बलभद्र
शुक्रवार, 25 मार्च 2022
श्रम और संबंधों को तरजीह देती कविताएं
सोमवार, 28 फ़रवरी 2022
पाठकीय!
1.
शनिवार, 2 जनवरी 2021
उड़ान को पंख देती कविताएं !
उड़ान को पंख देती कविताएं !
लखनऊ की सांस्कृतिक कार्यकर्ता व कवयित्री विमल किशोर के कविता संग्रह "
पंख खोलूं उड़ चलूं "से गुजरना सुखकर है । विमल जी का यह पहला संग्रह है।
कुल 43 कविताएं दर्ज है इसमें । स्त्री विमर्श का स्वर मुखर है ,आक्रोश भी
लाजमी है । लेकिन साथ-साथ प्रेम, प्रकृति, रिश्तों के सहज निर्वाह की
कविताएं भी है।
आगे कुछ कहने से पहले विमल जी की कुछ छोटे आकार और गहरे भाव बोध की कुछ कविताओं से गुजर लिया जाए-
1.
चांद से दोस्ती
बिस्तर पर लेटी
नींद आने के झूठे प्रयास में
करवटें बदलती
अचानक तेज शीतल रोशनी से
खुल गईं आंखें
खिड़की के रास्ते चांद झांक रहा था
मुझसे हाथ फैला दोस्ती का
मांग रहा था हाथ
फिर क्या था
फटाफट ले लिए थे मैंने
चांद को तस्वीरों में
और हो गई दोस्ती लो
पूरी प्रगाढ़ता के साथ।
2.
किताब
किताब में लिखी बातें
सब झूठी हो जाएंगी
किसी को जानने के लिए
नहीं पलटे जाएंगे पन्ने
आदमी मिलेगा किताबों में नहीं
मूर्तियों में
उसका कद
उसकी महानता नापी जाएगी
मूर्तियों की ऊंचाई से।
3.
तुम कहां हो
खोजती हूं तुम्हें
मैं तारों के आसपास
क्योंकि तुम दूर हो
बहुत दूर
बिजली कौंध उठती है
पर बादलों के उस पार नहीं
आंखों के अंबर में
घटाएं आतीं
चली जाती हैं
मौसम भी बदलता है
शीत की बूंदें फिसलन बन जाती हैं
और इसलिए
मन पुकार उठता है
तुम कहां हो
कहां हो...?
4.
तुम्हारा न होना
जीवन की डगर पर
मुझे अकेला जान
यादों के ये तस्कर
मेरा पीछा कर रहे हैं
निरंतर
मेरी अपनी परछाई की तरह
बांध न पाया तुम्हें
मेरा प्यार
अब इस भीड़ भरे
एकाकीपन में
गहराते अंधेरे
कहां तक संभालूं
अपने को
कितना अखरता है
तुम्हारा
न होना।
5.
नया सूरज
धरती का कलेजा लाल है
और आंचल भी
लाल है माथे का सिंदूर
टिकली और बिंदिया का रंग भी
हृदय से फूटती चिंगारी का रंग लाल है
और लाल है सख्त चेहरे का रंग भी
लाल है दिये की लौ
और हमारा परचम भी
लाल है जलती हुई मशालों का रंग
हमें साफ-साफ दिखता है इसमें
गोलबंद होते हुए लोग
बढ़ते हुए कदम
ढलती हुई रातें
क्षितिज पर फैलती भोर की लाली
चिड़ियों का चहचहाना
और अपनी सम्पूर्ण लालिमा के साथ
उदित होता हुआ
एक नया सूरज।
इस पाठक की पसंद की,विविध भाव-बोध की इन कविताओं की तरह संग्रह की लगभग सभी कविताएं सहज-सरल
भाषा में,अभिधा में हैं। भाषाई चमत्कार के कोई लक्षण नहीं हैं। कोशिश नहीं। स्त्री
उत्पीड़न,राजनीतिक-प्रशासनिक असंवेदनशीलता, शोषण,जुल्म, सामाजिक
विद्रूपताओं को बयां करने की भाषा ऐसी ही हो सकती है।
बहरहाल, `हवाएं गर्म
हैं'`,...वाह रे हिंदुत्व', `कोसगंज..'.,`अगस्त में बच्चे मरते ही हैं',`तीन तलाक',
`विकास का प्रसाद',`सपने भी डराते हैं',`बलात्कारी सिर्फ...',`गटर में' ,`अनसुनी
गांठें' आदि जैसी कविताएं हमारी सरकार और समाज को भी कटघरे में शामिल करने
वाली कविताएं हैं। ये कविताएं एक तरफ उदास, हताश करती हैं तो दूसरी तरफ
हृदय में गुस्से का संचार। बाजारवाद, सांप्रदायिकता, जातिवाद, क्षेत्रीयता,
लिंगभेद, किसानों, श्रमिकों, बेरोजगारी की बढ़ती समस्याएं और सबसे बढ़कर
वोट बंटोरू असंवेदनशील राजनीति पर हर जागरूक,संवेदनशील कलमकार की तरह इस
कवयित्री की भी नजर है। यह आश्वस्त करने वाली बात है।आमुख कविता `पंख खोलूं
उड़ चलूं' की ये पंक्तियां-मैं अपने सपनों को/पंख देना चाहती हूं/ उड़ना चाहती
हूं/उड़-उड़/वहां पहुंचना चाहती हूं/जो मन की चाहत है/.....मैं घर से चारदीवारी
से/बाहर निकलना चाहती हूं......
