शनिवार, 14 जनवरी 2023

कविता

 कविता:तुम्हारा रूप

1.

सफेद कागज पर

तुम्हारा रूप

यूं खिलता है

जैसे

काली बिंदी

माथे पर किसी

मनीषा के

2.

तुम्हारे चेहरे पर

रंग रोपन

कम हो तो

बोलती हो

अर्थ खोलती हो

ज्यादा

3.

तुम देखने की नहीं

दिखाने के काम आती हो

अंतर्मन में समाने की कोशिश

तुम्हारी अहर्निश

4.

बहुत संकोची हो तुम

खुलती ही नहीं तुरंत

कई कई बार बजाने पर

सांकल, हिलती डुलती हो

07.11.2020

बुधवार, 11 जनवरी 2023

मुझे पहचानोःएक पाठकीय

 शैलेंद्र शांत

मुझे पहचानोःएक पाठकीय
स्त्री दहन की क्रूरता व पाखंड से दो-चार कराता उपन्यास

कथा साहित्य के परिचित और चर्चित नाम संजीव सामाजिक चेतना से समृद्ध कथाकार हैं। उनकी हर रचना मानवीय गरिमा को लेकर फिक्रमंद रही है-शोषण,अत्याचार,गैर-बराबरी के खिलाफ लगातार बोलती-बतियाती। किसान, कोयला खदान के मजदूर, उपेक्षत कलाकार, विडंबनाओं की शिकार स्त्री व उसकी पीड़ा आदि उनके कथानक के आधार रहे हैं। चाहें उनकी कहानियां हो या उपन्यास। उनका ताजा उपन्यास भी इसी बात की गवाही  देता है।
`मुझे पहचानो' उनका नवीनतम उपन्यास है। यह सती प्रथा की विसंगतियों और व्यथा की ओर बहुत धैर्य और विस्तार से ध्यान खींचता है।
चली आ रही परंपरा के नाम पर जबरन या धोखे से जिंदा जला दी गई स्त्री के महिमामंडन, सती के नाम पर मेले-ठेले, पूजा-अराधना के कर्मकांड सतत जारी है। ' तद्भव' के चलीसवें अंक में छपे उनके उपन्यास में बहुत सजग से इसे चित्रित किया गया है। पन्नों या आकार के लिहाज से यह संजीव का शायद सबसे छोटा उपन्यास है। लेकिन कथ्य बड़ा है और कहने की जरूरत नहीं कि प्रासंगिक भी। 
वैसे, यह सच है कि जबरन सती बना देने की वारदातें इधर कम हुई हैं, पर सती प्रथा का महिमामंडन अब भी थमा नहीं। उसकी याद डरावनी है। भारतीय समाज में स्त्री के खिलाफ सदियों तक बरती गई क्रूरता, लज्जाजनक ही नहीं, मानवीय विवेक पर सवाल दर सवाल उठाने वाली है। इसी विडंबना को रेखांकित करता यह उपन्यास, जो पाठक को बेहद बेचैन कर देने वाला है। बेजोड़ कथा शिल्पी ने क्रूर सामंती सोच, परंपरा के निर्वाह के नाम पर शिकार बनाई गई स्त्रियों की व्यथा-कथा को पेश किया है। कुसंस्कारों की बेदी पर स्त्रियाँ को चढ़ाए जाने के इतिहास को खंगालने की चेष्टा की गई है इसमें। राजा राममोहन राय की कोशिशों से ब्रिटिश शासन की ओर से इस कुप्रथा पर रोक के बाद भी धर्म की आड़ में स्त्री दहन की विसंगति जारी रही है । उसका महिमामंडन होता रहा है । मेले लगते रहे हैं । सती के स्थान-मंदिर बनते रहे हैं । धर्म के धूर्त बनिए चढावे से मालोमाल होते रहे हैं ।
`लो आ गए रत्नों के देश में-रत्नापट्टी!'
