मंगलवार, 31 अक्तूबर 2017

तनाव की भट्ठी




तनाव की भट्ठी
शैलेंद्र शांत
बात तो एक छोटे और सस्ते मकान में शिफ्ट होने की थी। भले ही वह एक कमरे का ही क्यों न हो। क्योंकि एक अकेले आदमी के लिए अधिक किराये के मकान की क्या जरूरत। इसलिए छोटे मकान की तलाश जारी थी । इस बाबत परिचितों से मदद की अपेक्षा लाजिमी थी। कुछ परिचित इस कोशिश में लगे थे और कुछ ने इस दिशा में पहल करने का भरोसा भी दिया था। उनमें से एक मैं भी था। 
बहुत पांव घिसाई और झंझटों के बाद दोनों बेटियों की शादी से वे निपट चुके थे। पुत्र जी का भी हाल ही में विवाह हो गया था। जीवन संगनी कुछ साल पहले ही साथ छोड़ कर जा चुकी थीं। बेटियां ससुराल में और पुत्र जी दूसरे शहर में। नौकरी ले गई थी उसे उस शहर में । पुत्र चाहते थे कि पिताश्री साथ में ही रहें। कई परिचितों - रिश्तेदारों की भी यही राय थी। पर वर्मा जी अपने शहर में ही बने रहना चाहते थे। उस इलाके के आसपास जहां उनके 40 साल गुजरे थे। वह एक निजी संस्थान की नौकरी से अवकाश प्राप्त कर चुके थे । संस्थान के क्वाटर के छूटने के बाद किराये के मकान में रहते थे। पत्नी के नहीं रहने और बच्चों की दुनिया बस जाने के बाद अब वह बड़ा और महंगा लगने लगा था। वे शाम को होम्योपैथी की डिस्पेंसरी चलाते थे। थोड़े सामाजिक जीव भी थे। मौके-बेमौके जरूरतमंदों के काम आने वाले। जाहिरा तौर पर स्वाभिमानी भी। सत्तर के करीब पहुंच चुके थे वे, लेकिन लगते नहीं थे। हमेशा उत्साह से भरे रहते थे वर्मा जी। वे अपने लिए खाना बना लेते थे। कपड़े साफ कर लेते थे। यानी पूरी तरह से स्वावलंबी। हालांकि हाल में ही उनको पेसमेकर लगाना पड़ा था। लेकिन हाल तक पूरी तरह स्वस्थ। 
उस दिन वह अपने एक रिश्तेदार के घर पर थे। वहीं इस बात पर बहस छिड़ गई थी कि इस ढलती उम्र में उन्हें अपने पुत्र के साथ ही रहना चाहिए। जाने कब स्वास्थगत परेशानी बढ़ जाए। ऐसे में किसी सगे का पास होना जरूरी है। सो उन्हें अब आराम करना चाहिए। रिश्तेदार के पड़ोसी की इस राय से शायद वह व्यथित थे। उनके चेहरे पर खिंची रेखाएं इसकी गवाह थीं। लेकिन वह उनकी राय पर हंस भर रहे थे। मैं वहां मौजूद था। मुझे यह अच्छा नहीं लग रहा था। मुझे बोलना पड़ा कि वर्मा जी स्वस्थ हैं। अपनी डिस्पेंसरी चलाते रहना चाहते हैं। जिस समाज, माहौल, इलाके से उनका सालों का साथ बना रहा है, उसे वे छोड़ना नहीं चाहते। तो उन पर दूसरे शहर में बेटे के पास चले जाने का सलाह नहीं दी जानी चाहिए। बच्चे उनसे आकर मिल लिया करेंगे। अब शहरों की दूरी उतनी रही भी नहीं। दरअसल, बातचीत का लहजा कुछ ऐसा था, जिससे उसमें दबाव का भाव झलकता था। इस तरह का मनोवैज्ञानिक दबाव उचित नहीं था। 
वैसे भी इन दिनों यह बात आम हो चली है कि बच्चे दूसरे शहरों में नौकरी करते हैं और माता-पिता अपने शहर वाले घर में। कोलकाता में या दूसरे महानगरों में भी बहुत से बुजुर्ग अकेले रहते हैं। बुजुर्ग महिलाएं तक रहती हैं परिचारिकाओं के सहारे। मेरी एक पड़ोसन इसकी साक्षात उदाहरण हैं। उनकी बहू शहर के दूसरे छोर पर फ्लैट लेकर रहती हैं। नौकरीशुदा बहू को वहां से दफ्तर आने-जाने में सुविधा है। जाहिर है, पुत्र भी साथ में रहते हैं। पति दिवंगत हो चुके हैं। वे बीच-बीच में उनसे मिलने आते रहते हैं। ऐसे उदाहरण अब कम नहीं। पेंशन या घर के किराये से या बैंकों में जमा पैसों पर मिलने वाले सूद के सहारे जीवन की गाड़ी खींचती रहती है। लायक बच्चों से भी आर्थिक मदद मिलती ही है। इसके पीछे घर, शहर, इलाके के मोह के साथ ही अपनी तरह से रहने की आजादी की चाह भी होती है। हकीकत तो यह है कि एक ही शहर में नौकरी या व्यवसाय के कारण बच्चे-बहुएं अलग-अलग छोर पर रहने के लिए मजबूर हैं। कुछ स्वतंत्र रूप से रहने के इरादे से भी। 
वर्मा जी की भी शायद यही चाह थी। वह स्वावलंबी भी थे। डिस्पेंसरी से इतनी आय हो जाती थी, जिससे उनका खर्चा निकल जाए। पुराने किराए के मकान को छोड़ अपनी डिस्पेंसरी के आसपास मकान तलाशने की कोशिश उनकी जिजीविषा का ही संकेत था। इसे मान दिया जाना ही अपेक्षित था। सो मैंने भी उनके लिए सस्ता और छोटा मकान लताशने की कोशिश शुरू कर दी थी। दो-एक परिचितों से इस बाबत चर्चा भी की थी। लेकिन इस कोशिश पर विराम लग गया। कोई हफ्ता ही गुजरा होगा कि उनके रिश्तेदार का फोन आया कि वर्मा जी नहीं रहे। दो दिन पहले ही ब्रेन स्ट्रोक के कारण उनका निधन हो गया। हड़बड़ी और घबराहट में वह उस दिन मुझे खबर नहीं कर पाए। पटना से पुत्र जी आ गए थे। यह रिश्तेदार उनके समधी हैं। वर्मा जी की बड़ी बेटी इन्हीं के बेटे से ब्याही गई है। एक बेटी दूसरे शहर में। बेटी भी सगी ही होती ही न। वर्मा जी को शायद इन सगों के सहारे पर कहीं ज्यादा भरोसा रहा होगा। इस शहर और यहां बनाए अपने समाज पर भी। वैसे भरोसा तो जिंदगी पर भी उन्हें कम नहीं था। लेकिन कथित अपनों-परिचितों के दयाभाव वाली चिंताओं - सलाह से वे व्यथित जरूर होते होंगे। कहीं इस दयाभाव ने ही तो नहीं न बुझने वाली तनाव की भट्टी में झोंक दिया, न जाने क्यों मेरे मन में यह सवाल उठ रहा है वर्मा बाबू को याद करते वक्त।