हम जानते हैं कि एक स्त्री की यह चाहत अक्सर घर-परिवार की जिम्मेदारियां और समाज की तरह-तरह की बंदिशें की भेंट चढ़ जाती हैं। पर इस चाहत को बल मिले, यह कामना और कोशिश जरूरी है।
कुलमिलाकर कवयित्री का यह संग्रह पठनीय है, विचारणीय है। स्त्री उड़ान की तलबगार है। इसलिए स्वागत योग्य भी। इसे लखनऊ के लोकोदय प्रकाशन ने छापा है। आवरण आकर्षक है और अंदर के पन्नों की छपाई अच्छी है । 112 पेज के पेपर बैक किताब की कीमत जरूर कुछ ज्यादा है । 210 रुपए ।
शुक्रवार, 31 जुलाई 2020
सोमवार, 30 दिसंबर 2019
लोक के इस तंत्र पर, यह प्रहार तो देखिए
झूठ की जय-जय,सच की हार तो देखिए
नफरत की खेती हैं करते,तोड़ते दिलों को
देशप्रेमियों का यह नया अवतार तो देखिए
हर तरफ खौफ-गुस्सा, मार-मार तो देखिए
दरपेश हैं हमारे सामने कई-कई मुसीबतें
मुंह उनसे चुराने का कारोबार तो देखिए
शपथ ली जिस किताब की,छेड़ने लगे उसे
लोक के इस तंत्र पर, यह प्रहार तो देखिए
शुक्रवार, 11 अक्तूबर 2019
कविता के बाबत
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने कहा है-
मनुष्य के लिए कविता इतनी प्रयोजनीय वस्तु है कि संसार की सभ्य असभ्य सभी जातियों में,किसी न किसी रूप में पाई जाती है । चाहे इतिहास न हो, विज्ञान न हो, दर्शन न हो,पर कविता का प्रचार अवश्य रहेगा।बात यह है कि मनुष्य अपने ही व्यापारों का ऐसा सघन और जटिल मण्डल बाँधता चला आ रहा है कि जिसके भीतर बँधा बँधा वह शेष सृष्टि के साथ अपने हृदय का सम्बन्ध भूला सा रहता है।इस परिस्थिति में मनुष्य को अपनी मनुष्यता खोने का डर बराबर रहता है।इसी से अंतःप्रकृति में मनुष्यता को समय समय पर जगाते रहने के लिए कविता मनुष्य जाति के साथ लगी चली आ रही है और चली चलेगी।जानवरों को इसकी ज़रूरत नहीं।
कोई पहनावा है?
कुर्ता-पाजामा है?'
ना, भाई ना !
कविता-
शब्दों की अदालत में
मुजरिम के कटघरे में खड़े बेकसूर आदमी का
हलफ़नामा है।
-- धूमिल
कविता
कभी भी लिखी जा सकती है
देर रात, अलसुबह या भरी दोपहरी में
जब गोलियां तोड़ती हों सन्नाटा
होता हो कहीं अजान
रसोई चौके से निपट चुकी हों औरतें
जब उकसाई जाती हो भीड़
जन्म लेता हो जब हिंस्र पशु
उगले जाते हों झूठ पर झूठ
कविता कहीं भी लिखी जा सकती है
कैदियों के बीच, सलाखों के पीछे
उन वर्दियों को लानत भेजते हुए
जो रख नहीं पाई थीं अपनी लाज
शराबखाने में, कोठे के पीछे
जहां बार-बार उद्घाटित होता है
मानव सभ्यता का सच
कई-कई झूठ होते हैं बेनकाब।
...................
