूसरे मझोले और छोटे प्रकाशकों ने भी। सोशल मीडिया में। यहां फिलवक्त पैसे जाया नहीं होते। अखबारों में कम ही जा पाते हैं। कभी-कभी कुछ बड़ी पत्रिकाओं में जरूर दिख जाते हैं इनके विज्ञापन। विज्ञापन ही नहीं, तो उससे बाजार के बनने की संभावना भी कम। फिर पाठक कैसे बने। कविता के सामने एक बड़ा संकट तो यह भी है। मंचीय कविता हंसने- हंसाने, उत्तेजित करने की भूमिका से आगे बढ़ नहीं पा रही। कविता के इलाके स्तर में गिरावट की शिकायत पुरानी है। गढ़े गए नए-पुराने प्रतिमानों के बावजूद। यह अपनी जगह ठीक भी है। छंदों से मुक्ति को भी कुछ लोग संकट की वजह मानते रहे हैं। हालांकि निराला से लेकर मुक्तिबोध की कविताएं इसे गलत करार देती हैं। कविता आंदोलनों ने भी एक-दूसरे को दाखिल-खारिज कर कविता को संकट से निकालने की दावा करती रही हैं। इधर हाल में नब्बे के दशक की कविता ने भी यह काम किया। कुछ कवि तो इन आंदोलनों से नामी-गिरामी-ईनामी तो हो जाते रहे हैं। इतिहास या पाठ्यक्रमों में जगह बनाने की जंग में भी कुछ कामयाब हो जाते रहे हैं। पर समाज में वह स्वीकृति नहीं मिल पा रही है, जिसकी अपेक्षा है।
दूसरी तरफ पत्रिकाओं ने, फेसबुक, ब्लाग आदि ने कविता के उत्पादन को बढ़ाने में मददगार की भूमिका अदा की है। युवा लेखन के आयोजनों से भी बहुत सारे कवि सामने आए हैं। यह कविता के लिए अच्छा संकेत है कि बुरा, इस पर एकमत की कोई संभावना नहीं। इसको लेकर गैर कवियों को ही नहीं सुकवियों को भी चिंता है। अच्छी कविताएं लिखने का दावा करने वालों की चिंता है कि बुरी कविता ने उनकी अच्छी कविताओं के सामने संकट पैदा कर दिया है। मंचीय कविता पहले से ही सितम ढाती रही है, अब पत्र-पत्रिकाओं में छपने वाली बुरी कविताओं ने भी यही काम करना शुरू कर दिया है। यानी इसने अच्छे, चर्चित, प्रसिद्ध सुकवियों की कविताओं के सामने पहचान का संकट पैदा कर दिया है। बुरी कविता की भीड़ में उनकी अच्छी-कालजयी कविताएं गुम हो जा रही हैं। पाठक तो उसे पहचान ही नहीं पा रहे हैं। आलोचक भी पाठकों के कान नहीं पकड़ रहे हैं। उन्हें बता नहीं रहे कि भैये ये रहीं अच्छी कविताएं, इन्हें ही पढ़ो। सपाट-सीधी कविता भी कोई कविता है। वह कविता अच्छी भला हो भी कैसे, जिसे समझने में आलोचक या खुद कोई सुकवि मदद न करे। तो कविता का थोड़ा संकट यहां भी है। 60-70 करोड़ या इससे भी ज्यादा पढ़ने या समझने वालों की भाषा में 500-1000 या इससे भी कम प्रतियां छपने वाली पत्रिकाओं के संपादकों को कविता की तमीज ही नहीं सो ज्ञान बढ़ाऊ गद्य की जगह अच्छी कविता को नुकसान पहुंचाने वाली कविताएं छापे चले जा रहे हैं। प्रकाशक भी बुरे कवि, बुरी कविता को छापे ही चले जा रहे हैं। भले ही 200-300 प्रतियों का संस्करण छाप रहे हैं। यानी पाठक तो अपेक्षित संख्या में बन नहीं रहे। टीवी के धारावाहिक, हास्य के फूहड़ कार्यक्रम और गीत-संगीत से दूर भागती फिल्में कविता या साहित्य के प्रति प्रेम पैदा करने में कोई दिलचस्पी ही नहीं ले रहे। दूसरी तरफ विद्यालयों, कालेजों में भी साहित्य के संस्कार को पुष्पित, पल्लवित करने के उपक्रम नहीं के बराबर हैं। यह माहौल कविता ही नहीं, पूरे साहित्यिक-सांस्कृतिक हलके के लिए चिंता बढ़ाने वाला है। फिर भी अपने समय-समाज की विसंगतियों, चुनौतियों को जज्ब करने हुए, सूक्ष्म निरीक्षण, आबजर्वेशन करते हुए साधारण जन तक की समझ में आ सकने वाली भाषा की शरण में कवियों को जाना होगा। हालांकि, ऐसे कवि हमारे बीच हैं भी, कविताएं भी हैं। उस तरफ ध्यान खींचने की पहल भी जरूरी है।
कविता के बाबत जनसत्ता में भी एक छोटा आलेख लिखा था। उसे भी देख लीजिए।
कारवां बढ़ता रहे
इन दिनों कविता को लेकर कुछ साहित्य प्रेमी लोगों को कुछ ज्यादा ही चिंता हो चली है। इसको लेकर गैर कवियों को ही नहीं सुकवियों को भी चिंता होने लगी है। अच्छी कविताएं लिखने का दावा करने वालों की चिंता इस बात लेकर बढ़ी है कि बुरी कविता ने उनकी अच्छी कविताओं के सामने संकट पैदा कर दिया है। वे कहीं कविता की आतंकारी भीड़ में खोती जा रही है। मंचीय कविता तो पहले से ही लिखी-पढ़ी-छपी जाने वाली कविता पर सितम ढाती रही है, इधर पत्र-पत्रिकाओं में बेशुमार छपने वाली बुरी कविताओं ने भी गजब ढाना शुरूकर दिया है। यानी इसने अच्छे, चर्चित, प्रसिद्ध सुकवियों की कविताओं के सामने पहचान का संकट पैदा हो गया है। रद्दी, खराब या बुरी कविताओं की भीड़ में उनकी अच्छी-कालजयी कविताएं गुम हो जा रही हैं। पाठक तो उन्हें