बुधवार, 28 जून 2017

कवि के साथ


कवि के साथ
हाल के दिनों तक बंगाल में इस बात की कल्पना नहीं की जा सकती थी कि कविता लिखने पर किसी कवि को मुकदमे में फंसाया जा सकता है। धमकियों या आपत्तियों की बात दिगर है। लेकिन जो संभव नहीं था या जिसकी कल्पना नहीं की जा सकती थी, वह अब होने लगा है।  एक कवि को कविता लिखने के अपराध में न केवल धमकियां मिलीं , उसके खिलाफ मुकदमा भी दायर किया गया। लेकिन संतोष की बात यह है कि समाज में आजाद कलम के पक्ष में खड़े होने वालों की भी कमी नहीं । यह भरोसे की बात समाचार चैनलों, अखबारों और सोशल मीडिया पर दिखी है। पिछले शनिवार को तो कोलकाता की सड़कें भी इसकी गवाह बनीं। बंगला कवि श्रीजात बनर्जी के बहाने कविता के हक में, यूं कहें कि अभिव्यक्ति की आजादी के हक में सड़क पर उतर आए कवि, लेखक, कलाकार, बुद्धिजीवी। कालेज स्क्वायर से धर्मतला के वाई चैनल तक निकाले गए उस जुलूस में देश में बढ़ती धार्मिक कट्टरता के खिलाफ नारे लगाए गए और कवि पर धार्मिक भावना पर चोट करने के गैर जमानती मामले को वापस लेने की मांग की गई। इस जुलूस में मंदाक्रांता सेन,अंशुमान कर, श्यामलकांति दास, शंकर चक्रवर्ती,रोशानारा मिश्र, किन्नर राय,समीर आईच, सनातन दिंदा, अरूणाभ गांगुली,सारण दत्त,इमानुल हक आदि शामिल हुए। इसमें अम्बिकेश महापात्र भी थे, जिन्हें कार्टून बनाने के अपराध में जेल जाना पड़ा था।जिसकी वजह से ममता सरकार की हर तरफ निंदा हुई थी। बाद में वे बेगुनाह करार दिए गए और उनकी मानहानि के एवज में ममता सरकार को जुर्माना भी अदा करना पड़ा था। लेकिन इस बार ममता जी भी कवि के पास खड़ी हैं। उनके परिवारजन की सुरक्षा के मद्देनजर एक सुरक्षा कर्मी को तैनात किया गया है।
जिस कविता को लेकर विवाद पैदा हुआ उसे 19 मार्च को श्रीजात ने फेसबुक पर पोस्ट किया था। दो दिन बाद विश्व कविता दिवस के दिन उन्हें पता चला कि उनकी कविता से हिंदू संगठन से जुड़े  एक शख्स की धार्मिक भावना को ठेस पहुंची है। इसलिए सिलीगुड़ी के उस नौजवान ने उनके खिलाफ  मुकदमा दर्ज कराया है । श्रीजात बनर्जी ने अपनी कविता में कब्र से निकाल कर बलात्कार करने की मानसिकता पर चोट की है । फेसबुक पर बारह पंक्ति की इस कविता को हजारों लोगों ने पसंद किया, प्रशंसा की तो बहुत सारे लोगों ने इसकी निंदा की और अश्लील टिपण्णियों के साथ कवि को धमकियां भी दी। बाद में विवाद को बढ़ते देख फेसबुक ने उस कविता को हटा दिया । इसको लेकर कुछ सज्जनों को आपत्ति थी। ये सज्जन लगातार उसे शिकायत पहुंचा रहे थे कि उस कविता से उनकी धार्मिक भावना को चोट पहुंची है, सो उसने अभिशाप शीर्षक वाली कविता को हटा दिया।
दिलचस्प इस तथ्य को जानना है कि जिस कविता पर  घमासान के मंजर सामने आए, उसे 19.03.2017 के सुबह 08.25 बजे तक 18 हजार से ज्यादा लोगों ने पसंद किया । 4622 लोगों ने साझा किया  और पक्ष-विपक्ष में हजारों लोगों ने टिप्पणियां की है। दरअसल, नाराज लोगों को कब्र से बाहर निकाल कर बलात्कार करने की मानसिकता पर सवाल उठाती इस कविता के आखिरी दो पंक्तियों से धर्म खतरे में पड़ता नजर आने लगा। इससे  उनकी धार्मिक भावनाओं को चोट पहुंची। यह संभव है। लेकिन इस पर बहस या  महज आपत्ति जताना पर्याप्त नहीं लगा। धमकियां भी काफी नहीं लगी। सो मुकदमा भी दायर कर दिया गया। श्रीजात को इससे पहले भी बांग्लादेश के ब्लागरों की हत्या के बहाने बढ़ती इस्लामी कट्टरता के खिलाफ कविता लिखने पर धमकियां मिल चुकी हैं। लेकिन इस बार मुकदमे का सामना करना पड़ा। बनर्जी की कविता से नाराज इन काव्य मर्मज्ञों को बारह लाइन वाली कविता के मूल स्वर से भी शायद दिक्कत हो, लेकिन इस पद पर ज्यादा गुस्सा है-
आमाके घर्षन कोरबे जदिन कबर थेके तुले
कंडोम पोराने थाकबे, तुमार उई धर्मेर त्रिशूले
 यानी कब्र से निकाल कर जितने दिन मेरा बलात्कार करना अपने धर्म रूपी त्रिशूल को कंडोम पहनाए रखना।
गौरतलब है कि योगी आदित्यनाथ की मौजूदगी में हुई एक सभा में एक वक्ता अपने जोशीले भाषण में महिलाओं को कब्र से निकाल कर बलात्कार करने की बात करता है। इस भाषण का वीडियो सोशल मीडिया में वायरल है। इसी मानसिकता के खिलाफ यह कविता है। जाहिर है कि शर्मनाक और निंदनीय उस  इरादे से बड़ा गुनाह हो गया काव्यात्मक भाषा में कंडोम-त्रिशूल का इस्तमाल करना।
हालांकि, यह संभव है कि कवि की इस भाषा से हम सहमत न हो, पर इसी आधार पर किसी रचनाकार को मुकदमें में घसीटा जाना चाहिए। धमकियों की बौछार शुरू कर देना चाहिए बहस की कोई गुंजाइश ही नहीं छोड़नी चाहिए। यह सोच लिखने-पढ़ने-बोलने की आजादी के रास्ते में बड़ा रोड़ा से कम नहीं। और कोलकाता या बंगाल को इस तरह की बंदिशें मंजूर नहीं। महज 42 साल के इस कवि के हिस्से कविता की दो दर्जन से अधिक किताबें हैं,कई संपादित किताबें हैं। सम्मानित आनंद पुरस्कार है, एक गीत के लिए हासिल फिल्म फेयर पुरस्कार है। भारी संख्या में पाठक हैं। सोशल मीडिया पर भी से जबरदस्त उपस्थिति है।  इनकी किसी भी पोस्ट पर औसतन चार हजार की पसंद, औसतन चार सौ का साझाकरण और टिप्पणियां भी सैकड़ों-हजारों में मिलती रही है। जाहिर है कि कविता अनुरागी समाज इस विवाद से दुखी और चिंतित है।  

शुक्रवार, 20 जनवरी 2017

jin mitron ko sangrah nahin bhej paya, unake liye-bhag do

36


सांझ को उतरना है
.........................
सांझ को उतरना है
उतरना है उसे
आसमान से
पर्वतों से
उतरना है उसे
ऊंचे-ऊंचे दरख्तों से
बहुमंजिली इमारतों से
भींगते हुए
कंपकंपाते हुए
धूल उड़ाते मौसम में
लतरों से
उतरना है उसे
कभी जल्दी
कभी देर से
रात को गले लगाने का वादा
निभाना है उसे...