कविता कैसी हो पर माथापच्ची के साथ ही चिंता इस बात पर भी जरूरी है कि वह लोगों के बीच मौजूद रहे, पाठक से दोस्ती बनाए रखे। वैसे, इस समस्या को कोई तुरता हल भी नहीं। इस बाबत एक पत्रिका में यह छोटी टिप्पणी लिखी थी। पढ़ लीजिए।
तुरता कोई इलाज नहीं
इधर पुस्तक मेले के दौरान एक बड़े प्रकाशन समूह ने कई कवियों के संग्रह लाने की घोषणा की और दूसरे मझोले और छोटे प्रकाशकों ने भी। सोशल मीडिया में। यहां फिलवक्त पैसे जाया नहीं होते। अखबारों में कम ही जा पाते हैं। कभी-कभी कुछ बड़ी पत्रिकाओं में जरूर दिख जाते हैं इनके विज्ञापन। विज्ञापन ही नहीं, तो उससे बाजार के बनने की संभावना भी कम। फिर पाठक कैसे बने। कविता के सामने एक बड़ा संकट तो यह भी है। मंचीय कविता हंसने- हंसाने, उत्तेजित करने की भूमिका से आगे बढ़ नहीं पा रही। कविता के इलाके स्तर में गिरावट की शिकायत पुरानी है। गढ़े गए नए-पुराने प्रतिमानों के बावजूद। यह अपनी जगह ठीक भी है। छंदों से मुक्ति को भी कुछ लोग संकट की वजह मानते रहे हैं। हालांकि निराला से लेकर मुक्तिबोध की कविताएं इसे गलत करार देती हैं। कविता आंदोलनों ने भी एक-दूसरे को दाखिल-खारिज कर कविता को संकट से निकालने की दावा करती रही हैं। इधर हाल में नब्बे के दशक की कविता ने भी यह काम किया। कुछ कवि तो इन आंदोलनों से नामी-गिरामी-ईनामी तो हो जाते रहे हैं। इतिहास या पाठ्यक्रमों में जगह बनाने की जंग में भी कुछ कामयाब हो जाते रहे हैं। पर समाज में वह स्वीकृति नहीं मिल पा रही है, जिसकी अपेक्षा है।
दूसरी तरफ पत्रिकाओं ने, फेसबुक, ब्लाग आदि ने कविता के उत्पादन को बढ़ाने में मददगार की भूमिका अदा की है। युवा लेखन के आयोजनों से भी बहुत सारे कवि सामने आए हैं। यह कविता के लिए अच्छा संकेत है कि बुरा, इस पर एकमत की कोई संभावना नहीं। इसको लेकर गैर कवियों को ही नहीं सुकवियों को भी चिंता है। अच्छी कविताएं लिखने का दावा करने वालों की चिंता है कि बुरी कविता ने उनकी अच्छी कविताओं के सामने संकट पैदा कर दिया है। मंचीय कविता पहले से ही सितम ढाती रही है, अब पत्र-पत्रिकाओं में छपने वाली बुरी कविताओं ने भी यही काम करना शुरू कर दिया है। यानी इसने अच्छे, चर्चित, प्रसिद्ध सुकवियों की कविताओं के सामने पहचान का संकट पैदा कर दिया है। बुरी कविता की भीड़ में उनकी अच्छी-कालजयी कविताएं गुम हो जा रही हैं। पाठक तो उसे पहचान ही नहीं पा रहे हैं। आलोचक भी पाठकों के कान नहीं पकड़ रहे हैं। उन्हें बता नहीं रहे कि भैये ये रहीं अच्छी कविताएं, इन्हें ही पढ़ो। सपाट-सीधी कविता भी कोई कविता है। वह कविता अच्छी भला हो भी कैसे, जिसे समझने में आलोचक या खुद कोई सुकवि मदद न करे। तो कविता का थोड़ा संकट यहां भी है। 