शनिवार, 15 जून 2019

संतोष कुमार चतुर्वेदी की कविताएं


युवा कवि संतोष कुमार चतुर्वेदी की कविताएं पत्रिकाओं में पढ़ता रहा हूं। गांव से जुड़े हुए, यानी खेत-खलिहान, बाग-बगीचा, पेड़, पाखी और पियराती जिंदगियों से। यहीं से ढूंढ निकाले है मोछू नेटुआ को और यह समझ भी कि दक्षिण का भी अपना पूरब होता है। दरअसल,हर दिशा के समांतर दिशा होती है, जो रूढ़ मान्यताओं को खंडित करती जाती है। जिंदगियां जहां भी पनाह लेती हैं, वह जगह मानीखेज ही हुआ करती हैं। पात्रों के सुख-दुख के हिस्से का बंटवारा व्यवस्था ही करती चलती है। जागरूक कलमकार इसे समझता, महसूस करता है और विचलित भी होता है यानी कि बेचैन। संतोष के इस संग्रह का प्लर्ब वरिष्ठ कवि विजेंद्र जी ने लिखा है, जिसमें इस कवि की रचनात्मक खूबियों पर चर्चा के साथ ही और बेहतर की उम्मीद जताई है। दक्षिण का भी अपना पूरब होता है की तीस कविताओं में कुछ लंबी, कुछ मझौली और कुछ छोटी कविताएं संग्रहित है। मां का घर, पानी का रंग, चाबी,मोछू नेटुआ, भभकना,मुकम्मिल स्वर, सुराख, जिंदगी आदि कविताएं इस पाठक को ज्यादा पसंद आई। इन कविताओं के लिए संतोष जी को बधाई। आपके लिए उनकी ये छोटी कविताएं-

निगाहों को आइना
तुम्हारी निगाहों का
फकत
ये आइना न होता
तो कभी
परख ही न पाता मैं
अपना यह चेहरा
.....................
मुकम्मिल स्वर
कौन कहता है
कि महज दीवारों और छतों से
बनते हैं घर
वह तो खिड़कियां दरवाजे हैं
जो देते हैं घर को
सही तौर पर
उसका मुकम्मिल स्वर
.........................
सुराख
अतल गहराइयों में राह बना लेने वाला
समुद्र के सीने को चीर देने वाला
पानी को बेरहमी से हलकोर देने वाला
आंधी तूफान को झेल लेने वाला
भीमकाय जहाज
डरता आया है हमेशा से
एक महीन सी सुराख से
............................
जिंदगी
हर पल जीने का
दोहराव भर नहीं है जिंदगी
पारदर्शी सांसों की
मौलिक कविता है
अनूठी यह