37.
कबूल
........
शाख से टूटे हुए गुल
कर लो इस बात को कबूल
कि रूप पर अपनी
तुमको था बहुत गरूर।

38.
तकलीफ होती है
.......................
तुम कहो तो छोड़ दूं
ऊंची उड़ान भरना
भटकना अनंत आसमान में
फुदक लिया करूं आसपास
जितना भी मिल जाए
धरती-आकाश
मान लूं प्रारब्ध
पर मेरे डैने न तोड़ना
जब कभी करते हो
उन्हें ऐंठने की कोशिश
तकलीफ होती है
तुम कहो तो
रातें गुजार दूं
जाग-जाग कर
भूले से न देखूं कोई सपना
पर सुबह के सूरज को
देखने के साथ-साथ
पंख फड़फड़ा लेने की
इजाजत चाहूंगा जरूर
जितना भी चुग लूं
दाना-तिनका
जी लूंगा
जागते हुए भी न देखूंगा कोई सपना
इसका यकीन दिलाता हूं तुम्हें
सपने टूटने से
बड़ी तकलीफ होती है।

39.
कमाल
..........
कितना भरा-पूरा
गझिन-गझिन
हरीतिमा सुशोभित माथा
उस पर खिलते
झूम-झूम मिलते
हल्के-पीले
सादा-शर्मिले
महकते मह-मह मोजर
खुशबू तोड़ती सारे बंधन
चहकते पंछी चह-चह
कुकती कोयल कु-हू-कु
खूब-खूब खिला पलाश
टह-टह लाल
मतवाला हुआ महुए का मन
फुदकते बुलबुल-मैने
सब के सब
करकश काक भी लगे प्यारा
कभी इस टहनी
कभी उस डाल
करता धमाल
पुलकित रोम-रोम सबका
वसंत का देखो यह कमाल।

40.
ग्रास
......
डुबकी लगाओ तल में
फिर लौट आओ सतह पर
सीखो करतब नए-नए
करो भरोसा गति पर अपनी
बस यहीं बची है आस
छोटी मछली-छोटी मछली
वरना बन सकती हो ग्रास
कभी भी, बड़ी की।

41.
जोर
......
देखो तो
किस तरह मचाता था शोर
बन गया मुंहचोर
कैसे
बेजुबान न बनिए
मान लीजिए, मान लीजिए
खन-खन खनकते सिक्के का
है बड़ा जोर।

42.
सस्ता
........
डीजल महंगा
बिजली महंगी
महंगा खाद और पानी
महंगे बीज, कीटनाशक
सस्ता बस खून-पसीना
जो खेतों में बहता है।

43.
जुराब मुंह पर..
बंधु, सुनते हैं इन दिनों
पागलखाने में भी
पड़ने लगी जगह की कमी है
जैसे कि दिलों में
वैसे, इस धरा पर
मौजूद है अब भी
इफरात जगह
कानून की किताबों में
धाराएं बहुत-बहुत सी
और लोकतांत्रिक बंदूकों में
बेशुमार गोलियां
ईंट-पत्थरों की कमी तो
वैसे भी नहीं रही अपने सभ्य समाज में
अपने दिमाग को मत करना खराब
देखते रहना धत्त-कर्मों को चुपचाप
या फिर मुंह फेर लेना
और हां डाले रखना मुंह पर जुराब।

44.
अनमोल
............
देखा अल सुबह जो सपना
बताया हर्षित
हमदम ने कहा-मिलेगा धन
मिलता है धन-कहते तो यही हैं
सपने में देखा जो मल-वल
धन तो नहीं मिला
नहीं थी इसकी कोई संभावना
पर आ टपकी
एक-दो कविता
झोली में मेरी
अरे वाह
यह धन ही तो है-
अनमोल।

45.
न जाने क्यों
...............
कह कर कुछ
विचार करने को जी चाहता है
कुछ कह लेने के बाद
न जाने क्यों
लिख कर कुछ
काट देने को जी चाहता है
बार-बार
पढ़ कर
भुला देने को जी चाहता है
अक्सर
न जाने क्यों।

46.
जीवनगाथा
..............
इस कथा में समाहित है
अनगिनत कहानियां
उपकथाए-
घृणा की, प्रेम की
सुख-दुख की अनंत
कोई भी थक जाए
कोई ना पार पाए
इसे सुनाते हुए
सीख-सबक
हर-एक में प्रविष्ट
कहीं से शुरू करें
किसी की भी बांच लें।