पहचान ही नहीं पा रहे हैं। अच्छी-बुरी की शिनाख्त की तमीज तो उनमें है नहीं, उस पर आलोचक बंधु भी पाठकों के कान नहीं पकड़ रहे हैं। उन्हें बता नहीं रहे कि भैये ये रहीं अच्छी कविताएं, इन्हें ही पढ़ो। यानी अमुक-तमुक को ही पढ़ो। संपादकों के भी बीच-बीच में कान-वान पकड़ते। कहां-कहां से ढूंढ लाते हो भई इतने कवि-कविताएं। काहे फैलाते हो भई अपसंस्कृति। यह तो सांस्कृतिक अपराध है-इतना भी नहीं समझते। हम और हमारे सुकवि जिनके नाम सुझाएं-उनको ही छापा करो बारी-बारी। सीधी-सपाट, किसी के भी समझ आने वाली पंक्तियां भला कविता हो भी कैसे सकती हैं। वह कविता भला अच्छी हो भी कैसे, जिसे समझने में आलोचक या खुद कोई सुकवि मदद न करे।
ग्यारह राज्यों की भाषा, जिसे पुरे देश में 60-70 करोड़ या इससे भी ज्यादा पढ़ने या समझने वाले लोग हों, उस भाषा में 500-1000 या इससे भी कम प्रतियां छपने वाली पत्रिकाओं के मूढ़ संपादकों को कविता की तमीज ही नहीं सो बुरी कविता छापे चले जा रहे हैं। ये लघु पत्रिका निकालने वालों का तो कविता के बिना काम ही नहीं चलता। कुछ सिरफिरे प्रकाशक हैं, जो बहुत सारे बुरे कवियों की बुरी कविताओं की किताबें छापे चले जा रहे हैं। भले ही वे 200-300 प्रतियों के संस्करण हो।
ये लोग बाजारू या बड़ी पूंजी से निकलने वाले पत्रओ-पत्रिकाओं से भी सबक नहीं लेते। वहां कितने प्रेम से कविता ही क्यों, पूरे साहित्य को हाशिए पर धकेल दिया गया है। फैशन, प्रसाधन, फिल्मी गपशप, टीवी समाचार, खेल, मंत्र-तंत्र, राशिफल आदि की जगह कविता या साहित्य के लिए जगह क्यों जाया करनी चाहिए। यहां के संपादक कितने समझदार हैं। वे अच्छी-बुरी के चक्कर में फंसते ही नहीं। समझदारी का ही नहीं, समय का भी यही तकाजा है कि इसी तरह के ज्ञान बढ़ाऊ गद्य छापे जाएं, जैसा कि वे छाप रहे हैं। अच्छी कविता के पुजारियों को बाकी चीजों से भला क्या लेना-देना।
बेहतर होता कि बुरी कविताओं से ऊबे लोग यह लिख-पढ़ कर बताते कि ऐसे लिखी जाती है अच्छी कविता। हमारे आलोचक बंधु भी कोई तरकीब बता देते या कुछ अच्छी कविताएं लिख कर बतौर नजीर पेश करते, जिससे बुरी कविता लिखने वाले कुछ सबक लेते।
दरअसल, काव्य-लेखन दृष्टि, अहसास व अभ्यास का भी मामला है। कलात्मक साधना के साधक अपनी साधना में लगे रहें, इस पर भी किसी को आपत्ति नहीं होनी चाहिए। पर बेबसी, बेचैनी और गुस्से से भरे माहौल में धीर-गंभीर कविता कम ही जन्म लेगी। अधीरता के संवेग से निकली कविता से वही अपेक्षित है, जो तर्कसंगत भी लगे। फूल, पत्तियां, बहार, जीवन-मृत्यु के रहस्य की जगह लोक के लौकिक और कभी न खत्म होते दिखने वाले जीवन-संघर्ष-विसंगतियों की चर्चा जब कविता में होगी तो उसमें सपाट बयानी भी होगी और आड़ी-तिरछी अपूर्ण-सी लगने वाली पंक्तियां भी, जो आंखों-दिलों में चुभती हैं, लिखी जाएंगी। दिल्ली बलात्कार कांड पर या ऐसी ही किसी वीभत्स वारदात पर कविता लिखी जाएगी तो उसमें धीरता की चाह कवि और कविता पर ज्यादती होगी। प्रतिक्रिया और प्रतिरोध की भाषा सपाट, आक्रामक और मुखर ही होगी। ऐसा होना समय की मांग होती है। कलात्मक अभिव्यक्ति की मालाजाप अराधना कम।
इस सवाल का जवाब हमें तलाशना ही चाहिए कि कविता में बौद्धिकता की बोझ कितनी होनी चाहिए। क्या इतनी कि वह साहित्य के साधारण पाठक को संप्रेषित ही न हो पाए और पाठक पत्रिका या किताब के पन्नों को पलटते हुए कहीं और कूच कर जाए। दरअसल, वह कविता किसी काम की नहीं जिसे सिर्फ और सिर्फ कवि या फिर उसका चहेता आलोचक या संपादक ही समझ पाए। सहज संप्रेषित कविता को कमजोर या बुरी कविता कह कर नाक-भौं सिकोड़ने का कोई मतलब नहीं।
हिंदी में कविता के ऊफान से ऊबे लोगों को बंगला, मराठी, मलयालम, तमिल, असमिया के कवितामय संसार को भी देखना चाहिए। कविता से यहां प्रेम का रिश्ता है, ऊब का नहीं। यहां सैकड़ों की संख्या में कविता की पत्रिकाएं निकल रही हैं। अपने कोलकाता में पुस्तक मेले में लघु पत्रिकाओं के लिए सम्मान के साथ जगह दी जाती है। बड़ी संख्या में कवि-कवयित्रियां कविताएं सुनते-सुनाती हैं। कविता पुस्तकों का लोकार्पण होता है। कवि-कवयित्रियों की कविताओं की आवृति होती है। यहां लगने वाले लघु पत्रिका मेले में पांच-छह दिन डेढ़-दो सौ कवि अपनी कविताएं सुनाते हैं। दूसरों की सुनते हैं। यहां नए-युवा कवियों को गर्मजोशी से स्वागत किए जाने की परंपरा है। नए धीरे-धीरे मंजेंगे इस उम्मीद के साथ। रद्दी-बुरी-खराब का रोना यहां कम ही है।
कविता के चमन में...