इस वाक्य से शुरू होता है उपन्यास। गाइड कुंज बिहारी दुबे जो मैनेजर मनोज सिंह का दोस्त है, को यह बताता है। इसके बाद डूब चुकी रियासत के अजीबो-गरीब किस्से का सिलसिला। रानी,पटरानी, भोग-विलास,सामंती अहंकार, कुसंस्कार के सुने-सुनाए जाते रहे किस्से, मिथक आदि से सने-पगे। इसी क्रम में एक निहायत सुंदर, हंसमुख युवती को जिंदा चिता पर बैठा देने की क्रूरता...
``नदी के उस पार पहाड़ी पर भी, जो ढलती हुई गढ़ी दूर से झलक रही है, वह राय साहब का महल और आगे बाईं ओर दो मंजिला कोठी आएगी, लाल साहब की। याद रहे, सामने आते ही जूते उतार लेना,नजरी नीची रहे।...यही दस्तूर है...यह एक तपे तपाए राजे रजवाड़े का इलाका है। रानियों से राजा साहब को जो लड़के पैदा हुए, राय साहब कहलाए और रखैलों से जो हुए,लाल साहब।''
दोस्त दुबे मैनेजरी दिलाने मनोज सिंह को यहां लाता है और मित्र के सवालों के जवाबों में आखिरी सांसें गिन रहे रजवाड़े की कहानी, रहस्य, अतीत बताते हुए सती देवी की कथा तक पहुंचता है। उसे रजवाड़े के लोगों की जरूरतों का ख्याल रखना है, मुकदमें लड़ना है और राजनीतिक महत्वाकांक्षा को पूरे कराने में भी अपनी भूमिका तय करनी है।
शीर्षकहीन 18 अध्याय में कथ्य का विस्तार है। कहीं-कहीं फंतासी के सहारे रोचक, दुखी और अचंभित कर देने वाले वाकयों के विवरण,जिसे पढ़ने की चाह बनी रहती है। जबरन चिता पर बैठा दी गई सावित्री कुवंर प्राकृतिक चमत्कार से थोड़ा झुलसने के बाद भी बच जाती है। ऐन वक्त पर आए आंधी-तूफान उसे नदी के हवाले कर देते हैं। एक मल्लाह की कुटिया में उसे पनाह मिलती है। उसे सती करार देकर उसके नाम पर मेले तक लगने शुरू हो जाते हैं। मेले पहले से भी लगता रहे हैं सतियों के नाम पर। पांचवें साल इसी मेले में इसके समापन पर राजा राममोहन के बड़े भाई जगनमोहन की पत्नी अलोका मंजरी के सती दाह का मंचन होता है-हैल्युसिनेशन। इसी से तोगों को इस बात का पता चलता है कि वह जलकर भष्म होने से बच गई थी। हालांकि पाठक को पहले के एक अध्याय में। कथा के सूत्रधार दुबे और मनोज के मार्फत।
...अलोका मंजरी को ढोल नगाड़े,तुरही के बीच लाया जाना। पति के शव को लेकर समहरण के लिए बैठना,चिता की आग। लोगों का चला जाना। सुबह फिर लौटना, झाड़ियों में छुपती अलोका को लाकर पुनः चिता के हवाले करना।
जलती हुई ज्वाला,लपलपाती लपटें,अलोका मंजरी की जलती लाश-लगा, आसमान से बिजली चमकी और भयंकर गड़गड़ाहट के बीच अलोका मंजरी की चिता से एक सुंदरी प्रकट हुई। उसके दोनों ओर 5-5 वर्ष के दो बच्चे।
`कौन है? कौन है? कैसे आ गई? के रोष भरे निषेधात्मक शोर की अवमानना करती, ढीठ बन आगे बढ़कर उसने माइक को थाम लिया-
आप सारे विद्वान सतियों की पात्रता, अपात्रता पर फिर फिर विचार करते रहेंगे,आज एक जिंदा सती पर विचार कर लीजिए।'