47.
कथोपकथन
................
दो टके की तो छोड़िए
छिटांक भर की भी औकात
नहीं बन पाई है आपकी
एक ने दूसरे से कहा
यह दीगर है बात
कि आपने मालें खूब उड़ाई है
पहले ने भी मुनासिब नहीं समझा
चुप रहना
अपने शिखर परिंदों के
कथोपकथन को सुन रहे थे
चूजे चुपचाप
चकित-चकित।

48.
गरीबी
..........
एक से लिखो
दूसरे से मिटा दो
फिर लिखो
फिर मिटाओ
खेलो यह खेल
चाहे जितनी बार
तुम खेल सकते हो
बेरोक-टोक मनपसंद
यह खेल
तुमसे भला कौन
छीन सकता है
वह पेंसिल
वह रबर।

49.
सफाई की तमीज
निचोड़ने से पहले
भिंगो कर रखते तो
गुनगुने पानी में
थोड़ी देर
सर्फ-साबुन को करने देते
उनका काम
धोबिया पाट भी
भला इस कदर क्या देना
कि किसी जिस्म के काम ही न आ सके कमीज
मुफ्त की सलाह आपको
जाकर सीखिए किसी गृहणी से
सफाई की तमीज।

50.
बदस्तूर
जमात में
शामिल थे जब तक
जमे थे अंगद के पांव की तरह
विमुग्ध इस कदर
कि हंसे जा रहे ते
गदहे की हंसी
ताल ठोंकते ऐसे
कि जीत ली हो कोई बड़ी जंग
हालांकि सोहरत में उनकी
शामिल थीं जो कथाएं
उनमें तोड़फोड़, हुढ़दंगई का
एक लंबा सिलसिला था
जो कभी थमा ही नहीं।
51.
उद्गार
थोड़ा खाते हैं
थोड़ा ही पीते हैं
ताल नहीं ठोकते
मर्जी से अपनी
मगर जीते हैं
हम आपके ही आंगन के
हरे-हरे पपीते हैं।

52.
चकाचौंध का अंधेरा
..........................
चकाचौंध का एक अंधेरा है
गहरा, बहुत गहरा
गहन, घनघोर
वहां कभी नहीं होती भोर
जो छूट जाते हैं
सो छूट जाते हैं
वहां तक न नरेगा पहुंचता है
न अंत्योदय जैसी कोई
लोक-हितकारी योजना
चकाचौंध के नशे की खुमारी
टूटती है बहुत देर से
तब तक आसमान
आ चुका होता है
अमावस की चपेट में
पृथ्वी को ही
भुगतनी होती है सारी पीड़ा
यानी कि उसके वाशिंदों के मार्फत
जिन्हें होता है इंतजार
पूर्णिमा का
पर आमावस की रातें
होती हैं बड़ी लंबी
जिसमें दम घुट जाता है
बहुत-बहुत ताकतवर लोगों के भी
चकाचौंध के अंधेरे की
कोई भोर नहीं होती।

53.
सहारा
..........
छत पर चला गया था
घबरा कर
बिजली गुम गई थी
जाने कब आती
आसमान में भी छाई थी
डरावनी शक्ल के साथ कालिमा
हालांकि तारे टिमटिमा रहे थे-
जरूर
तभी देखा टूट कर गिरते
कई तारों को-
बहुत दूर
जहां भी गिरे होंगे
बेचारे
धरती ने उन्हें
निश्चित ही दिया होगा
आंचल का सहारा
टूटते सपनों को
यह भी नहीं नसीब।

54.
गांधी के बंदर
...................
जो देख सकते हैं
देखना नहीं चाहते
जो बोल सकते हैं
बोलना नहीं चाहते
जो सुन सकते हैं
सुनना नहीं चाहते
बहुत समझदार हो गए हैं
गांधी जी के बंदरों।

55.
तब
......
इत्यादि-इत्यादि
जब खास हो जाते हैं
उनकी नजर में भी
तब सबकुछ बकवास हो जाता है।

56.
कला
.......
थोड़ी आनी चाहिए
न आती हो तो सिखनी चाहिए
कलावादी होती जा रही दुनिया में
रंग भरने की
छंदों से खेलने की
सुर और ताल
संवाद संप्रेषण की
कैमरे को मूव करने की
रस-छंद-भाव की...
नहीं-नहीं
मैं इन कलाओं की बात नहीं कर रहा।

57.
गुनाह
.........
काम उनके किसी
आ न सके
यह था एक गुनाह
कि सर को पावों तक
ले जा न सके
कि दिन को रात बता न सके
सूखे को कादा कैसे कहता
जाने भी दीजिए
कितनी लंबी फेहरिस्त पेश करूं
गुनाहों की
बस, अफसोस इस बात का
कि खुद को लट्टू बना न सके।