मंगलवार, 6 अगस्त 2019

पाठकीय !

पाठकीय !

कोई उम्मीद हो जिसमें,खबर वो
बताओ क्या किसी अखबार में है

अब इस शेर का जवाब कोई क्या दे , सवाल में ही दर्ज है । नहीं है , नहीं है , नहीं है...लूट है , चोरी-डकैती है , भ्रष्टाचार है , हत्या है , आत्महत्या है , धोखा है , बलात्कार है और है जुमलों की बाहर । अखबारों में , चैनलों में , सोशल मीडिया में इन्हीं वारदातों की खबरें ।
इसी वजह से अब इस कहे पर भरोसा भी नहीं होता कि -

वो रंजिश में नहीं अब प्यार में है
मेरा  दुश्मन  नये किरदार  में  है

ये दोनों शेर किताब की पहली गजल की है । किताब का नाम है -"तेरा होना तलाशूं" और इस तलाश में सिर खपाने वाले गजलगो हैं विनय मिश्र । अतुकान्त कविता की खेती  के साथ दोहे भी जमकर दूहा है इन्होंने । मगर फिलवक्त इनकी गजलों से मुलाकात ।

ऐसे जीना है कभी सोचा न था
जी रहा था और मैं जिंदा न था
.....
याद  आने  के बहाने  थे कई
भूलने का एक भी रस्ता न था

इसी तरह की विडम्बनाओं से दो-चार की  तमाम जगहें हैं , कोनें हैं विनय की गजलों में, जहां मन दुखी तो कभी बेचैन हो जाता है पाठक का ।
विनय समय सजग कवि हैं और इसलिए वे अभिव्यक्ति के जोखिम उठाने वालों की कतार में शामिल । उनकी हर गजल कुछ कहती , सुनती , बतियाती सी लगती है । लोकोन्मुखी स्वर का सानिध्य का अहसास देती ।

उस हवा के साथ घर की हवा भी बदली
वक्त बदला तो सभी की भूमिका बदली
....
तुम न बतलाओ भले राजी खुशी दिल्ली
मैं तुम्हें  महसूस  करता हूं  अरी  दिल्ली
....
मैं   किसे  चाहूं न  चाहूं    बात  छोटी है
पर ये भी तय कर रही है अब नई दिल्ली
....
इस   तरह भारी   हुई हैं   आजकल रातें
लोग दहशत में हैं जीवन किस तरह काटें

ये शेर इतने सरल और साफ हैं , जो बाजार की, सत्ता की  हमारी जिंदगी में जारी बेरोक-टोक घुसपैठ की ओर इशारा कर देते हैं ।
इस किताब के ब्लर्ब में आलोचक पंकज गौतम के इस कथन से सहमत होने की पूरी गुंजाईश बनती है कि -विनय की गजलों में समकालीन इतिहास अपने समस्त अन्तर्विरोधों के साथ विन्यस्त है । यह ऐतिहासिक गतिशीलता और आधुनिकता की समझ के अभाव में सम्भव नहीं है, चाहे वह अचेत रूप में हो अथवा सचेत रूप में ।....
इस कथन के गवाही देते कुछ शेर, जो ध्यान खींचते हैं -

हाथ में  अपने  लिये परचम  पलाशों का
हर तरफ दहका हुआ मौसम पलाशों का

चाहतों का एक जंगल है या ख्वाबों का
कारवां  लेकर चले   हैं हम  पलाशों का
...
पहले सूली पे मैं चढ़ाऊं भी
फिर मसीहा तुझे बनाऊं भी
....
मिट न जाये जिंदगी का स्वर चलो बातें करें
बेजुबां कर दे न हमको डर चलो बातें करें
....
और जिस शेर से किताब का नाम चुना गया है , एक नजर उस पर भी -
जो डूबा है वही तारा तलाशूं
मैं अपने में तेरा होना तलाशूं

कुल मिलाकर इस किताब के बाबत कहना यह है कि पठनीय है । किसी कविता , गजल की किताब में कुछ कवितायें , काव्य पंक्तियाँ या कोई शेर भी मन में अनुगुंजित होने लगे तो उससे गुजरना सुखकर होता है । इस किताब के साथ ऐसा ही है ।
इसमें ऐसी ही 105 गजलें संग्रहित है । इसे छापा है -शिल्पायन बुक्स ने । इस किताब के लिये समकालीन गजल के परिचित नाम विनय मिश्र को बधाई !