60-70 करोड़ या इससे भी ज्यादा पढ़ने या समझने वालों की भाषा में 500-1000 या इससे भी कम प्रतियां छपने वाली पत्रिकाओं के संपादकों को कविता की तमीज ही नहीं सो ज्ञान बढ़ाऊ गद्य की जगह अच्छी कविता को नुकसान पहुंचाने वाली कविताएं छापे चले जा रहे हैं। प्रकाशक भी बुरे कवि, बुरी कविता को छापे ही चले जा रहे हैं। भले ही 200-300 प्रतियों का संस्करण छाप रहे हैं। यानी पाठक तो अपेक्षित संख्या में बन नहीं रहे। टीवी के धारावाहिक, हास्य के फूहड़ कार्यक्रम और गीत-संगीत से दूर भागती फिल्में कविता या साहित्य के प्रति प्रेम पैदा करने में कोई दिलचस्पी ही नहीं ले रहे। दूसरी तरफ विद्यालयों, कालेजों में भी साहित्य के संस्कार को पुष्पित, पल्लवित करने के उपक्रम नहीं के बराबर हैं। यह माहौल कविता ही नहीं, पूरे साहित्यिक-सांस्कृतिक हलके के लिए चिंता बढ़ाने वाला है। फिर भी अपने समय-समाज की विसंगतियों, चुनौतियों को जज्ब करने हुए, सूक्ष्म निरीक्षण, आबजर्वेशन करते हुए साधारण जन तक की समझ में आ सकने वाली भाषा की शरण में कवियों को जाना होगा। हालांकि, ऐसे कवि हमारे बीच हैं भी, कविताएं भी हैं। उस तरफ ध्यान खींचने की पहल भी जरूरी है।
कविता के बाबत जनसत्ता में भी एक छोटा आलेख लिखा था। उसे भी देख लीजिए।
इन दिनों कविता को लेकर कुछ साहित्य प्रेमी लोगों को कुछ ज्यादा ही चिंता हो चली है। इसको लेकर गैर कवियों को ही नहीं सुकवियों को भी चिंता होने लगी है। अच्छी कविताएं लिखने का दावा करने वालों की चिंता इस बात लेकर बढ़ी है कि बुरी कविता ने उनकी अच्छी कविताओं के सामने संकट पैदा कर दिया है। वे कहीं कविता की आतंकारी भीड़ में खोती जा रही है। मंचीय कविता तो पहले से ही लिखी-पढ़ी-छपी जाने वाली कविता पर सितम ढाती रही है, इधर पत्र-पत्रिकाओं में बेशुमार छपने वाली बुरी कविताओं ने भी गजब ढाना शुरूकर दिया है। यानी इसने अच्छे, चर्चित, प्रसिद्ध सुकवियों की कविताओं के सामने पहचान का संकट पैदा हो गया है। रद्दी, खराब या बुरी कविताओं की भीड़ में उनकी अच्छी-कालजयी कविताएं गुम हो जा रही हैं। पाठक तो उन्हें पहचान ही नहीं पा रहे हैं। अच्छी-बुरी की शिनाख्त की तमीज तो उनमें है नहीं, उस पर आलोचक बंधु भी पाठकों के कान नहीं पकड़ रहे हैं। उन्हें बता नहीं रहे कि भैये ये रहीं अच्छी कविताएं, इन्हें ही पढ़ो। यानी अमुक-तमुक को ही पढ़ो। संपादकों के भी बीच-बीच में कान-वान पकड़ते। कहां-कहां से ढूंढ लाते हो भई इतने कवि-कविताएं। काहे फैलाते हो भई अपसंस्कृति। यह तो सांस्कृतिक अपराध है-इतना भी नहीं समझते। हम और हमारे सुकवि जिनके नाम सुझाएं-उनको ही छापा करो बारी-बारी। सीधी-सपाट, किसी के भी समझ आने वाली पंक्तियां भला कविता हो भी कैसे सकती हैं। वह कविता भला अच्छी हो भी कैसे, जिसे समझने में आलोचक या खुद कोई सुकवि मदद न करे।
ग्यारह राज्यों की भाषा, जिसे पुरे देश में 60-70 करोड़ या इससे भी ज्यादा पढ़ने या समझने वाले लोग हों, उस भाषा में 500-1000 या इससे भी कम प्रतियां छपने वाली पत्रिकाओं के मूढ़ संपादकों को कविता की तमीज ही नहीं सो बुरी कविता छापे चले जा रहे हैं। ये लघु पत्रिका निकालने वालों का तो कविता के बिना काम ही नहीं चलता। कुछ सिरफिरे प्रकाशक हैं, जो बहुत सारे बुरे कवियों की बुरी कविताओं की किताबें छापे चले जा रहे हैं। भले ही वे 200-300 प्रतियों के संस्करण हो।