58.
अब देर न कर
...................
कहां छुप गया रे सूरज
निकल कोहरे को भेद
तन-मन को किए जा रहे हैं अचल
बहा जा रहा है पवन विकल
शीतदंश के मारे
ठिठुरे जा रहे हैं बेचारे
अनगिनत, करते मिन्नत
निकल चुपके से ही
बादलों की ओट से
अब तो निकल
त्रस्त हैं जो व्यवस्था की खोट से
दे-दे उनको अपनी झलक
जरूरत उनको कुछ ज्यादा
तेरी अनुकंपा की
बनी हुई है आशा
अब तक न ढेर हुई
अब देर न कर
निकल, दिखा अपना मुखड़ा।
59.
कि होती है कोई और बात
...................................
शिखर की होती है कोई धुरी
होनी चाहिए उसकी कोई धुरी
नजर आता है इन दिनों कोई शिखर
हिमालय की तरह ऊंचा किए माथा
चलिए यह पता किया जाए
कि शिखर जब अपनी धुरी से छिटकता है
तो क्या वह नतीजे से वाकिफ होता है
शिखर जब बहकता है
तब क्या वह शराबियों का सा
करने लगता है आचरण
या लगता है भौंकने
आवारा चौपाए की तरह
काट खाने का कर लेता है इरादा
या कर लेना चाहता है इससे भी कुछ ज्यादा
अच्छा, धुरी से छिटकना
कैसे बन जाती है उसकी मजबूरी
क्या उसे सताने लगता है डर
शिखर से उतर जाने का
कि होती है कोई और बात।
60.
बिटिया ने डांटा
....................
ओह
दाल में इतनी सारी हल्दी
क्यों डाली
नमक भी क्या
डाला है ज्यादा
ओह
इतने सारे आलू-प्याज
क्यों काटे
किसने कहा था सानो
कर दिया न गीला आटा
मम्मी नहीं तो क्या हुआ
मैं तो थी घर में
बच्चों की सी हरकत
क्यों करते हो पापा
बिटिया ने डांटा।

61.
तिनका
........
कैसे बने सहारा
किसी का
कोई डूबता हो
चाहे उतराता
क्यों गढ़ी
किसने गढ़ी
यह कहावत
उसके नाम
उकसी समझ में नहीं आता।

62.
पुनर्नवा
..........
सुलगी तो धुआं-धुआं
दहकी तो आग-आग
पड़ी ठंडी तो राख-राख
लकड़ी ने साथ निभाया
पतंगों को भगाया
व्यंजनों को पकाया
बर्तनों को चमकाया
घूरे से पहुंती जब खेतों में
घुल-मिल गई माटी से
पा लेती है एक नई शक्ल
माटी से।

63.
धारक
........
लूट भरी जेबों से
रक्त सने हाथों से
सम्मानित होना
कितना है सम्मानजनक
कितना मारक
कोई और क्यों
कोई गैर क्यों
खुद ही विचार करे धारक!