बुधवार, 12 जून 2019

सत्येंद्र की कुछ कविताएं

सत्येंद्र की कुछ कविताएं

पत्रकारिता में रह कर कविता के लिए समय निकालना और उसमें रम पाना बहुत मुश्किल है। पर जिद्दी लोग वक्त निकाल ही लेते हैं संवेदना के सागर में डुबकी लगाने के लिए। सत्येंद्र प्रसाद श्रीवास्तव ऐसे ही लोगों में से एक हैं। इनके अब तक कविता के दो संग्रह-रोटी के हादसे और अंधेरे अपने अपने आए हैं। अच्छी बात यह है कि इनकी कविताओं में जूट मिलों के इर्द-गिर्द के जीवन के सुख-दुख की संवेदनात्मक उपस्थिति मौजूद है। यहां पेश है उनकी कुछ कविताएं।
1.
बाबूजी
बाबूजी
बाबू नहीं, मज़दूर थे
बाबू के शरीर से
नहीं आती फेसुए* की खुशबू
बाबूजी का रोम-रोम
फेसुए की खुशबू से गमकता था
यह खुशबू जितनी फेसुए की पहचान थी
उतनी ही बाबूजी की भी
फेसुए और बाबूजी एक दूसरे को खूब पहचानते थे।
बाबूजी के साथ
मिल से घर आने के लिए
मानो जिद करते थे फेसुए
उनके बदन से चिपक कर सैकड़ों टुकड़े
पहुंच जाते थे घर
वो मेरे ही नहीं
फेसुओं के भी पिता थे
अपनी मशीन पर वो उन्हें भी
ठीक वैसे ही गढ़ते थे
जैसे कि गढ़ रहे थे मुझे
ताकि हम दोनों किसी के काम आ सकें।
बाबूजी
बाबू नहीं, मज़दूर थे
मूड में आने पर
लाल सलाम भी बोलते थे
और इंकलाब ज़िन्दाबाद भी
लेकिन इनका सच भी जानते थे
इसलिए जब अक्सर बिना काम के
घर लौटते तो निडर होकर उद्घोष करते
सब स्साले चोर हैं
वो चोर-सिपाही के सारे तिलिस्म को समझते थे।
बाबूजी
बाबू नहीं, मज़दूर थे
बदली* मज़दूर
काम के लिए अक्सर उनकी साइकिल
इस मिल से उस मिल का
चक्कर लगाती रहती थी
वो जानते थे
जब तक जांगर है
तब तक उनसे चलेगी मशीन
जब तक चलेगी मशीन
तब तक जलेगा घर का चूल्हा
बच्चों के चेहरे पर लहलहाती रहेगी
खुशी की फसल।
बाबूजी ने कभी नहीं देखा
अच्छे दिन का सपना
वो जानते थे
मज़दूरों के कैलेंडर में
कोई भी दिन अच्छा नहीं होता
वो भी तो मज़दूर ही थे
बाबू नहीं थे
बाबूजी।
(फेसुआ--जूट, पाट)
2.नंगई
नंगा होने की हद
कपड़े उतारने तक ही होती है
लेकिन नहीं होती
नंगई की कोई हद
कब का नंगा हो चुका राजा
अब नंगई पर उतारू है।
3.
यह वक्त प्रेम का नहीं
मैं
जिस वक़्त तुम्हारे प्रेम में
आकंठ डूबा हूँ
ठीक उसी वक़्त कुछ लोग
फैला रहे हैं नफ़रत
धर्म के नाम पर
जाति के नाम पर
लेकिन मैं
तुम्हारे प्रेम से इतर
कुछ देख ही नहीं पाता
जबकि यह वक़्त प्रेम का नहीं
नफ़रत से लड़ने का है
प्रेम को बचाने के लिए
बेहद ज़रूरी है यह लड़ाई।
4.
मां का इंतज़ार
मां
जब भी करती है फोन
बेटा काट कर करता है रिंग बैक
फ्री कॉल के ज़माने में भी
जारी है मां-बेटे के बीच
यह परंपरा।

फोन कटने के बाद
मां करती है इंतज़ार
कभी तत्काल वापस आता है फोन
तो कभी-कभी
बेटे की एक टुम आवाज़ सुनने के लिए
घंटों इंतज़ार करती है मां
मां इंतज़ार से नहीं ऊबती।
बचपन में देखा है उसने
हर रोज नहाने के बाद
पेटीकोट में ही मां
बिना उकताए करती थी
एकमात्र साड़ी के सूखने का इंतज़ार
बारिश के दिनों में
मां की तकलीफ देख
पिताजी करते थे
नई साड़ी लाने का वादा
बिना झुंझलाए मां ने
नई साड़ी के लिए भी
किया था लंबा इंतज़ार।
मां ने इंतज़ार किया
पति के फैक्ट्री से लौटने का
बच्चों की स्कूल से वापसी का
मां ने बड़े धीरज से इंतज़ार किया
राशन-पानी का
बच्चों के दूध के डिब्बे का
दमे की दवाई का
मां
इंतज़ार की घड़ियों में
दुख को सुख की कथा सुनाती रही
उसे भरोसा है सुख एक दिन आएगा
वह बिना उकताए करती है सुख का इंतज़ार
मां का इंतज़ार कभी खत्म नहीं होता।
ना कट सकने वाली
इंतज़ार की घड़ियों से ही
बतियाती है मां
दोनों बांटते हैं
एक-दूसरे का दुख
और कटता जाता है
ज़िन्दगी का हर कठिन पल।
5.
गुमशुदा