रविवार, 4 अगस्त 2019

कि जैसे हो कोई मंजी कलम

कि जैसे हो कोई मंजी कलम
लेखक की कहानियों की पहली किताब है। कुल जमा छह कहानियां हैं इसमें। पेशे से पत्रकार राम जन्म पाठक की लिखी हैं ये कहानियां। कभी हिंदी पत्रकारिता में भारी उथल-पथल मचाने वाले अखबार के पत्रकार हैं। दिल्ली में ही नौकरी बजाते हैं। जनसत्ता रविवारी से जुड़े रहे। मगर यह किताब आई है इलाहाबाद से। जाहिर है, वहां के किसी प्रकाशक को तैयार नहीं पाये। हालांकि इन दिनों हिंदी साहित्य का वही मक्का-मदीना है। बहरहाल, इस किताब के ब्लर्ब में वरिष्ठ आलोचक-कवि राजेंद्र कुमार लिखते हैं राम जन्म हड़बड़ी के कहानीकार नहीं हैं, तो सही लिखते हैं। 1965 के पाठक की यह पहली किताब 2018 में छप कर आई है। जाहिर है, धीरधारी कलम की कतार वालों में शुमार हैं यह भी।
संग्रह की पहली कहानी `बंदूक' है। यह कोई डेढ़ दशक पहले कथादेश के नवलेखन विशेषांक में छप कर चर्चित हुई थी और इस कहानी पर सागर सरहदी ने फीचर फिल्म भी बनाई। बाकी की कहानियां कब और कहां छपी इसका पता नहीं चलता। वैसे, कहानीकार अपनी बात में बताते हैं कि इन कहानियों के लिखने का क्रम रहा है, छपने में कुछ उलट-पलट गया है...। लेकिन सभी कहानियां पढ़ा ले जाने का माद्दा रखती हैं। राम जन्म का अंदाज अपना है, जुदा है। पात्रों में डूब कर उनकी भाषा, उनके तर्क, उनके परिवेश को जीवंतता प्रदान करते जाते हैं।
जिंदगी तो जैसे-तैसे चलती-घिसटती ही रहती है गांव-गंज के आमजनों की। थोड़ी बेहतरी की तमन्ना किसे नहीं रहती, इस कोशिश में कुछेक सफल रहते हैं तो बहुत सारे असफल। कुछ की जिंदगियां तो उलझ कर तबाह हो जाती हैं। जैसे कि गजाधर की। अपनी मेहरारू जसोदा की उलाहना-झिड़की से प्रेरित हो जब नौकरी की तलाश में जुटते हैं तो चीनी मिल में सुरक्षा कर्मी के रूप में बहाली की संभावना बनती दिखती है, लेकिन शर्त की उसके पास बंदूक होनी चाहिए। बंदूक खरीदने से ज्यादा टेढ़ी खीर है, उसका लैसन बनवाना। इसी कोशिश में दुर्गति-मुसीबतों का आमंत्रण दे बैठते हैं गजाधर-जसोदा। सरकारी महकमें के ठगी तंत्र से परेशान होकर गजाधर एक छुटभैयै नेता विक्रमा सिंह के जाल में फंस जाता है। पैसे के लिए जसोदा को अपने छोटे भाई के पास गिरवी तक रख देता है। गोंजर से दस हजार का कर्ज लेता है, उसकी शर्त के मुताबिक कि वह जब तक कर्ज न चुका दे तब तक जसोदा उसकी। पर जसोदा को यह सब कहां पता। वह देवर, जिससे उससे शादी होने वाली थी, पर विकलांग होने के कारण लड़की पक्ष के एतराज किए जाने पर गांव-घर की राय से बड़े भाई गजाधर से शादी करा दी जाती है। रहस्य के खुलासे के बाद झगड़ा-फसाद, मार-पीट की नौबत। खद्दरधारी दलाल से लुट जाने के बाद शराब के नशे में जब गजाधर गांव लौटता है तो गोंजर से हुए समझौते को मानने के बाबत जसोदा से सवाल-जवाब करता है। उसे अंधेरे में किए गए अनैतिक समझौते को मानने से जब वह इंकार कर देती तो गजाधर जसोदा पर हाथ उठाता है। प्रतिक्रिया में वह भी उसके मर्मस्थल पर लात जमा कर कहीं चल देती है।  यह कहानी एक तरफ गांवों की बदहाल जिंदगियों की दुर्दशा को पेश करती है तो दूसरी तरफ महिला स्वाभिमान की गाथा भी सुनाती है।-तुमने मेरी कीमत लगाई,मुझे इसका दुख नहीं है। हम तो तिरिया जात हैं,हरमेसा बिकती आई हैं। तुमने कौन गुनाह किया। दुख इस बात का है कि खरीदने वाले से पता चला कि मैं बिक चुकी हूं।सात फेरी की कुछ तो लाज रख ली होती। भला ई कौन वेद-बिधान का न्याव है कि जब चाहो तब राखौ और जब चाहो तो किसी और को सौंप दो।... इस कहानी को पढ़ते रेणु की याद आ जाती है। उनकी कहानियों के पात्रों की। मारे गए गुलफाम उर्फ तीसरी कसम, पंचलाईट, रसप्रिया, के पात्रों की।
दूसरी कहानी `थोड़ा हटकर' में शराब से तौबा कर चुके एक शरीफ की दूसरे शराबी के साथ बतकही है। स्त्री-पुरुष संबंधों पर उसकी अपनी राय है, जिसमें स्त्री के रिश्ते निभाने का पक्ष मजबूत है। `...उसे शराब से नहीं, तुम्हारी यह ओढ़ी हुई नफासत से चिढ़ थी। उसने तुम्हें बेनकाब कर दिया।'
तीसरी कहानी है सत्यकथा की तरह लगने वाली `हम किनारे लग भी सकते थे' । इस प्रेमकथा में अपने समय की विसंगतियों के साथ प्रेम के अपने तौर-तरीके और समझ का ब्यौरा है, नैतिकता-अनैतिकता के बीच जिरह है, जो दिलचस्प है। प्रेम को बांचने, समझने, जीने के अपने तौर-तरीके हैं, जहां विचित्रताओं का ताना-बाना है।
चौथी कहानी `निरीक्षण' है-नौकरशाही को बेनकाब करती। राजनीति से डरी-सहमी। मगर खुद में असंवेदनशील, अत्याचारी नौकरशाही। इसकी चिंदी-चिंदी उड़ाती है यह कहानी।
`पनाह' कहानी में बाबरी मस्जिद विध्वंस से पैदा हालात और पत्रकारिता की विसंगतियों से दो-चार कराती है। बहुत खुले दिमाग का पत्रकार भी आशंकाओं से घिर जाता है। सांप्रदायिक ध्रुवीकरण ने समाज की एका और भाईचारे को, आपसी विश्वास को कितनी बुरी तरह से खंडित किया है, यह कहानी इसे बताती चलती है। एक मुस्लिम परिवार में बतौर किरायेदार रह रहा है पत्रकार। वह भी इरशाद के साथ बतौर रूम पार्टनर। तनाव तो पहले से ही था और जब मस्जिद के सारे गुंबद गिरा दिए गए तो माहौल बिगड़ना ही था, ऐसे तमाम आशंकाओं के साथ वह दफ्तर से घर लौटता है। फिर सुरक्षित इलाके में चले जाने के लिए गेट तक पहुंचता है तो सलमा भाभी उसे रोक देती है। इस वारदात से नाराज लोग सड़कों पर उतरते हैं और भीड़ उसके घर की ओर नारे लगाते आती लगती है तो वह उसे कमरे में ले जाकर, तख्त के नीचे पनाह देती है। इस दौरान उसकी दारूण मनःस्थिति का लाजवाब चित्रण है इस कहानी में।
आखिरी कहानी `हां कहूं या ना' भी एक प्रेम कहानी है। नायक पत्रकार, अल्प वेतनभोगी, ऐसे में दहेज के कारण टूट गई शादी से परेशान प्रेमिका के प्रस्ताव पर तैश खाता हुआ। कहानी में एक तीसरा भी है। लेखक है और नायक की जुबान में, उससे सफल। वह नायिका को झांसा देता है, मगर स्क्रिप्ट लिखने का काम पाकर मुंबई चला जाता है। प्रेमिका उसके पास आती है फिर तो रिश्ते को हरी झंड़ी को लेकर द्वंद सामने है।
प्रेम, स्त्री स्वाभिमान , निकम्मी, भ्रष्ट, रीढ़हीन नौकरशाही और खुराफाती सांप्रदायिकता को कटघरे में खड़ी करने वाली इन कहानियों की सबसे बड़ी खासियत है, पठनीयता । लेखक की माने तो ये लिखी नहीं गई, लिखवाई गई हैं। इन्हें पढ़ते हुए कुछ ऐसा ही लगता है।
पुस्तकः बंदूक और अन्य कहानियां
मूल्यः दो सौ रुपए
प्रकाशकः साहित्य भंडार, इलाहाबाद