`कौन है जिंदा सती? धर्माचार्य ने टोका।
`मैं मैं सावित्री कुंवर! इसी जगह उसे जलाकर मार डाला गया था,पांच साल पहले, इसी जगह पांच साल बाद फिर से आविर्भूत हो रही हूं।
पहचानिये मुझे, जिसे उसके जन्मदाता पिता ने नहीं पहचाना, जन्मदात्री मां ने नहीं पहचाना,रियासतदारों ने नहीं पहचाना-पहचानिये मुझे। डी.एन.ए.मिलाकर देख लीजिए। एक लंबी जंजीर घेर रही है हम अलोकाओं को।हां मैं अलोका मंजरी हूं, राजा राममोहन राय की भाभी,जिसे उनके पति जगमोहन बैनर्जी की मौत पर मारपीट कर सती बनाया गया, आंधी,पानी, झड़ झंझा की रात सुबह देखा कि मरी नहीं तो गांववालों ने फिर से जलाया।'
`सैकड़ों वर्षों से जलायी जाती रही, धर्म और परंपरा की बेदी पर सैकड़ों वर्षों से। पर इसकी जिद देखिए, यह मरी नहीं, जिंदा है। जलने के दाग- ये,ये,ये,ये।' उसने कपड़े खोलकर दाग दिखाने शुरू किये एक एक कर।
राय साहब ने लठैतों को बुलाया,पर धर्माचार्य ने रोक दिया।
`सिर के कुछ केश जल गए थे, चमड़े जल गए थे- ये रहे। कुछ आग बाहर थी, कुछ अंदर। इस अलोका को स्वर्ग ने नहीं लोका। स्वर्ग से उतर कर आ गई सावित्री कुंवर के रूप में आपके सामने। अपने दो बच्चे और...पति के साथ। मेरी एक संतान पूर्व पति राजा उदय प्रताप के दूसरे पुत्र की है-यह लव, और दूसरी संतान इस पति से है-कुश, दूसरे पति अनमोल से।'
`मैं आपके सामने हूं-पांच सालों से हूं आपके सामने, आपने पहचाना नहीं, क्योंय़ इसलिए कि आप तो मुझे जलाकर पतिलोक भेज दिया था।पर मैं ढीठ लौट आई स्वर्ग से।'
`आप चाहें तो इस आलोका को फिर से मारकर जला दें। मेरे इस दाह में आप सभी स्त्री पुरुष, माता पिता शामिल रहे,सारे पुण्यार्थों, धर्म, परंपराओं, समाज-मैं आपके कठघरे में खड़ी हूं। विचार कीजिए।'
 उपन्यास के आखिरी अध्याय के अंतिम आखिर के दो पन्ने कथा को उसके मुकाम तक पहुंचाते हैं। पाठक के मन को उद्वेलित करते हुए। स्त्री की दिशा-दशा पर विमर्श के दरवाजे को खोलते हुए। दस्तावेजी तथ्यों से भरे उपन्यास में बंगाल का विवरण प्रचूर है। यहीं वायसराय विलियम बेंटिक ने राजा राममोहन राय के कहने पर 1829 में कानून बनाया था।
....सूचनार्थ, शास्त्रार्थ, विवाद और संवाद बढ़ते जा रहे थे कि बंगाल से आई एक रपट के सफे दर सफे खुलने लगे। सन् 1823 के बंगाल सरकार के पुलिस प्रतिवेदन के अनुसार उस वर्ष यानी 1823 में बंगाल में कुल 575 सतियों की खबर है, जिसमें ब्राह्मणी 234, क्षत्राणी 35, सेठानी या वैश्य 14 और शुद्रा 292 बतायी जाती हैं।...उपन्यास में बहस-संवाद के जरिए इस कुप्रथा से प्रभावित रहे इलाकों की खोज-खबर ली गई है, परंपरा,संस्कृति के नाम पर पाखंड, क्रूरता आदि को उजागर करते हुए। कुलमिलाकर यह पठनीय और जरूरी उपन्यास है,इसका स्वागत होना चाहिए।