मैं गुम हूँ
लेकिन कोई मुझे ढूँढ़ता नहीं
अखबार के फड़फड़ाते पन्ने
नहीं लेते मेरा नाम
किसी ने अभी तक नहीं छपवाया
मेरी गुमशुदगी का विज्ञापन
टीवी के पर्दे पर अपना चेहरा
खोजता हूँ लेकिन
सिर्फ राजा दिखता है
बार-बार दिखता है
हर बार मुस्कुराता हुआ
मानो खुश हो मेरे गुम होने पर
इंतजार करता रहता हूँ
लेकिन टीवी पर नहीं आती मेरे गुम होने की कोई खबर
कोई यह मानने को तैयार नहीं कि
मैं गुम हो चुका हूँ।

दरअसल वो ये मानने को भी तैयार नहीं कि
गुम वो भी हो चुके हैं
वो सरकारी पहचान पत्र को अपनी पहचान बता रहे हैं
मैं पूछता हूँ कौन हो तुम
वो खुद पीछे हो जाते हैं
सरकार को आगे कर देते हैं
सच ये है कि
अकेले मैं गुम नहीं हूँ
पूरा का पूरा शहर गुम हो चुका है
पूरा का पूरा देश गुम हो चुका है
इतिहास गुम है
वर्तमान गुम है
और भविष्य का कोई पता नहीं
लेकिन सभी भ्रम में हैं कि
कहीं कुछ गुम नहीं हुआ है
सबके पास अपने-अपने मुखौटे हैं
सबके पास अपने-अपने पहचान पत्र हैं।

जब तक लोग
खुद को भूल
मुखौटे के भरम में जीते रहेंगे
राजा निरंकुश होकर राज करता रहेगा
राजा के लिए जितना जरूरी राजपाट है
उतनी ही जरूरी ऐसी प्रजा भी।

6.
मिट्टी की कब्रगाह
शहर में मिट्टी नहीं है
कंक्रीट और कोलतार के शहर ने
बहुत पहले कर दिया था
मिट्टी का कत्ल।

खेतों की कब्र पर खड़ी
बड़ी-बड़ी अट्टालिकाएं
उनकी याद में बनाई गईं
स्मृति फलक लगती हैं
जहां बन्द कर दिए गए हैं
हर खिड़की-दरवाजे
नई हवा, नए विचार के लिए
इस डर से कि कहीं घर में मिट्टी ना घुस जाए
मिट्टी सिर ना उठा पाए
इसलिए हर रोज होती है डस्टिंग
घर की भी, दिमाग की भी।
शहर में कोई नंगे पांव नहीं चलता
क्योंकि शहर में घास नहीं है
कृत्रिम घास से ही मन बहला लेते हैं
मिट्टी के क़ातिल
बॉलकनी में रखे सजावटी गमले के लिए
खरीद कर लानी पड़ती है मिट्टी
रोज डालते हैं पानी
इसलिए नहीं कि उन्हें प्रकृति से प्रेम है
बल्कि इसलिए कि ज्योतिषी ने कहा है कि
पौधों में रोज पानी डालने से
मजबूत होता है चन्द्रमा।
शहर में पौधे भी नहीं है
पेड़ की जगह खड़े हैं कंक्रीट के खंभे
इसलिए शुद्ध हवा के लिए
अब एयर प्यूरफायर का इस्तेमाल करता है शहर
शहर जानता है कि इससे शुद्ध नहीं होती हवा
लेकिन वो बताता है कि उसके पास हर चीज़ की है मशीन
वह मशीन से हवा साफ करता है
वह मशीन से पानी साफ़ करता है
वह मशीन से कमरे को गर्म करता है
वह मशीन से कमरे को ठंडा करता है
वह मशीन से हर मुश्किल आसान करने का दावा करता है
मशीन-मशीन करते करते
वह खुद
बन गया है मशीन
मिट्टीविहीन इस शहर में
अब मशीनें ही रहती हैं
इंसान तो मिट्टी की तलाश में
यहां से कब का जा चुका है ।
7.
जनतंत्र

