शैलेंद्र शांत
मुझे पहचानोःएक पाठकीय
स्त्री दहन की क्रूरता व पाखंड से दो-चार कराता उपन्यास
कथा साहित्य के परिचित और चर्चित नाम संजीव सामाजिक चेतना से समृद्ध कथाकार हैं। उनकी हर रचना मानवीय गरिमा को लेकर फिक्रमंद रही है-शोषण,अत्याचार,गैर-बराबरी के खिलाफ लगातार बोलती-बतियाती। किसान, कोयला खदान के मजदूर, उपेक्षत कलाकार, विडंबनाओं की शिकार स्त्री व उसकी पीड़ा आदि उनके कथानक के आधार रहे हैं। चाहें उनकी कहानियां हो या उपन्यास। उनका ताजा उपन्यास भी इसी बात की गवाही देता है।
`मुझे पहचानो' उनका नवीनतम उपन्यास है। यह सती प्रथा की विसंगतियों और व्यथा की ओर बहुत धैर्य और विस्तार से ध्यान खींचता है।
चली आ रही परंपरा के नाम पर जबरन या धोखे से जिंदा जला दी गई स्त्री के महिमामंडन, सती के नाम पर मेले-ठेले, पूजा-अराधना के कर्मकांड सतत जारी है। ' तद्भव' के चलीसवें अंक में छपे उनके उपन्यास में बहुत सजग से इसे चित्रित किया गया है। पन्नों या आकार के लिहाज से यह संजीव का शायद सबसे छोटा उपन्यास है। लेकिन कथ्य बड़ा है और कहने की जरूरत नहीं कि प्रासंगिक भी।
वैसे, यह सच है कि जबरन सती बना देने की वारदातें इधर कम हुई हैं, पर सती प्रथा का महिमामंडन अब भी थमा नहीं। उसकी याद डरावनी है। भारतीय समाज में स्त्री के खिलाफ सदियों तक बरती गई क्रूरता, लज्जाजनक ही नहीं, मानवीय विवेक पर सवाल दर सवाल उठाने वाली है। इसी विडंबना को रेखांकित करता यह उपन्यास, जो पाठक को बेहद बेचैन कर देने वाला है। बेजोड़ कथा शिल्पी ने क्रूर सामंती सोच, परंपरा के निर्वाह के नाम पर शिकार बनाई गई स्त्रियों की व्यथा-कथा को पेश किया है। कुसंस्कारों की बेदी पर स्त्रियाँ को चढ़ाए जाने के इतिहास को खंगालने की चेष्टा की गई है इसमें। राजा राममोहन राय की कोशिशों से ब्रिटिश शासन की ओर से इस कुप्रथा पर रोक के बाद भी धर्म की आड़ में स्त्री दहन की विसंगति जारी रही है । उसका महिमामंडन होता रहा है । मेले लगते रहे हैं । सती के स्थान-मंदिर बनते रहे हैं । धर्म के धूर्त बनिए चढावे से मालोमाल होते रहे हैं ।
`लो आ गए रत्नों के देश में-रत्नापट्टी!'
इस वाक्य से शुरू होता है उपन्यास। गाइड कुंज बिहारी दुबे जो मैनेजर मनोज सिंह का दोस्त है, को यह बताता है। इसके बाद डूब चुकी रियासत के अजीबो-गरीब किस्से का सिलसिला। रानी,पटरानी, भोग-विलास,सामंती अहंकार, कुसंस्कार के सुने-सुनाए जाते रहे किस्से, मिथक आदि से सने-पगे। इसी क्रम में एक निहायत सुंदर, हंसमुख युवती को जिंदा चिता पर बैठा देने की क्रूरता...
``नदी के उस पार पहाड़ी पर भी, जो ढलती हुई गढ़ी दूर से झलक रही है, वह राय साहब का महल और आगे बाईं ओर दो मंजिला कोठी आएगी, लाल साहब की। याद रहे, सामने आते ही जूते उतार लेना,नजरी नीची रहे।...यही दस्तूर है...यह एक तपे तपाए राजे रजवाड़े का इलाका है। रानियों से राजा साहब को जो लड़के पैदा हुए, राय साहब कहलाए और रखैलों से जो हुए,लाल साहब।''
दोस्त दुबे मैनेजरी दिलाने मनोज सिंह को यहां लाता है और मित्र के सवालों के जवाबों में आखिरी सांसें गिन रहे रजवाड़े की कहानी, रहस्य, अतीत बताते हुए सती देवी की कथा तक पहुंचता है। उसे रजवाड़े के लोगों की जरूरतों का ख्याल रखना है, मुकदमें लड़ना है और राजनीतिक महत्वाकांक्षा को पूरे कराने में भी अपनी भूमिका तय करनी है।
शीर्षकहीन 18 अध्याय में कथ्य का विस्तार है। कहीं-कहीं फंतासी के सहारे रोचक, दुखी और अचंभित कर देने वाले वाकयों के विवरण,जिसे पढ़ने की चाह बनी रहती है। जबरन चिता पर बैठा दी गई सावित्री कुवंर प्राकृतिक चमत्कार से थोड़ा झुलसने के बाद भी बच जाती है। ऐन वक्त पर आए आंधी-तूफान उसे नदी के हवाले कर देते हैं। एक मल्लाह की कुटिया में उसे पनाह मिलती है। उसे सती करार देकर उसके नाम पर मेले तक लगने शुरू हो जाते हैं। मेले पहले से भी लगता रहे हैं सतियों के नाम पर। पांचवें साल इसी मेले में इसके समापन पर राजा राममोहन के बड़े भाई जगनमोहन की पत्नी अलोका मंजरी के सती दाह का मंचन होता है-हैल्युसिनेशन। इसी से तोगों को इस बात का पता चलता है कि वह जलकर भष्म होने से बच गई थी। हालांकि पाठक को पहले के एक अध्याय में। कथा के सूत्रधार दुबे और मनोज के मार्फत।