मंगलवार, 10 जनवरी 2023

अटारी पर चांद

 

    'अट्ठारह साल की लड़की अकेली विश्व भ्रमण के लिए निकली है, यह बात मेरे लिए नई तो नहीं, क्यों कि मैं पहले भी कुछ लड़कियों से मिल चुकी हूं,लेकिन आश्चर्य यह था कि ...केवल एक हजार यूरो की रकम उसकी थाती थी। उसका प्लान है कि वह जहां जाएगी कुछ काम कर खर्च निकाल लेगी। ...उसके भ्रमण की सीमा में कई देश थे,पर भारत नहीं।...मैंने कहा कि जूलिया....लेकिन तुम भारत आए बिना विश्व भ्रमण करोगी अच्छा नहीं लग रहा है।...मुझ से अनेक बार पूछा गया भारत में इतने रेप क्यों होते हैं और मुझे उन्हें समझाने वक्त लगता कि रेप भारतीय संस्कृति नहीं, वैश्विक संस्कृति का ही एक भाग है..रेप की घटनाएं ज्यादा होते हुए भी स्थिति ऐसी नहीं कि आप भारत में रह ही नहीं सकते।...खैर, हम बात जूलिया की कर रहे हैं, ना जाने कितनी लड़कियां हमारे घरों से निकलना चाहती हैं, लेकिन कहां निकल पातीं, विश्व भ्रमण का सपना तो किशोर-युवकों का भी पूरा नहीं हो पाता।'

   ये उद्धरण कवयित्री रति सक्सेना की यात्रा-वृतांत की किताब 'अटारी पर चांद' से हैं। रति जी कि इस किताब में तमाम कलाकृतियों, कला-दीर्घाओं, सुंदर भवनों आदि के आंखों देखे ब्यौरे हैं, जो जर्मन की समृद्धि की कहानी बयान करती है, साथ ही युद्धों के, नाजी सेना की क्रूरताओं की बानगी भी पेश हैं इसमें। विडंबना और समय का फेर यह कि उसके देश में ही हिटलर पर कोई बात नहीं करना चाहता।

    लेखिका को जर्मन कलाकारों की संस्तुति पर प्रदत्त विश्व प्रसिद्ध वालब्रेता रेजीडेंसी में स्कॉलरशिप मिली थी। उन्होंने 2016 में लगभग तीन माह के प्रवास में वहां ‘पोइट्री थेरोपी’ प्रोजेक्ट पर काम किया। जाहिर है, अपनी यात्रा के उल्लेखनीय पल, अनुभव, प्रेक्षण भी पन्नों पर दर्ज करती रहीं, जिसका सुफल यह किताब है। और हम जैसे उनकी आँखों से इस जर्मन को देख, महसूस कर पा रहे हैं। यकीनन दूसरे पाठक भी लाभ उठा रहे होंगे इसका। 

   एक यह विवरण- '...एनरेट्टे अकेली रहती हैं। एक बार उन्होंने बताया कि उनका एक ब्वॉय फ्रेंड था, जो धोखा देकर चला गया। बाद में वह बताने लगी कि आजकल जर्मन पुरुष जवानी में गर्लफ्रेंड के साथ रहते हैं, जब वे अधेड़ या बूढ़े हो जाते हैं तो थाईलैंड जाकर थाई लड़कियां लाते हैं, वे अधिकतर खरीद कर ही लाते हैं। फिर वे उनकी सेवा करती हैं, क्योंकि जर्मन स्त्रियां मजबूत और मेहनती होती हैं, वे स्वतंत्र व्यक्तित्व रखती हैं।'

तो जर्मन का एक तस्वीर यह भी है। 

    एक मार्मिक विवरण यह भी - जब हम रोतेन्बर्ग पहुंचे तो महसूस हो गया कि हम पर्यटन केंद्र में पहुँच गए हैं। गुड़ियों के घरौंदों जैसे खूबसूरत रंगे-चुने घर, रंगों के चुनाव में हर घर एक दूसरे से प्रति स्पर्धा करता हुआ-सा। ...हम एक संग्राहलय में पहुँच गए, जिसमें सजा देने के अमानवीय औजार थे। सच कहूं तो शहर की सारी खूबसूरती इस संग्राहालय को देखते ही भड़भड़ा कर टूट गई।...दोष कुछ भी हो सकता था, किसी स्त्री का डायन करार दिया जाना या किसी पुरुष के व्यभिचारी होने की शंका होना या फिर कोई चोरी-चपाटी आदि। सजा में नाखूनों को उखाड़ने से लेकर जीभ पर ताला लगाने तक के औजार थे।...यह सब देख मन बहुत व्यथित हो उठा...और सच कहूं तो लगा कि लौट चलो इस देश से।'