पहला
जनता का खून चूसता है
दूसरा विरोध करता है
फिर दूसरा
बन जाता है जोंक
पहला विरोध करता है।

वर्षों से जारी है ये सिलसिला
जनता सूखती जा रही है
नारों का शोर बढ़ता जा रहा है
सुना है
शोषण और शोर के इस तंत्र को
वो जनतंत्र कहते हैं।
8.
राजा
उसे वे पसंद हैं
जो मुंह नहीं खोलते
उसे वे पसंद हैं
जो आंखें बंद रखते हैं
उसे वे पसंद हैं
जो सवाल नहीं करते
उसे वे पसंद हैं
जिनका खून नहीं खोलता
उसे वे पसंद हैं
जो अन्याय का प्रतिकार नहीं करते
उसे मुर्दे पसंद हैं
वह राजा है।
9.
अब हर हत्या हत्या नहीं है

बदल रही है
हत्या की परिभाषा
हत्यारे की भी

हत्या
अब हत्या हो भी सकती है
नहीं भी हो सकती है

हत्यारा
अब हत्यारा भी हो सकता है
या फिर हो सकता है
हिंदू या मुसलमान

बोल सकने वाली जीभें
स्वाद को समर्पित हो चुकी हैं
और वे बड़ी कामयाबी के साथ
बदल रहे हैं
हत्या और हत्या की परिभाषा।

9.ईश्वर और किसान

बिचौलियों से परेशान है ईश्वर
किसान भी
दोनों का हिस्सा
मार लेते हैं बिचौलिए

ईश्वर नहीं करता विरोध
इसीलिए उसके हिस्से फूल
किसान विरोध करता है
उसके हिस्से फंदा।

10.
अब और नहीं अहिल्या

सतयुग में
बलात्कारी इंद्र के खिलाफ
आवाज दबाने के लिए
पत्थर बना दी गई थी अहिल्या

अहिल्या का पत्थर हो जाना
चेतन का जड़ हो जाना था
जड़ मुंह नहीं खोलता
इंसाफ नहीं मांगता
बगावत नहीं करता
अहिल्या को भी नहीं मिला इंसाफ
बेखौफ घूमता रहा देवताओं का राजा

कलियुग में
एक बलत्कृत लड़की ने
कर दिया अहिल्या बनने से इंकार
अपनी चेतना के समस्त वेग के साथ
उसने भींच ली मुट्ठी
पत्थर बनने की जगह
उसने उठा लिए हैं हाथ में पत्थर
डोल रहा है इंद्र का सिंहासन।


