36
सांझ को उतरना है
.........................
सांझ को उतरना है.........................
37.
........
38.
.......................
39.
..........
40.
......
41.
......
42.
........
43.
जुराब मुंह पर..
बंधु, सुनते हैं इन दिनों
पागलखाने में भी
पड़ने लगी जगह की कमी है
जैसे कि दिलों में
वैसे, इस धरा पर
मौजूद है अब भी
इफरात जगह
कानून की किताबों में
धाराएं बहुत-बहुत सी
और लोकतांत्रिक बंदूकों में
बेशुमार गोलियां
ईंट-पत्थरों की कमी तो
वैसे भी नहीं रही अपने सभ्य समाज में
अपने दिमाग को मत करना खराब
देखते रहना धत्त-कर्मों को चुपचाप
या फिर मुंह फेर लेना
और हां डाले रखना मुंह पर जुराब।
44.
पागलखाने में भी
पड़ने लगी जगह की कमी है
जैसे कि दिलों में
वैसे, इस धरा पर
मौजूद है अब भी
इफरात जगह
कानून की किताबों में
धाराएं बहुत-बहुत सी
और लोकतांत्रिक बंदूकों में
बेशुमार गोलियां
ईंट-पत्थरों की कमी तो
वैसे भी नहीं रही अपने सभ्य समाज में
अपने दिमाग को मत करना खराब
देखते रहना धत्त-कर्मों को चुपचाप
या फिर मुंह फेर लेना
और हां डाले रखना मुंह पर जुराब।
44.
अनमोल
............
............
देखा अल सुबह जो सपना
बताया हर्षित
हमदम ने कहा-मिलेगा धन
मिलता है धन-कहते तो यही हैं
सपने में देखा जो मल-वल
धन तो नहीं मिला
नहीं थी इसकी कोई संभावना
पर आ टपकी
एक-दो कविता
झोली में मेरी
अरे वाह
यह धन ही तो है-
अनमोल।
45.
45.
न जाने क्यों
...............
...............
कह कर कुछ
विचार करने को जी चाहता है
कुछ कह लेने के बाद
न जाने क्यों
लिख कर कुछ
काट देने को जी चाहता है
बार-बार
पढ़ कर
भुला देने को जी चाहता है
अक्सर
न जाने क्यों।
46.
46.
जीवनगाथा
..............
..............
इस कथा में समाहित है
अनगिनत कहानियां
उपकथाए-
घृणा की, प्रेम की
सुख-दुख की अनंत
कोई भी थक जाए
कोई ना पार पाए
इसे सुनाते हुए
सीख-सबक
हर-एक में प्रविष्ट
कहीं से शुरू करें
किसी की भी बांच लें।
47.
47.
कथोपकथन
................
................
दो टके की तो छोड़िए
छिटांक भर की भी औकात
नहीं बन पाई है आपकी
एक ने दूसरे से कहा
यह दीगर है बात
कि आपने मालें खूब उड़ाई है
पहले ने भी मुनासिब नहीं समझा
चुप रहना
अपने शिखर परिंदों के
कथोपकथन को सुन रहे थे
चूजे चुपचाप
चकित-चकित।
48.
गरीबी
..........
एक से लिखो
दूसरे से मिटा दो
फिर लिखो
फिर मिटाओ
खेलो यह खेल
चाहे जितनी बार
तुम खेल सकते हो
बेरोक-टोक मनपसंद
यह खेल
तुमसे भला कौन
छीन सकता है
वह पेंसिल
वह रबर।
49.
सफाई की तमीज
पुनर्नवा
..........
सुलगी तो धुआं-धुआं
दहकी तो आग-आग
पड़ी ठंडी तो राख-राख
लकड़ी ने साथ निभाया
पतंगों को भगाया
व्यंजनों को पकाया
बर्तनों को चमकाया
घूरे से पहुंती जब खेतों में
घुल-मिल गई माटी से
पा लेती है एक नई शक्ल
माटी से।
63.
48.
गरीबी
..........
एक से लिखो
दूसरे से मिटा दो
फिर लिखो
फिर मिटाओ
खेलो यह खेल
चाहे जितनी बार
तुम खेल सकते हो
बेरोक-टोक मनपसंद
यह खेल
तुमसे भला कौन
छीन सकता है
वह पेंसिल
वह रबर।
49.