शनिवार, 15 जून 2019

संतोष कुमार चतुर्वेदी की कविताएं


युवा कवि संतोष कुमार चतुर्वेदी की कविताएं पत्रिकाओं में पढ़ता रहा हूं। गांव से जुड़े हुए, यानी खेत-खलिहान, बाग-बगीचा, पेड़, पाखी और पियराती जिंदगियों से। यहीं से ढूंढ निकाले है मोछू नेटुआ को और यह समझ भी कि दक्षिण का भी अपना पूरब होता है। दरअसल,हर दिशा के समांतर दिशा होती है, जो रूढ़ मान्यताओं को खंडित करती जाती है। जिंदगियां जहां भी पनाह लेती हैं, वह जगह मानीखेज ही हुआ करती हैं। पात्रों के सुख-दुख के हिस्से का बंटवारा व्यवस्था ही करती चलती है। जागरूक कलमकार इसे समझता, महसूस करता है और विचलित भी होता है यानी कि बेचैन। संतोष के इस संग्रह का प्लर्ब वरिष्ठ कवि विजेंद्र जी ने लिखा है, जिसमें इस कवि की रचनात्मक खूबियों पर चर्चा के साथ ही और बेहतर की उम्मीद जताई है। दक्षिण का भी अपना पूरब होता है की तीस कविताओं में कुछ लंबी, कुछ मझौली और कुछ छोटी कविताएं संग्रहित है। मां का घर, पानी का रंग, चाबी,मोछू नेटुआ, भभकना,मुकम्मिल स्वर, सुराख, जिंदगी आदि कविताएं इस पाठक को ज्यादा पसंद आई। इन कविताओं के लिए संतोष जी को बधाई। आपके लिए उनकी ये छोटी कविताएं-

निगाहों को आइना
तुम्हारी निगाहों का
फकत
ये आइना न होता
तो कभी
परख ही न पाता मैं
अपना यह चेहरा
.....................
मुकम्मिल स्वर
कौन कहता है
कि महज दीवारों और छतों से
बनते हैं घर
वह तो खिड़कियां दरवाजे हैं
जो देते हैं घर को
सही तौर पर
उसका मुकम्मिल स्वर
.........................
सुराख
अतल गहराइयों में राह बना लेने वाला
समुद्र के सीने को चीर देने वाला
पानी को बेरहमी से हलकोर देने वाला
आंधी तूफान को झेल लेने वाला
भीमकाय जहाज
डरता आया है हमेशा से
एक महीन सी सुराख से
............................
जिंदगी
हर पल जीने का
दोहराव भर नहीं है जिंदगी
पारदर्शी सांसों की
मौलिक कविता है
अनूठी यह

बुधवार, 12 जून 2019

सत्येंद्र की कुछ कविताएं

सत्येंद्र की कुछ कविताएं

पत्रकारिता में रह कर कविता के लिए समय निकालना और उसमें रम पाना बहुत मुश्किल है। पर जिद्दी लोग वक्त निकाल ही लेते हैं संवेदना के सागर में डुबकी लगाने के लिए। सत्येंद्र प्रसाद श्रीवास्तव ऐसे ही लोगों में से एक हैं। इनके अब तक कविता के दो संग्रह-रोटी के हादसे और अंधेरे अपने अपने आए हैं। अच्छी बात यह है कि इनकी कविताओं में जूट मिलों के इर्द-गिर्द के जीवन के सुख-दुख की संवेदनात्मक उपस्थिति मौजूद है। यहां पेश है उनकी कुछ कविताएं।
1.
बाबूजी
बाबूजी
बाबू नहीं, मज़दूर थे
बाबू के शरीर से
नहीं आती फेसुए* की खुशबू
बाबूजी का रोम-रोम
फेसुए की खुशबू से गमकता था
यह खुशबू जितनी फेसुए की पहचान थी
उतनी ही बाबूजी की भी
फेसुए और बाबूजी एक दूसरे को खूब पहचानते थे।
बाबूजी के साथ
मिल से घर आने के लिए
मानो जिद करते थे फेसुए
उनके बदन से चिपक कर सैकड़ों टुकड़े
पहुंच जाते थे घर
वो मेरे ही नहीं
फेसुओं के भी पिता थे
अपनी मशीन पर वो उन्हें भी
ठीक वैसे ही गढ़ते थे
जैसे कि गढ़ रहे थे मुझे
ताकि हम दोनों किसी के काम आ सकें।
बाबूजी
बाबू नहीं, मज़दूर थे
मूड में आने पर
लाल सलाम भी बोलते थे
और इंकलाब ज़िन्दाबाद भी
लेकिन इनका सच भी जानते थे
इसलिए जब अक्सर बिना काम के
घर लौटते तो निडर होकर उद्घोष करते
सब स्साले चोर हैं
वो चोर-सिपाही के सारे तिलिस्म को समझते थे।
बाबूजी
बाबू नहीं, मज़दूर थे
बदली* मज़दूर
काम के लिए अक्सर उनकी साइकिल
इस मिल से उस मिल का
चक्कर लगाती रहती थी
वो जानते थे
जब तक जांगर है
तब तक उनसे चलेगी मशीन
जब तक चलेगी मशीन
तब तक जलेगा घर का चूल्हा
बच्चों के चेहरे पर लहलहाती रहेगी
खुशी की फसल।
बाबूजी ने कभी नहीं देखा
अच्छे दिन का सपना
वो जानते थे
मज़दूरों के कैलेंडर में
कोई भी दिन अच्छा नहीं होता
वो भी तो मज़दूर ही थे
बाबू नहीं थे
बाबूजी।
(फेसुआ--जूट, पाट)
2.नंगई
नंगा होने की हद
कपड़े उतारने तक ही होती है
लेकिन नहीं होती
नंगई की कोई हद
कब का नंगा हो चुका राजा
अब नंगई पर उतारू है।
3.
यह वक्त प्रेम का नहीं
मैं
जिस वक़्त तुम्हारे प्रेम में
आकंठ डूबा हूँ
ठीक उसी वक़्त कुछ लोग
फैला रहे हैं नफ़रत
धर्म के नाम पर
जाति के नाम पर
लेकिन मैं
तुम्हारे प्रेम से इतर
कुछ देख ही नहीं पाता
जबकि यह वक़्त प्रेम का नहीं
नफ़रत से लड़ने का है
प्रेम को बचाने के लिए
बेहद ज़रूरी है यह लड़ाई।
4.
मां का इंतज़ार
मां
जब भी करती है फोन
बेटा काट कर करता है रिंग बैक
फ्री कॉल के ज़माने में भी
जारी है मां-बेटे के बीच
यह परंपरा।

