रंजो-गम को बयां करती कविताएं
उम्र
छियासठ साल की और किताब पहली। है न चकित करने वाली बात। आम तौर पर चंचल
चित्त माने जाते रहे हैं कवि। पर यह कवि तो इससे एकदम उलट। इतना धैर्य ?
इतना लंबा इंतजार? आज का दौर मुक्तिबोध वाला तो रहा नहीं। हालांकि,तब भी
उनके साथ के लोगों की किताबें तो आ ही रही थीं। बहरहाल, इस कवि की कविता के
बारे में ब्लर्ब लेखक क्या सोचता है, यह तो जान लिया जाए, किताब हाथ आने
पर इच्छा पैदा होना स्वाभाविक है, लेकिन पेपरबैक किताब में तो यह होता
नहीं। भूमिका तो होनी ही चाहिए। लेकिन वह भी नहीं। पन्ने पलटने पर पता चला
कि कवि ने अपनी कविताओं के बारे में खुद भी कुछ नहीं लिखा है। आखिरी कवर पर
बस परिचय भर है। तमाम साहित्यिक पत्रिकाओं में, अखबारों में इनकी कविताएं
बीती सदी के सातवें दशक से छपती रही हैं। लेकिन कवि शायद संकोचवश किसी से
इस बाबत दो शब्द लिखने को कह नहीं पाए होंगे। जाहिर है, पाठक को खुद ही
अपनी राय कायम करनी होगी इन कविताओं और कवि के बारे में। `वह औरत नहीं
महानद थी' (बोधि प्रकाशन) संग्रह के यह कवि हैं कौशल किशोर। दो खंडों में
विभक्त यह संग्रह आधी आबादी को समर्पित है। लेकिन है तो इसमें पूरी आबादी
के रंजो-गम को बयां करने वाली कविताएं। एक मुट्ठी रेत(खंड एक) की पहली
कविता ही इसे साबित करती है और चौंकाती भी है।
कैसे कह दूं
मैं कैसे कह दूं
हरे-भरे पेड़ों के तने पर
कहीं नहीं मौजूद गोलियों के घाव
मैं कैसे कह दूं
चांद-तारे आज भी बिखेर रहे हैं रोशनी
आकाश में अंधेरा कहीं नहीं है...
साठवें दशक के मध्य से ही कविता से दोस्ती बरत रहे कौशल जी साहित्यिक
पत्रकारिता के साथ ही सामाजिक-सांस्कृतिक कार्यकर्ता की भूमिका में भी रहे
हैं, सो मानवाधिकार, सांस्कृतिक परिदृश्य में हो रहे क्षरण की चिंता से वे
आंख नहीं मूंद सकते थे। 1977 में लिखी इस कविता में भी इसकी झलक मिलती है।
कारखाने
से लौटने पर, अंधेरे से प्रतिबद्ध ये लोग, इस वक्त के बाद , जागता शहर ,
लहरें, हमें बोनस दो , गौरैया आदि कविताएं मजदूर, किसान, साधारण लोगों की
तकलीफों और उनके अधिकारों को स्वर देने वाली कविताएं हैं।
गौरैया कविता की ये पंक्तियां बतौर बानगी देखिए-
गौरैये की चहल
उसकी उछल-कूद और फुदकना
मालिक मकान की सुविधाओं में खलल है
मालिक मकान पिंजड़ों में बंद
चिड़ियों की तड़प देखने के शौकीन हैं
वे नहीं चाहते
उनके खूबसूरत कमरों में गौरये का जाल बिछे
वे नहीं चाहते
गौरैया उनकी स्वतंत्र जिंदगी में दखल दे
........
विचित्र हो चली हमारी दुनिया की बानगी को कवि चिड़िया और आदमीःएक में इस तरह पेश करते हैं-
चिड़ियों को मारा गया
इसलिए कि
उनके पंखों के पास था विस्तृत आसमान
नीचे घूमती हुई पृथ्वी
और वे
इन सबको लांघ जाना चाहती थीं
आदमी को मारा गया
इसलिए कि
वे चिड़ियों की तरह उड़ना चाहते थे उन्मुक्त
.....
चिड़ियों के लिए
मौसम ने आंसू बहाए
आदमियों के लिए
आंसू बहाने वाले
गिरफ्तार कर लिए गए।
हम जिस समय और समाज में पनाह ले रहे है उसकी विसंगति को तानाशाह शीर्षक से कुछ कविताओं के इस अंश के मार्फत देखिए-
...