64.
बनिस्बत
............
बहुत लिखे
कम लिखे
खुशी लिखे
गम लिखे
लिखे थोड़ा सच
थोड़ा गपशप लिखे
कलम जो भी लिखे, अच्छा
चुपचुप रहने से बहुत अच्छा।
65.
काम की चीज
....................
कविता के सागर में डुबकी लगाओ
तो डूबने सा लगता है बहुत कुछ
जैसे कि निराशा
जैसे कि संताप
जैसे कि लोभ-कामनाएं
तरह-तरह की वासनाएं
शमन करती जाती है बड़े प्यार से
हौले-हौले
कविता होती है बड़े काम की चीज।
66.
गिरे भी तो
..............
जो गिर चुके हैं
बहुत-बहुत नीचे
उन्हें कोई और क्या गिराएगा
वे आसमान से गिरे
कि छत से
कि खजूर से
क्या फर्क पड़ता है
हकीकत तो यही
कि वे गिर चुके हैं
गिरे भी तो
नाले में
कुएं में
दलदल में
पास ही में
बह रही थी नदी
वे उसमें नहीं गिरे
उनको बहुत कुछ पाना था
और जल्दी-जल्दी।
67.
आजादी
...........
थोड़े से आबाद हुए
बहुत सारे बरबाद
आजादी जिंदाबाद।
68
आत्मकथा
(कवयित्री सुकीर्ति गुप्ता के स्मरण में)
..............
यह चाहना भी
कोई चाहना हुआ
पर उसने यही चाहा
चाहने वाले तो
बहुत कुछ चाहते हैं
जैसे कि घरबारी
पर्याप्त धन
कि जैसे पूंजीपति
एक और कारखाना
कि जैसे नेता
मंत्री की कुर्सी
कि जैसे पत्रकार
संपादक का ओहदा
कि जैसे संपादक
राज्यसभा की सदस्यता
कि जैसे कलाकार
तालियों की गूंज
कि जैसे.....
पर वह चाहता था
कि छप जाए वह किताब
जिसमें लिखा था उसने
जिंदगी का हिसाब-किताब
बताना चाहता था
कुछ राज की बातें
खोलना चाहता था कुछ भेद
हालांकि जानने वाले
जान चुके थे
बहुत सारी बातें
जो उसे भी नहीं पता था
उसने सौंप दी थी पांडुलिपि
उत्साही प्रकाशक को
और खुद चला गया था बहुत दूर...
69.
गुमसुम बैठे थे बातुनी
............................
चुभती हुई सी
कोई बात थी
और पसरा हुआ था-
सन्नाटा
दूर-दूर तलक
फलक पर
बेशुमार परिंदे थे
पर उनके पंखों की फड़फड़ाहट
कहीं गुम थी
हंस-खिलखिला रहे थे
मंद-मंद मुस्करा रहे थे
जंतु कुछ खास-खास
गुमसुम-गुमसुम
बैठे थे बातुनी।
70.
उसके सीने पर सवार थी इमारत
............................................
मछलियां बार-बार
ऊपर आ जाती थीं
और पलट कर
गोताखोर बन जाती थीं
इस छोर, उस छोर
कुछ लोग उन्हें फंसाने की फिराक में
बैठे थे बंसी डाले
और उधर उस छोर पर
बैठे थे कुछ जोड़े
अपनी सुध खोए
और उस ओर बर्तन साफ कर रही थीं
कुछ औरतें, उन्हें ताकती-मुस्करातीं
कुछ बच्चे सीख रहे थे तैरना
और कुछ बड़ी होतीं बच्चियां
छीटें मार रही थीं एक-दूसरे पर
तभी अचानक दृश्य से गायब हो गए थे सब के सब
लाल हो चुका था तालाब का पानी
कुछ लाशें भी दिखी थीं तैरती हुईं
लाशें दिखीं तो बंदूकें चलने की
आवाजें गूंजने लगी थीं कानों में
(यह सत्तर के दशक के न्याय की इबारत थी)