फोन कटने के बाद
मां करती है इंतज़ार
कभी तत्काल वापस आता है फोन
तो कभी-कभी
बेटे की एक टुम आवाज़ सुनने के लिए
घंटों इंतज़ार करती है मां
मां इंतज़ार से नहीं ऊबती।
बचपन में देखा है उसने
हर रोज नहाने के बाद
पेटीकोट में ही मां
बिना उकताए करती थी
एकमात्र साड़ी के सूखने का इंतज़ार
बारिश के दिनों में
मां की तकलीफ देख
पिताजी करते थे
नई साड़ी लाने का वादा
बिना झुंझलाए मां ने
नई साड़ी के लिए भी
किया था लंबा इंतज़ार।
मां ने इंतज़ार किया
पति के फैक्ट्री से लौटने का
बच्चों की स्कूल से वापसी का
मां ने बड़े धीरज से इंतज़ार किया
राशन-पानी का
बच्चों के दूध के डिब्बे का
दमे की दवाई का
मां
इंतज़ार की घड़ियों में
दुख को सुख की कथा सुनाती रही
उसे भरोसा है सुख एक दिन आएगा
वह बिना उकताए करती है सुख का इंतज़ार
मां का इंतज़ार कभी खत्म नहीं होता।
ना कट सकने वाली
इंतज़ार की घड़ियों से ही
बतियाती है मां
दोनों बांटते हैं
एक-दूसरे का दुख
और कटता जाता है
ज़िन्दगी का हर कठिन पल।
5.
गुमशुदा

मैं गुम हूँ
लेकिन कोई मुझे ढूँढ़ता नहीं
अखबार के फड़फड़ाते पन्ने
नहीं लेते मेरा नाम
किसी ने अभी तक नहीं छपवाया
मेरी गुमशुदगी का विज्ञापन
टीवी के पर्दे पर अपना चेहरा
खोजता हूँ लेकिन
सिर्फ राजा दिखता है
बार-बार दिखता है
हर बार मुस्कुराता हुआ
मानो खुश हो मेरे गुम होने पर
इंतजार करता रहता हूँ
लेकिन टीवी पर नहीं आती मेरे गुम होने की कोई खबर
कोई यह मानने को तैयार नहीं कि
मैं गुम हो चुका हूँ।

दरअसल वो ये मानने को भी तैयार नहीं कि
गुम वो भी हो चुके हैं
वो सरकारी पहचान पत्र को अपनी पहचान बता रहे हैं
मैं पूछता हूँ कौन हो तुम
वो खुद पीछे हो जाते हैं
सरकार को आगे कर देते हैं
सच ये है कि
अकेले मैं गुम नहीं हूँ
पूरा का पूरा शहर गुम हो चुका है
पूरा का पूरा देश गुम हो चुका है
इतिहास गुम है
वर्तमान गुम है
और भविष्य का कोई पता नहीं
लेकिन सभी भ्रम में हैं कि
कहीं कुछ गुम नहीं हुआ है
सबके पास अपने-अपने मुखौटे हैं
सबके पास अपने-अपने पहचान पत्र हैं।

जब तक लोग
खुद को भूल
मुखौटे के भरम में जीते रहेंगे
राजा निरंकुश होकर राज करता रहेगा
राजा के लिए जितना जरूरी राजपाट है
उतनी ही जरूरी ऐसी प्रजा भी।

6.
मिट्टी की कब्रगाह
शहर में मिट्टी नहीं है
कंक्रीट और कोलतार के शहर ने
बहुत पहले कर दिया था
मिट्टी का कत्ल।

खेतों की कब्र पर खड़ी
बड़ी-बड़ी अट्टालिकाएं
उनकी याद में बनाई गईं
स्मृति फलक लगती हैं
जहां बन्द कर दिए गए हैं
हर खिड़की-दरवाजे
नई हवा, नए विचार के लिए
इस डर से कि कहीं घर में मिट्टी ना घुस जाए
मिट्टी सिर ना उठा पाए
इसलिए हर रोज होती है डस्टिंग
घर की भी, दिमाग की भी।
शहर में कोई नंगे पांव नहीं चलता
क्योंकि शहर में घास नहीं है
कृत्रिम घास से ही मन बहला लेते हैं
मिट्टी के क़ातिल
बॉलकनी में रखे सजावटी गमले के लिए
खरीद कर लानी पड़ती है मिट्टी
रोज डालते हैं पानी
इसलिए नहीं कि उन्हें प्रकृति से प्रेम है
बल्कि इसलिए कि ज्योतिषी ने कहा है कि
पौधों में रोज पानी डालने से
मजबूत होता है चन्द्रमा।
शहर में पौधे भी नहीं है
पेड़ की जगह खड़े हैं कंक्रीट के खंभे
इसलिए शुद्ध हवा के लिए
अब एयर प्यूरफायर का इस्तेमाल करता है शहर
शहर जानता है कि इससे शुद्ध नहीं होती हवा
लेकिन वो बताता है कि उसके पास हर चीज़ की है मशीन
वह मशीन से हवा साफ करता है
वह मशीन से पानी साफ़ करता है
वह मशीन से कमरे को गर्म करता है
वह मशीन से कमरे को ठंडा करता है
वह मशीन से हर मुश्किल आसान करने का दावा करता है
मशीन-मशीन करते करते
वह खुद
बन गया है मशीन
मिट्टीविहीन इस शहर में
अब मशीनें ही रहती हैं
इंसान तो मिट्टी की तलाश में
यहां से कब का जा चुका है ।
7.
जनतंत्र