 बहरहाल, इसी देश में अब जूलिया की पीढ़ी भी तैयार है। एक दिन बर्लिन की दीवार भी टूटी। और कई भ्रम भी। नहीं बदला है तो शायद अंध-राष्ट्रवाद की परिणति के दुःस्वप्न। हिटलर के प्रति इतनी घृणा की सामान्य जर्मन उस पर बात नहीं करना चाहता।

   प्रवेश वर्जित: डकाउ यातना शिविर जिसे कंसेंट्रेशन कैंप कहा जाता है, हिटलर की नाजी मानसिकता का पहला शिविर था, जिसे सोच-समझ कर यहूदियों की हत्या करने के उद्देश्य से बनाया गया था। कहा जाता है कि इसमें विभिन्न देशों के दो लाख से ज्यादा कैदी थे, जिनमें से 41,500 कैदी मारे गए थे। ( मार दिए गए थे, लिखना ज्यादा सही होगा) सहसा सब चुप्पा से गए। जैसे याद आया कि हम मौत से मिलने जा रहे हैं।...बाहर बोर्ड था, (जिस पर लिखा था) कृपया बच्चों और कुत्तों को भीतर न ले आएं।...फिर महसूस हुआ कि हम ही कैदी हैं।...मृतकों की राख पर फुलवारी उगा रखी थीबोर्ड पर लिखा था कि कोई इस फुलवारी पर पैर न रखें, यहां मृतकों की राख बिछी है।...चैंबरों की तरफ जाने से पहले तीन उपासना घर दिखे, शायद उनका निर्केमाण तब हुआ, जब यह यातना घर से शरणार्थी शिविर में बदला गया। मैं यही सोच रही थी कि देव यहां वास कर रहे थे तो उन्होंने इस अत्याचार को क्यों सहा। ( अपने यहां राम जी भी तो सह ही रहे हैं, भक्तों के उत्पात को)'

  इस किताब से एक विवरण और- 'लौटते वक्त मैं और शारलोत्ते साथ थे, हम लोग राजनीतीक स्थितियों की बात करने लगे। मैंने कहा कि युद्ध के बाद जर्मनों के साथ जो कुछ हुआ, वह भी दुखद था, क्योंकि समस्या किसी एक नेता ने पैदा की थी।'

शारलोते ने जवाब दिया, 'जब जनता किसी गलत नेता को चुनती है तो वह उसके पाप में बराबर की भागीदीर बन जाती है।'

'निःसंदेह, लेकिन जब जनता भीड़तंत्र के साथ चलती है।' मैंने कहा।

'फिर भी गलती तो है ही', शारलोत्ते का जबाव था।

'गलती का पता जब तक लगता है, अक्सर देर हो जाती है'-मैं कहना चाहती थी, लेकिन चुप ही रही।

   अपने मेजबान, दोस्त-गाइड के साथ घूमती-बतकही करती और तमाम लुभाने और बदरंग दृश्यों के लेखकीय ब्यौरे से भरे इस वृतांत से गुजर लेना, बहुत से अहसासों से दो-चार होने जैसा भी है। 

   इस किताब में रति जी ने कुछ कविताएं भी दर्ज की है। डकाउ पर लिखी बहुत ही मार्मिक कविता के इस अंश के साथ इस चर्चा को विराम देने की इजाजत चाहूंगा।

'लिखा तो यह भी था कि

कृपया शोर ना मचाएं, जोर से ना हँसें

ऐसा कुछ ना करें कि मृतकों की आत्मा को

कष्ट मिले,

लेकिन व्यक्तिगत सामान वाली लाइब्रेरी में

कैदियों के सामान में खूबसूरत प्रेमिकाओं की तस्वीरों के साथ

बच्चों और पालतू कुत्तों की तस्वीरें भी हैं


कैम्प में सन्नाटा है, सैकड़ों दर्शनार्थियों के बावजूद

मानो कि अभी कोई ना कोई मृतात्मा बोल उटेगी

.....

लेकिन क्या आदमी को आदमी बनाने के लिए

यातना घर जरूरी है


सवाल अधूरा है...'


 इस पठनीय 'यात्रा-वृतांत' की किताब को न्यू वर्ल्ड पब्लिकेशन ने प्रकाशित किया है।