मंगलवार, 11 जून 2019

रंजो-गम को बयां करती कविताएं

रंजो-गम को बयां करती कविताएं

उम्र छियासठ साल की और किताब पहली। है न चकित करने वाली बात। आम तौर पर चंचल चित्त माने जाते रहे हैं कवि। पर यह कवि तो इससे एकदम उलट। इतना धैर्य ? इतना लंबा इंतजार? आज का दौर मुक्तिबोध वाला तो रहा नहीं। हालांकि,तब भी उनके साथ के लोगों की किताबें तो आ ही रही थीं। बहरहाल, इस कवि की कविता के बारे में ब्लर्ब लेखक क्या सोचता है, यह तो जान लिया जाए, किताब हाथ आने पर इच्छा पैदा होना स्वाभाविक है, लेकिन पेपरबैक किताब में तो यह होता नहीं। भूमिका तो होनी ही चाहिए। लेकिन वह भी नहीं। पन्ने पलटने पर पता चला कि कवि ने अपनी कविताओं के बारे में खुद भी कुछ नहीं लिखा है। आखिरी कवर पर बस परिचय भर है। तमाम साहित्यिक पत्रिकाओं में, अखबारों में इनकी कविताएं बीती सदी के सातवें दशक से छपती रही हैं। लेकिन कवि शायद संकोचवश किसी से इस बाबत दो शब्द लिखने को कह नहीं पाए होंगे। जाहिर है, पाठक को खुद ही अपनी राय कायम करनी होगी इन कविताओं और कवि के बारे में। `वह औरत नहीं महानद थी' (बोधि प्रकाशन) संग्रह के यह कवि हैं कौशल किशोर। दो खंडों में विभक्त यह संग्रह आधी आबादी को समर्पित है। लेकिन है तो इसमें पूरी आबादी के रंजो-गम को बयां करने वाली कविताएं। एक मुट्ठी रेत(खंड एक) की पहली कविता ही इसे साबित करती है और चौंकाती भी है।
कैसे कह दूं
मैं कैसे कह दूं
हरे-भरे पेड़ों के तने पर
कहीं नहीं मौजूद गोलियों के घाव
मैं कैसे कह दूं
चांद-तारे आज भी बिखेर रहे हैं रोशनी
आकाश में अंधेरा कहीं नहीं है...
  साठवें दशक के मध्य से ही कविता से दोस्ती बरत रहे कौशल जी साहित्यिक पत्रकारिता के साथ ही सामाजिक-सांस्कृतिक कार्यकर्ता की भूमिका में भी रहे हैं, सो मानवाधिकार, सांस्कृतिक परिदृश्य में हो रहे क्षरण की चिंता से वे आंख नहीं मूंद सकते थे। 1977 में लिखी इस कविता में भी इसकी झलक मिलती है।
कारखाने से लौटने पर, अंधेरे से प्रतिबद्ध ये लोग, इस वक्त के बाद , जागता शहर , लहरें, हमें बोनस दो , गौरैया आदि कविताएं मजदूर, किसान, साधारण लोगों की तकलीफों और उनके अधिकारों को स्वर देने वाली कविताएं हैं।
गौरैया कविता की ये पंक्तियां बतौर बानगी देखिए-
गौरैये की चहल
उसकी उछल-कूद और फुदकना
मालिक मकान की सुविधाओं में खलल है
मालिक मकान पिंजड़ों में बंद
चिड़ियों की तड़प देखने के शौकीन हैं
वे नहीं चाहते
उनके खूबसूरत कमरों में गौरये का जाल बिछे
वे नहीं चाहते
गौरैया उनकी स्वतंत्र जिंदगी में दखल दे
........