पहला
जनता का खून चूसता है
दूसरा विरोध करता है
फिर दूसरा
बन जाता है जोंक
पहला विरोध करता है।

वर्षों से जारी है ये सिलसिला
जनता सूखती जा रही है
नारों का शोर बढ़ता जा रहा है
सुना है
शोषण और शोर के इस तंत्र को
वो जनतंत्र कहते हैं।
8.
राजा
उसे वे पसंद हैं
जो मुंह नहीं खोलते
उसे वे पसंद हैं
जो आंखें बंद रखते हैं
उसे वे पसंद हैं
जो सवाल नहीं करते
उसे वे पसंद हैं
जिनका खून नहीं खोलता
उसे वे पसंद हैं
जो अन्याय का प्रतिकार नहीं करते
उसे मुर्दे पसंद हैं
वह राजा है।
9.
अब हर हत्या हत्या नहीं है

बदल रही है
हत्या की परिभाषा
हत्यारे की भी

हत्या
अब हत्या हो भी सकती है
नहीं भी हो सकती है

हत्यारा
अब हत्यारा भी हो सकता है
या फिर हो सकता है
हिंदू या मुसलमान

बोल सकने वाली जीभें
स्वाद को समर्पित हो चुकी हैं
और वे बड़ी कामयाबी के साथ
बदल रहे हैं
हत्या और हत्या की परिभाषा।

9.ईश्वर और किसान

बिचौलियों से परेशान है ईश्वर
किसान भी
दोनों का हिस्सा
मार लेते हैं बिचौलिए

ईश्वर नहीं करता विरोध
इसीलिए उसके हिस्से फूल
किसान विरोध करता है
उसके हिस्से फंदा।

10.
अब और नहीं अहिल्या

सतयुग में
बलात्कारी इंद्र के खिलाफ
आवाज दबाने के लिए
पत्थर बना दी गई थी अहिल्या

अहिल्या का पत्थर हो जाना
चेतन का जड़ हो जाना था
जड़ मुंह नहीं खोलता
इंसाफ नहीं मांगता
बगावत नहीं करता
अहिल्या को भी नहीं मिला इंसाफ
बेखौफ घूमता रहा देवताओं का राजा

कलियुग में
एक बलत्कृत लड़की ने
कर दिया अहिल्या बनने से इंकार
अपनी चेतना के समस्त वेग के साथ
उसने भींच ली मुट्ठी
पत्थर बनने की जगह
उसने उठा लिए हैं हाथ में पत्थर
डोल रहा है इंद्र का सिंहासन।


मंगलवार, 11 जून 2019

रंजो-गम को बयां करती कविताएं

रंजो-गम को बयां करती कविताएं

उम्र छियासठ साल की और किताब पहली। है न चकित करने वाली बात। आम तौर पर चंचल चित्त माने जाते रहे हैं कवि। पर यह कवि तो इससे एकदम उलट। इतना धैर्य ? इतना लंबा इंतजार? आज का दौर मुक्तिबोध वाला तो रहा नहीं। हालांकि,तब भी उनके साथ के लोगों की किताबें तो आ ही रही थीं। बहरहाल, इस कवि की कविता के बारे में ब्लर्ब लेखक क्या सोचता है, यह तो जान लिया जाए, किताब हाथ आने पर इच्छा पैदा होना स्वाभाविक है, लेकिन पेपरबैक किताब में तो यह होता नहीं। भूमिका तो होनी ही चाहिए। लेकिन वह भी नहीं। पन्ने पलटने पर पता चला कि कवि ने अपनी कविताओं के बारे में खुद भी कुछ नहीं लिखा है। आखिरी कवर पर बस परिचय भर है। तमाम साहित्यिक पत्रिकाओं में, अखबारों में इनकी कविताएं बीती सदी के सातवें दशक से छपती रही हैं। लेकिन कवि शायद संकोचवश किसी से इस बाबत दो शब्द लिखने को कह नहीं पाए होंगे। जाहिर है, पाठक को खुद ही अपनी राय कायम करनी होगी इन कविताओं और कवि के बारे में। `वह औरत नहीं महानद थी' (बोधि प्रकाशन) संग्रह के यह कवि हैं कौशल किशोर। दो खंडों में विभक्त यह संग्रह आधी आबादी को समर्पित है। लेकिन है तो इसमें पूरी आबादी के रंजो-गम को बयां करने वाली कविताएं। एक मुट्ठी रेत(खंड एक) की पहली कविता ही इसे साबित करती है और चौंकाती भी है।
कैसे कह दूं
मैं कैसे कह दूं
हरे-भरे पेड़ों के तने पर
कहीं नहीं मौजूद गोलियों के घाव
मैं कैसे कह दूं
चांद-तारे आज भी बिखेर रहे हैं रोशनी
आकाश में अंधेरा कहीं नहीं है...
  साठवें दशक के मध्य से ही कविता से दोस्ती बरत रहे कौशल जी साहित्यिक पत्रकारिता के साथ ही सामाजिक-सांस्कृतिक कार्यकर्ता की भूमिका में भी रहे हैं, सो मानवाधिकार, सांस्कृतिक परिदृश्य में हो रहे क्षरण की चिंता से वे आंख नहीं मूंद सकते थे। 1977 में लिखी इस कविता में भी इसकी झलक मिलती है।
कारखाने से लौटने पर, अंधेरे से प्रतिबद्ध ये लोग, इस वक्त के बाद , जागता शहर , लहरें, हमें बोनस दो , गौरैया आदि कविताएं मजदूर, किसान, साधारण लोगों की तकलीफों और उनके अधिकारों को स्वर देने वाली कविताएं हैं।
गौरैया कविता की ये पंक्तियां बतौर बानगी देखिए-
गौरैये की चहल
उसकी उछल-कूद और फुदकना
मालिक मकान की सुविधाओं में खलल है
मालिक मकान पिंजड़ों में बंद
चिड़ियों की तड़प देखने के शौकीन हैं
वे नहीं चाहते
उनके खूबसूरत कमरों में गौरये का जाल बिछे
वे नहीं चाहते
गौरैया उनकी स्वतंत्र जिंदगी में दखल दे
........