हंसो
इसलिए कि
रो नहीं सकते इस देश में
हंसो
खिलखिला कर
अपनी पूरी शक्ति के साथ
इसलिए कि
तुम्हारे उदास होने से
उदास हो जाती हैं प्रधानमंत्री जी
(1981-83 के बीच में लिखी कविता)
भूख और चूल्हे की कहानी अभी तक पुरानी नहीं पड़ी, विकास की डुगडुगी पर
सवाल उठाती आग और अन्न कविता को पढ़ते हुए नागार्जुन की याद आ जाती है...कई
दिनों के बाद...। कौशल किशोर की इन पंक्तियों को देखिए-
चूल्हा जल रहा है
.....................
चूल्हें में आग है
आग पर चढ़ा है पतीला
पतीले में पक रहा है अन्न
औरत पतीले का ढक्कन हटाती है
......
देखती है आग और अन्न का मिलन
......
अन्न का आग से
जब होता है ऐसा मिलन
सृजित होता है
जीवन का अजेय संगीत
भूख जैसा हिंस्र पशु भी
इसमें हो जाता है नख दंतविहीन।
औरत और घर कविता में भी कुछ इसी तरह का भाव है। चूल्हे को जलाने-चलाने के
गुर को सीखने-जानने में माहिर। इस खंड की कविताओं में असम आंदोलन की
तकलीफदेह याद को ताजा करने वाली कविता असमःफरवरी 1983, बिहारी मजदूरों के
संघर्ष और वेदना को उकेरने वाली कविता पंजाब और बिहारी भाई, तेल की लूट पर
एक मुट्ठी रेत जैसी मार्मिक कविताओं के साथ ही कवि बेंजामिन मोलायस को
फांसी दिए जाने पर भी एक कविता एक दिन आएगा...है।
अनंत
है यह यात्रा (खंड दो) में आमुख कविता समेत स्त्री विमर्श की कई कविताएं
हैं। उसका हिंदुस्तान, मां का रोना, पुस्तक मेले से, उसकी जिंदगी में
लोकतंत्र, दुनिया की सबसे सुंदर कविता, मलाला, धरती, स्त्री है वह आदि,
जिनमें स्त्री की पीड़ा, हाहाकार, जिजीविषा, संघर्ष के स्वर मुखर हैं।
जिंदगी की तपिश के साथ।
वह जुलूस के पीछे थी
उछलती फुदकती
दूर से बिल्कुल मेंढक सी नजर आ रही थी
पर वह मेंढक नहीं स्त्री थी
जुलूस में चलती हुई
नारे लगाती हुई
............
पहाड़ी नदियां उतर रही थीं
चट्टानों से टकराती
उछाल लेती
लहराती मचलती बलखाती
बढ़ती उसी की ओर
अब वह औरत नहीं महानद थी।
इस
कविता ने आठ मार्च 2010 को जन्म लिया था लखनऊ में हुई महिलाओं की हुई रैली
में। जाहिर है कि यह कवि रैली, सभाओं, आंदोलनों में भी शिरकत करता रहा है।
तभी नारी के इस रूप से भी वाकिफ हो पाता है। औरतों के एक दूसरे रूप से भी
परिचित है यह कवि, तभी उसका हिंदुस्तान कविता में ये पंक्तियां लिख पाता
है-
एक औरत सड़क किनारे बैठी
पत्थर तोड़ती है...
एक...सड़क पर सरपट दौड़ती है
एक औरत के दोनों हाथ मिट्टी में सने हैं
एक...उसकी दुनियां से बेखबर...
दुनिया की सबसे सुंदर कविता में कवि स्त्री को ही यह मान देता है।
....जब गिरता हूं
वह संभालती है
जब भी बिखरता हूं
वह बंटोरती है
तिनका तिनका जोड़
.....उसका सौंदर्य मेरे लिए
गहन अनुभूति है
लिखी जा सकती है उससे
दुनिया की सबसे सुंदर कविता।
स्त्री है वह की ये पंक्तियां भी कम मोहक नहीं-
......फिक्र नहीं कोई
पास जो है उसके
सब लुट जाए
बस, चित्तभूमि तर हो जाए
धरती पर बहार आए
ऐसी है वह
स्त्री है वह।
इसी तरह की तमाम कविताएं हैं इस संग्रह में, जिनमें शहर(लखनऊ), समय, समाज ,
संबंध के टूटने, बिखरने, क्षरण के साथ ही साधारणजनों के संघर्ष और
जिजीविषा को उम्मीद की नजर से देखने का नजरिया भी है। कौशल जी के इस संग्रह
को स्वागत किया जाना चाहिए।