वह तीसरी मंजिल के एक दड़बे में सो रहा था
सोते से हड़बड़ा कर उठा तो पाया
कि वहां न मछलियां थीं
न बंसी वाले
न जोड़े, न औरतें, न बच्चे
न बड़ी होतीं बच्चियां
वह तालाब भी नहीं था वहां
वह तो भेंट चढ़ चुका था
विकास की वेदी पर
उसके सीने पर सवार थी तीन मंजिली इमारत
जिसमें सो रहे थे लोग गहरी नींद
वह जो जागा था अभी-अभी
लाशों को देख घबरा गया था बुरी तरह!
71.
गेहूं के दाने
कितने कतरे खून के सूखे
कितना बहा पसीना
कितनों के घर कर्ज में डूबे
कितनों को परिजन पड़े गंवाने

वे क्या जाने
वे क्या जाने
कुछ बेदर्दी ले गए औने-पौने में
भरने अपने खजाने
कुछ ले गए गोदामों उन्हें सड़ाने
मंत्री-अफसर और क्या करते
देते रहे सफाई
बनाते रहे बहाने
इस मंजर को देख
तड़पे दिल उनका
जिनको पड़े उगाने
गेहूं के दाने।
72.
संदिग्ध
काटिए दांतों से
चाहे जीभ पर रखिए
तनिक सा, सिलवट पर पिसी
उस चीज को
जिह्वा तालू  से टकराएगी
और मुंह से निकलेगी
टक-टक की आवाज
खट्टा-छट्टा ही होगा
उसका स्वाद
डिब्बे से निकाल कर
पानी में घोला गया जिसे
मधु-मधु ही होगा
बेशक-बेशक
थोड़ा कम या थोड़ा ज्यादा
उसका स्वाद
छोटी हो चाहे बड़ी
हरा हो चाहे हो रंग उसका लाल
दिखाती है एक सा ही कमाल
तीखा तीखा तीखा
आंखों से टपक पड़ता है पानी
तलब भी पैदा कर देती है उसकी
यही तो है उसकी रंगत, उसका स्वाद
और आपका
73.
उसका आना
चुपके से आती है
अचानक चली आती है
बगैर पूछे, बगैर बताए
कई-कई बांधों को तोड़
वक्त-बेवक्त ले जाती है
अपने साथ भींचे
कभी ट्रेन से फेंक देती है बाहर
कभी खींच लेती है पटरियों के नीचे
पांव खुद-ब-खुद फिसल जाते हैं
पर्वत चढ़ते हुए
फंदे से लटका देती है
तो कभी किरासन छिड़क देती है देह पर
न जाने कितने बहाने बना लेती है
गढ़ लेती है न जाने कितनी कहानियां
जहर भी भला कोई
खाने-पीने की चीज होती है
पर उतार देती है एक झटके से
हलक के नीचे
जर-जोरू-जमीन के मोह-माया से
बिलगा कर उनकी काया से
ले जाती है अपने साथ
पैदल-पैदल न जाने कहां।
74.
खुशनसीबी
..............
वह महफिलों, जलसों, सेमिनारों से अलग
एक दुनिया थी
वहां छोटी-छोटी बातें थीं
छोटी-छोटी कथा-कहानियां थीं
बेहद सहज, सरल लोगों की दुनिया में थे
छोटे-छोटे सुख-दुख
वासनाएं भी थीं छोटी-छोटी
मेरी खुशनसीबी
कि मैं घिरा था
उस दुनिया के
सीधे-जटिल
बाशिंदों से
मेरी खुशनसीबी
कि मेरी आवाजाही
बराबर बनी रही
उस दुनिया में
वह एक अलक्षित दुनिया थी
वह एक समांतर दुनिया थी
यह कुबेरों और उनके चाकरों से
लगभग खाली-खाली एक दुनिया थी
उसी ने हाथ थामा
उसी ने दिया पानी
लड़खड़ाई जब गिरहस्ती
सूखे जब कंठ
संवेदनाओं के ठेकेदार
वहां दूर-दूर तक नहीं दिखे।