    विचित्र हो चली हमारी दुनिया की बानगी को कवि चिड़िया और आदमीःएक में इस तरह पेश करते हैं-
चिड़ियों को मारा गया
इसलिए कि
उनके पंखों के पास था विस्तृत आसमान
नीचे घूमती हुई पृथ्वी
और वे
इन सबको लांघ जाना चाहती थीं
आदमी को मारा गया
इसलिए कि
वे चिड़ियों की तरह उड़ना चाहते थे उन्मुक्त
.....
चिड़ियों के लिए
मौसम ने आंसू बहाए
आदमियों के लिए
आंसू बहाने वाले
गिरफ्तार कर लिए गए।
   हम जिस समय और समाज में पनाह ले रहे है उसकी विसंगति को तानाशाह शीर्षक से कुछ कविताओं के इस अंश के मार्फत देखिए-
 ...
हंसो
इसलिए कि
रो नहीं सकते इस देश में
हंसो
खिलखिला कर
अपनी पूरी शक्ति के साथ
इसलिए कि
तुम्हारे उदास होने से
उदास हो जाती हैं प्रधानमंत्री जी
(1981-83 के बीच में लिखी कविता)
    भूख और चूल्हे की कहानी अभी तक पुरानी नहीं पड़ी, विकास की डुगडुगी पर सवाल उठाती आग और अन्न कविता को पढ़ते हुए नागार्जुन की याद आ जाती है...कई दिनों के बाद...। कौशल किशोर की इन पंक्तियों को देखिए-
चूल्हा जल रहा है
.....................
चूल्हें में आग है
आग पर चढ़ा है पतीला
पतीले में पक रहा है अन्न
औरत पतीले का ढक्कन हटाती है
......
देखती है आग और अन्न का मिलन
......
अन्न का आग से
जब होता है ऐसा मिलन
सृजित होता है
जीवन का अजेय संगीत
भूख जैसा हिंस्र पशु भी
इसमें हो जाता है नख दंतविहीन।
   औरत और घर कविता में भी कुछ इसी तरह का भाव है। चूल्हे को जलाने-चलाने के गुर को सीखने-जानने में माहिर। इस खंड की कविताओं में असम आंदोलन की तकलीफदेह याद को ताजा करने वाली कविता असमःफरवरी 1983, बिहारी मजदूरों के संघर्ष और वेदना को उकेरने वाली कविता पंजाब और बिहारी भाई, तेल की लूट पर एक मुट्ठी रेत जैसी मार्मिक कविताओं के साथ ही कवि बेंजामिन मोलायस को फांसी दिए जाने पर भी एक कविता एक दिन आएगा...है।
   अनंत है यह यात्रा (खंड दो) में आमुख कविता समेत स्त्री विमर्श की कई कविताएं हैं। उसका हिंदुस्तान, मां का रोना, पुस्तक मेले से, उसकी जिंदगी में लोकतंत्र, दुनिया की सबसे सुंदर कविता, मलाला, धरती, स्त्री है वह आदि, जिनमें स्त्री की पीड़ा, हाहाकार, जिजीविषा, संघर्ष के स्वर मुखर हैं। जिंदगी की तपिश के साथ।
वह जुलूस के पीछे थी
उछलती फुदकती
दूर से बिल्कुल मेंढक सी नजर आ रही थी
पर वह मेंढक नहीं स्त्री थी
जुलूस में चलती हुई
नारे लगाती हुई
............
पहाड़ी नदियां उतर रही थीं
चट्टानों से टकराती
उछाल लेती
लहराती मचलती बलखाती
बढ़ती उसी की ओर
अब वह औरत नहीं महानद थी।
 इस कविता ने आठ मार्च 2010 को जन्म लिया था लखनऊ में हुई महिलाओं की हुई रैली में। जाहिर है कि यह कवि रैली, सभाओं, आंदोलनों में भी शिरकत करता रहा है। तभी नारी के इस रूप से भी वाकिफ हो पाता है। औरतों के एक दूसरे रूप से भी परिचित है यह कवि, तभी उसका हिंदुस्तान कविता में ये पंक्तियां लिख पाता है-
एक औरत सड़क किनारे बैठी
पत्थर तोड़ती है...
एक...सड़क पर सरपट दौड़ती है
एक औरत के दोनों हाथ मिट्टी में सने हैं
एक...उसकी दुनियां से बेखबर...
दुनिया की सबसे सुंदर कविता में कवि स्त्री को ही यह मान देता है।
....जब गिरता हूं
वह संभालती है
जब भी बिखरता हूं
वह बंटोरती है
तिनका तिनका जोड़
.....उसका सौंदर्य मेरे लिए
गहन अनुभूति है
लिखी जा सकती है उससे
दुनिया की सबसे सुंदर कविता।
स्त्री है वह की ये पंक्तियां भी कम मोहक नहीं-
......फिक्र नहीं कोई
पास जो है उसके
सब लुट जाए
बस, चित्तभूमि तर हो जाए
धरती पर बहार आए
ऐसी है वह
स्त्री है वह।
   इसी तरह की तमाम कविताएं हैं इस संग्रह में, जिनमें शहर(लखनऊ), समय, समाज , संबंध के टूटने, बिखरने, क्षरण के साथ ही साधारणजनों के संघर्ष और जिजीविषा को उम्मीद की नजर से देखने का नजरिया भी है। कौशल जी के इस संग्रह को स्वागत किया जाना चाहिए।
शैलेंद्र शांत