    विचित्र हो चली हमारी दुनिया की बानगी को कवि चिड़िया और आदमीःएक में इस तरह पेश करते हैं-
चिड़ियों को मारा गया
इसलिए कि
उनके पंखों के पास था विस्तृत आसमान
नीचे घूमती हुई पृथ्वी
और वे
इन सबको लांघ जाना चाहती थीं
आदमी को मारा गया
इसलिए कि
वे चिड़ियों की तरह उड़ना चाहते थे उन्मुक्त
.....
चिड़ियों के लिए
मौसम ने आंसू बहाए
आदमियों के लिए
आंसू बहाने वाले
गिरफ्तार कर लिए गए।
   हम जिस समय और समाज में पनाह ले रहे है उसकी विसंगति को तानाशाह शीर्षक से कुछ कविताओं के इस अंश के मार्फत देखिए-
 ...
हंसो
इसलिए कि
रो नहीं सकते इस देश में
हंसो
खिलखिला कर
अपनी पूरी शक्ति के साथ
इसलिए कि
तुम्हारे उदास होने से
उदास हो जाती हैं प्रधानमंत्री जी
(1981-83 के बीच में लिखी कविता)
    भूख और चूल्हे की कहानी अभी तक पुरानी नहीं पड़ी, विकास की डुगडुगी पर सवाल उठाती आग और अन्न कविता को पढ़ते हुए नागार्जुन की याद आ जाती है...कई दिनों के बाद...। कौशल किशोर की इन पंक्तियों को देखिए-
चूल्हा जल रहा है
.....................
चूल्हें में आग है
आग पर चढ़ा है पतीला
पतीले में पक रहा है अन्न
औरत पतीले का ढक्कन हटाती है
......
देखती है आग और अन्न का मिलन
......
अन्न का आग से
जब होता है ऐसा मिलन
सृजित होता है
जीवन का अजेय संगीत
भूख जैसा हिंस्र पशु भी
इसमें हो जाता है नख दंतविहीन।
   औरत और घर कविता में भी कुछ इसी तरह का भाव है। चूल्हे को जलाने-चलाने के गुर को सीखने-जानने में माहिर। इस खंड की कविताओं में असम आंदोलन की तकलीफदेह याद को ताजा करने वाली कविता असमःफरवरी 1983, बिहारी मजदूरों के संघर्ष और वेदना को उकेरने वाली कविता पंजाब और बिहारी भाई, तेल की लूट पर एक मुट्ठी रेत जैसी मार्मिक कविताओं के साथ ही कवि बेंजामिन मोलायस को फांसी दिए जाने पर भी एक कविता एक दिन आएगा...है।
   अनंत है यह यात्रा (खंड दो) में आमुख कविता समेत स्त्री विमर्श की कई कविताएं हैं। उसका हिंदुस्तान, मां का रोना, पुस्तक मेले से, उसकी जिंदगी में लोकतंत्र, दुनिया की सबसे सुंदर कविता, मलाला, धरती, स्त्री है वह आदि, जिनमें स्त्री की पीड़ा, हाहाकार, जिजीविषा, संघर्ष के स्वर मुखर हैं। जिंदगी की तपिश के साथ।
वह जुलूस के पीछे थी
उछलती फुदकती
दूर से बिल्कुल मेंढक सी नजर आ रही थी
पर वह मेंढक नहीं स्त्री थी
जुलूस में चलती हुई
नारे लगाती हुई
............
पहाड़ी नदियां उतर रही थीं
चट्टानों से टकराती
उछाल लेती
लहराती मचलती बलखाती
बढ़ती उसी की ओर
अब वह औरत नहीं महानद थी।
 इस कविता ने आठ मार्च 2010 को जन्म लिया था लखनऊ में हुई महिलाओं की हुई रैली में। जाहिर है कि यह कवि रैली, सभाओं, आंदोलनों में भी शिरकत करता रहा है। तभी नारी के इस रूप से भी वाकिफ हो पाता है। औरतों के एक दूसरे रूप से भी परिचित है यह कवि, तभी उसका हिंदुस्तान कविता में ये पंक्तियां लिख पाता है-
एक औरत सड़क किनारे बैठी
पत्थर तोड़ती है...
एक...सड़क पर सरपट दौड़ती है
एक औरत के दोनों हाथ मिट्टी में सने हैं
एक...उसकी दुनियां से बेखबर...
दुनिया की सबसे सुंदर कविता में कवि स्त्री को ही यह मान देता है।
....जब गिरता हूं
वह संभालती है
जब भी बिखरता हूं
वह बंटोरती है
तिनका तिनका जोड़
.....उसका सौंदर्य मेरे लिए
गहन अनुभूति है
लिखी जा सकती है उससे
दुनिया की सबसे सुंदर कविता।
स्त्री है वह की ये पंक्तियां भी कम मोहक नहीं-
......फिक्र नहीं कोई
पास जो है उसके
सब लुट जाए
बस, चित्तभूमि तर हो जाए
धरती पर बहार आए
ऐसी है वह
स्त्री है वह।
   इसी तरह की तमाम कविताएं हैं इस संग्रह में, जिनमें शहर(लखनऊ), समय, समाज , संबंध के टूटने, बिखरने, क्षरण के साथ ही साधारणजनों के संघर्ष और जिजीविषा को उम्मीद की नजर से देखने का नजरिया भी है। कौशल जी के इस संग्रह को स्वागत किया जाना चाहिए।
शैलेंद्र शांत