75.
थमे की कोईगति नहीं
तुम चलोगे तो
पांवों से चिपकेंगे धूल
कीचड़ भी चिपक सकते हैं
यदा-कदा
ठोकर लग सकती है
हो सकते हैं लहूलुहान
तुम्हारे पांव
तुम चलोगे तो
यह सब होगा
कुछ न कुछ तो होगा
हो सकता है
कि डंडे भी पडें
तुम्हारे पांवों पर
और जकड़ दिए जाएं
जंजीरों में
पर तुम्हें चलना होगा
थमे की कोई गति नहीं।
76.
नियोजन
हम तो लड़खड़ाते रहे
गिरते-पड़ते रहे
संभलने की हर कोशिश के बावजूद
हम भरे-पूरे कुनबे से ऊबे तो कहा-
ठीक है,मान लेते हैं-
बस दो या तीन बच्चे
होते हैं घर में अच्छे
पर हमसे कहा गया
कि बात बन नहीं रही
मुसीबतें कम नहीं रहीं
सो थोड़ा और सुधर जाएं हम
बन जाएं थोड़ा और जिम्मेदार
हमने कहा-ठीक है सरकार
यह भी लेते हैं मान
कि अगला अभी नहीं
दो के बाद कभी नहीं
इतने पर भी बात बनी नहीं तो
लिया हमारे आत्मजनों ने मान
कि अगला बच्चा अभी नही
एक के बाद कभी नहीं
फिर भी तो मुसीबत कमी नहीं
महंगाई सुरसा थमी नहीं।
अब कौन सा करें उपचार
कौन सा नियोजन!

77.
उनको कहां पता था
गर्वित थे
सीख कर हुनर
डूब-डूब कर
खूब-खूब
करते हुए भरोसा

हाथों के हुनर से
नहीं बढ़ता है देश आगे
पीछे छूट जाता है
उनको कहां पता था
कि जब आता है विकास
तो बदल जाता है मतलब
हास-परिहास का
उनको कहां पता था
हास को हंस के पंख लग जाते हैं
हाथ पर धरे हाथ
बैठे तकते हैं
सुनी आंखों से आकाश
हुनरमंद हाथ
और उनकी तरफ
ईश्वर भी नहीं देखता
पलट कर
उनको कहां पता था।
78.
इतने तो
...........
इतने तो अविश्वसनीय
न हुए थे कभी
अर्थहीन न हुए थे
न हुए थे कभी
इतने बेअसर
बुजदिल न हुए थे
बेअसर-बीमार न हुए थे
न हुए थे इतने हल्के
बेशर्मी में न हुए थे
इतने अव्वल

बचाओ, ऐ शब्दकारो!
अर्थ खोते शब्दों को बचाओ!
79.
सपने में संवाद

अब तो मुश्किल हो गया है यह काम
कुछ और कठिन श्रीमान
हर तरफ कुकुरमुत्ते की तरह उग आए हैं
और सबके सब पर काबिज हैं महासचिव
बौने-बौने मृगछौने
‘क्या ट्रेजडी है...!’
कि तोड़ते-तोड़ते
कि लगभग आपकी ही भाषा में 
गढ़ों और मठों को
बन बैठे हैं उन्हीं के पोषक
मंचों पर विराजमान संचालक-उद्घोषक
और अब उनकी पालिटिक्स यह है श्रीमान
कि उनकी पैंतरेबाजी पर गिरगिट भी हैं हैरान
और यह दौर है बगलगीर हो जाने का
कुछ भी नहीं खोने का
बस पाने ही पाने का
उनको लुभाने का
जिनके थैलों में हैं-
तरह-तरह के प्रमाणपत्र-पुरस्कार
चतुर सुजान नहीं हैं अनजान
कि उनके थैलों में हैं उपेक्षा के नुकेले पत्थर
और स्वाभिमानियों को नेस्तनाबूद कर देने के
दूसरे औजार भी
सो, श्रीमान
कुछ और मुश्किल हो गया है यह काम।