ये लोग बाजारू या बड़ी पूंजी से निकलने वाले पत्रओ-पत्रिकाओं से भी सबक नहीं लेते। वहां कितने प्रेम से कविता ही क्यों, पूरे साहित्य को हाशिए पर धकेल दिया गया है। फैशन, प्रसाधन, फिल्मी गपशप, टीवी समाचार, खेल, मंत्र-तंत्र, राशिफल आदि की जगह कविता या साहित्य के लिए जगह क्यों जाया करनी चाहिए। यहां के संपादक कितने समझदार हैं। वे अच्छी-बुरी के चक्कर में फंसते ही नहीं। समझदारी का ही नहीं, समय का भी यही तकाजा है कि इसी तरह के ज्ञान बढ़ाऊ गद्य छापे जाएं, जैसा कि वे छाप रहे हैं। अच्छी कविता के पुजारियों को बाकी चीजों से भला क्या लेना-देना।
बेहतर होता कि बुरी कविताओं से ऊबे लोग यह लिख-पढ़ कर बताते कि ऐसे लिखी जाती है अच्छी कविता। हमारे आलोचक बंधु भी कोई तरकीब बता देते या कुछ अच्छी कविताएं लिख कर बतौर नजीर पेश करते, जिससे बुरी कविता लिखने वाले कुछ सबक लेते।
दरअसल, काव्य-लेखन दृष्टि, अहसास व अभ्यास का भी मामला है। कलात्मक साधना के साधक अपनी साधना में लगे रहें, इस पर भी किसी को आपत्ति नहीं होनी चाहिए। पर बेबसी, बेचैनी और गुस्से से भरे माहौल में धीर-गंभीर कविता कम ही जन्म लेगी। अधीरता के संवेग से निकली कविता से वही अपेक्षित है, जो तर्कसंगत भी लगे। फूल, पत्तियां, बहार, जीवन-मृत्यु के रहस्य की जगह लोक के लौकिक और कभी न खत्म होते दिखने वाले जीवन-संघर्ष-विसंगतियों की चर्चा जब कविता में होगी तो उसमें सपाट बयानी भी होगी और आड़ी-तिरछी अपूर्ण-सी लगने वाली पंक्तियां भी, जो आंखों-दिलों में चुभती हैं, लिखी जाएंगी। दिल्ली बलात्कार कांड पर या ऐसी ही किसी वीभत्स वारदात पर कविता लिखी जाएगी तो उसमें धीरता की चाह कवि और कविता पर ज्यादती होगी। प्रतिक्रिया और प्रतिरोध की भाषा सपाट, आक्रामक और मुखर ही होगी। ऐसा होना समय की मांग होती है। कलात्मक अभिव्यक्ति की मालाजाप अराधना कम।
इस सवाल का जवाब हमें तलाशना ही चाहिए कि कविता में बौद्धिकता की बोझ कितनी होनी चाहिए। क्या इतनी कि वह साहित्य के साधारण पाठक को संप्रेषित ही न हो पाए और पाठक पत्रिका या किताब के पन्नों को पलटते हुए कहीं और कूच कर जाए। दरअसल, वह कविता किसी काम की नहीं जिसे सिर्फ और सिर्फ कवि या फिर उसका चहेता आलोचक या संपादक ही समझ पाए। सहज संप्रेषित कविता को कमजोर या बुरी कविता कह कर नाक-भौं सिकोड़ने का कोई मतलब नहीं।
हिंदी में कविता के ऊफान से ऊबे लोगों को बंगला, मराठी, मलयालम, तमिल, असमिया के कवितामय संसार को भी देखना चाहिए। कविता से यहां प्रेम का रिश्ता है, ऊब का नहीं। यहां सैकड़ों की संख्या में कविता की पत्रिकाएं निकल रही हैं। अपने कोलकाता में पुस्तक मेले में लघु पत्रिकाओं के लिए सम्मान के साथ जगह दी जाती है। बड़ी संख्या में कवि-कवयित्रियां कविताएं सुनते-सुनाती हैं। कविता पुस्तकों का लोकार्पण होता है। कवि-कवयित्रियों की कविताओं की आवृति होती है। यहां लगने वाले लघु पत्रिका मेले में पांच-छह दिन डेढ़-दो सौ कवि अपनी कविताएं सुनाते हैं। दूसरों की सुनते हैं। यहां नए-युवा कवियों को गर्मजोशी से स्वागत किए जाने की परंपरा है। नए धीरे-धीरे मंजेंगे इस उम्मीद के साथ। रद्दी-बुरी-खराब का रोना यहां कम ही है।
मंगलवार, 6 अगस्त 2019
पाठकीय !