...अलोका मंजरी को ढोल नगाड़े,तुरही के बीच लाया जाना। पति के शव को लेकर समहरण के लिए बैठना,चिता की आग। लोगों का चला जाना। सुबह फिर लौटना, झाड़ियों में छुपती अलोका को लाकर पुनः चिता के हवाले करना।
जलती हुई ज्वाला,लपलपाती लपटें,अलोका मंजरी की जलती लाश-लगा, आसमान से बिजली चमकी और भयंकर गड़गड़ाहट के बीच अलोका मंजरी की चिता से एक सुंदरी प्रकट हुई। उसके दोनों ओर 5-5 वर्ष के दो बच्चे।
`कौन है? कौन है? कैसे आ गई? के रोष भरे निषेधात्मक शोर की अवमानना करती, ढीठ बन आगे बढ़कर उसने माइक को थाम लिया-
आप सारे विद्वान सतियों की पात्रता, अपात्रता पर फिर फिर विचार करते रहेंगे,आज एक जिंदा सती पर विचार कर लीजिए।'
`कौन है जिंदा सती? धर्माचार्य ने टोका।
`मैं मैं सावित्री कुंवर! इसी जगह उसे जलाकर मार डाला गया था,पांच साल पहले, इसी जगह पांच साल बाद फिर से आविर्भूत हो रही हूं।
पहचानिये मुझे, जिसे उसके जन्मदाता पिता ने नहीं पहचाना, जन्मदात्री मां ने नहीं पहचाना,रियासतदारों ने नहीं पहचाना-पहचानिये मुझे। डी.एन.ए.मिलाकर देख लीजिए। एक लंबी जंजीर घेर रही है हम अलोकाओं को।हां मैं अलोका मंजरी हूं, राजा राममोहन राय की भाभी,जिसे उनके पति जगमोहन बैनर्जी की मौत पर मारपीट कर सती बनाया गया, आंधी,पानी, झड़ झंझा की रात सुबह देखा कि मरी नहीं तो गांववालों ने फिर से जलाया।'
`सैकड़ों वर्षों से जलायी जाती रही, धर्म और परंपरा की बेदी पर सैकड़ों वर्षों से। पर इसकी जिद देखिए, यह मरी नहीं, जिंदा है। जलने के दाग- ये,ये,ये,ये।' उसने कपड़े खोलकर दाग दिखाने शुरू किये एक एक कर।
राय साहब ने लठैतों को बुलाया,पर धर्माचार्य ने रोक दिया।
`सिर के कुछ केश जल गए थे, चमड़े जल गए थे- ये रहे। कुछ आग बाहर थी, कुछ अंदर। इस अलोका को स्वर्ग ने नहीं लोका। स्वर्ग से उतर कर आ गई सावित्री कुंवर के रूप में आपके सामने। अपने दो बच्चे और...पति के साथ। मेरी एक संतान पूर्व पति राजा उदय प्रताप के दूसरे पुत्र की है-यह लव, और दूसरी संतान इस पति से है-कुश, दूसरे पति अनमोल से।'
`मैं आपके सामने हूं-पांच सालों से हूं आपके सामने, आपने पहचाना नहीं, क्योंय़ इसलिए कि आप तो मुझे जलाकर पतिलोक भेज दिया था।पर मैं ढीठ लौट आई स्वर्ग से।'
`आप चाहें तो इस आलोका को फिर से मारकर जला दें। मेरे इस दाह में आप सभी स्त्री पुरुष, माता पिता शामिल रहे,सारे पुण्यार्थों, धर्म, परंपराओं, समाज-मैं आपके कठघरे में खड़ी हूं। विचार कीजिए।'
उपन्यास के आखिरी अध्याय के अंतिम आखिर के दो पन्ने कथा को उसके मुकाम तक पहुंचाते हैं। पाठक के मन को उद्वेलित करते हुए। स्त्री की दिशा-दशा पर विमर्श के दरवाजे को खोलते हुए। दस्तावेजी तथ्यों से भरे उपन्यास में बंगाल का विवरण प्रचूर है। यहीं वायसराय विलियम बेंटिक ने राजा राममोहन राय के कहने पर 1829 में कानून बनाया था।
....सूचनार्थ, शास्त्रार्थ, विवाद और संवाद बढ़ते जा रहे थे कि बंगाल से आई एक रपट के सफे दर सफे खुलने लगे। सन् 1823 के बंगाल सरकार के पुलिस प्रतिवेदन के अनुसार उस वर्ष यानी 1823 में बंगाल में कुल 575 सतियों की खबर है, जिसमें ब्राह्मणी 234, क्षत्राणी 35, सेठानी या वैश्य 14 और शुद्रा 292 बतायी जाती हैं।...उपन्यास में बहस-संवाद के जरिए इस कुप्रथा से प्रभावित रहे इलाकों की खोज-खबर ली गई है, परंपरा,संस्कृति के नाम पर पाखंड, क्रूरता आदि को उजागर करते हुए। कुलमिलाकर यह पठनीय और जरूरी उपन्यास है,इसका स्वागत होना चाहिए।
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