कोई उम्मीद हो जिसमें,खबर वो
बताओ क्या किसी अखबार में है
अब इस शेर का जवाब कोई क्या दे , सवाल में ही दर्ज है । नहीं है , नहीं है , नहीं है...लूट है , चोरी-डकैती है , भ्रष्टाचार है , हत्या है , आत्महत्या है , धोखा है , बलात्कार है और है जुमलों की बाहर । अखबारों में , चैनलों में , सोशल मीडिया में इन्हीं वारदातों की खबरें ।
इसी वजह से अब इस कहे पर भरोसा भी नहीं होता कि -
वो रंजिश में नहीं अब प्यार में है
मेरा दुश्मन नये किरदार में है
ये दोनों शेर किताब की पहली गजल की है । किताब का नाम है -"तेरा होना तलाशूं" और इस तलाश में सिर खपाने वाले गजलगो हैं विनय मिश्र । अतुकान्त कविता की खेती के साथ दोहे भी जमकर दूहा है इन्होंने । मगर फिलवक्त इनकी गजलों से मुलाकात ।
ऐसे जीना है कभी सोचा न था
जी रहा था और मैं जिंदा न था
.....
याद आने के बहाने थे कई
भूलने का एक भी रस्ता न था
इसी तरह की विडम्बनाओं से दो-चार की तमाम जगहें हैं , कोनें हैं विनय की गजलों में, जहां मन दुखी तो कभी बेचैन हो जाता है पाठक का ।
विनय समय सजग कवि हैं और इसलिए वे अभिव्यक्ति के जोखिम उठाने वालों की कतार में शामिल । उनकी हर गजल कुछ कहती , सुनती , बतियाती सी लगती है । लोकोन्मुखी स्वर का सानिध्य का अहसास देती ।
उस हवा के साथ घर की हवा भी बदली
वक्त बदला तो सभी की भूमिका बदली
....
तुम न बतलाओ भले राजी खुशी दिल्ली
मैं तुम्हें महसूस करता हूं अरी दिल्ली
....
मैं किसे चाहूं न चाहूं बात छोटी है
पर ये भी तय कर रही है अब नई दिल्ली
....
इस तरह भारी हुई हैं आजकल रातें
लोग दहशत में हैं जीवन किस तरह काटें
ये शेर इतने सरल और साफ हैं , जो बाजार की, सत्ता की हमारी जिंदगी में जारी बेरोक-टोक घुसपैठ की ओर इशारा कर देते हैं ।
इस किताब के ब्लर्ब में आलोचक पंकज गौतम के इस कथन से सहमत होने की पूरी गुंजाईश बनती है कि -विनय की गजलों में समकालीन इतिहास अपने समस्त अन्तर्विरोधों के साथ विन्यस्त है । यह ऐतिहासिक गतिशीलता और आधुनिकता की समझ के अभाव में सम्भव नहीं है, चाहे वह अचेत रूप में हो अथवा सचेत रूप में ।....
इस कथन के गवाही देते कुछ शेर, जो ध्यान खींचते हैं -
हाथ में अपने लिये परचम पलाशों का
हर तरफ दहका हुआ मौसम पलाशों का
चाहतों का एक जंगल है या ख्वाबों का
कारवां लेकर चले हैं हम पलाशों का
...
पहले सूली पे मैं चढ़ाऊं भी
फिर मसीहा तुझे बनाऊं भी
....
मिट न जाये जिंदगी का स्वर चलो बातें करें
बेजुबां कर दे न हमको डर चलो बातें करें
....
और जिस शेर से किताब का नाम चुना गया है , एक नजर उस पर भी -
जो डूबा है वही तारा तलाशूं
मैं अपने में तेरा होना तलाशूं
कुल मिलाकर इस किताब के बाबत कहना यह है कि पठनीय है । किसी कविता , गजल की किताब में कुछ कवितायें , काव्य पंक्तियाँ या कोई शेर भी मन में अनुगुंजित होने लगे तो उससे गुजरना सुखकर होता है । इस किताब के साथ ऐसा ही है ।
इसमें ऐसी ही 105 गजलें संग्रहित है । इसे छापा है -शिल्पायन बुक्स ने । इस किताब के लिये समकालीन गजल के परिचित नाम विनय मिश्र को बधाई !