सफाई की तमीज
निचोड़ने से पहले
भिंगो कर रखते तो
गुनगुने पानी में
थोड़ी देर
सर्फ-साबुन को करने देते
उनका काम
धोबिया पाट भी
भला इस कदर क्या देना
कि किसी जिस्म के काम ही न आ सके कमीज
मुफ्त की सलाह आपको
जाकर सीखिए किसी गृहणी से
सफाई की तमीज।
50.
बदस्तूर
जमात में
शामिल थे जब तक
जमे थे अंगद के पांव की तरह
विमुग्ध इस कदर
कि हंसे जा रहे ते
गदहे की हंसी
ताल ठोंकते ऐसे
कि जीत ली हो कोई बड़ी जंग
हालांकि सोहरत में उनकी
शामिल थीं जो कथाएं
उनमें तोड़फोड़, हुढ़दंगई का
एक लंबा सिलसिला था
जो कभी थमा ही नहीं।
51.
उद्गार
भिंगो कर रखते तो
गुनगुने पानी में
थोड़ी देर
सर्फ-साबुन को करने देते
उनका काम
धोबिया पाट भी
भला इस कदर क्या देना
कि किसी जिस्म के काम ही न आ सके कमीज
मुफ्त की सलाह आपको
जाकर सीखिए किसी गृहणी से
सफाई की तमीज।
50.
बदस्तूर
जमात में
शामिल थे जब तक
जमे थे अंगद के पांव की तरह
विमुग्ध इस कदर
कि हंसे जा रहे ते
गदहे की हंसी
ताल ठोंकते ऐसे
कि जीत ली हो कोई बड़ी जंग
हालांकि सोहरत में उनकी
शामिल थीं जो कथाएं
उनमें तोड़फोड़, हुढ़दंगई का
एक लंबा सिलसिला था
जो कभी थमा ही नहीं।
51.
उद्गार
थोड़ा खाते हैं
थोड़ा ही पीते हैं
ताल नहीं ठोकते
मर्जी से अपनी
मगर जीते हैं
हम आपके ही आंगन के
हरे-हरे पपीते हैं।
52.
थोड़ा ही पीते हैं
ताल नहीं ठोकते
मर्जी से अपनी
मगर जीते हैं
हम आपके ही आंगन के
हरे-हरे पपीते हैं।
52.
चकाचौंध का अंधेरा
..........................
..........................
चकाचौंध का एक अंधेरा है
गहरा, बहुत गहरा
गहन, घनघोर
वहां कभी नहीं होती भोर
जो छूट जाते हैं
सो छूट जाते हैं
वहां तक न नरेगा पहुंचता है
न अंत्योदय जैसी कोई
लोक-हितकारी योजना
चकाचौंध के नशे की खुमारी
टूटती है बहुत देर से
तब तक आसमान
आ चुका होता है
अमावस की चपेट में
पृथ्वी को ही
भुगतनी होती है सारी पीड़ा
यानी कि उसके वाशिंदों के मार्फत
जिन्हें होता है इंतजार
पूर्णिमा का
पर आमावस की रातें
होती हैं बड़ी लंबी
जिसमें दम घुट जाता है
बहुत-बहुत ताकतवर लोगों के भी
चकाचौंध के अंधेरे की
कोई भोर नहीं होती।
53.
53.
सहारा
..........
छत पर चला गया था
घबरा कर
बिजली गुम गई थी
जाने कब आती
आसमान में भी छाई थी
डरावनी शक्ल के साथ कालिमा
हालांकि तारे टिमटिमा रहे थे-
जरूर
तभी देखा टूट कर गिरते
कई तारों को-
बहुत दूर
जहां भी गिरे होंगे
बेचारे
धरती ने उन्हें
निश्चित ही दिया होगा
आंचल का सहारा
टूटते सपनों को
यह भी नहीं नसीब।
54.
गांधी के बंदर
...................
जो देख सकते हैं
देखना नहीं चाहते
जो बोल सकते हैं
बोलना नहीं चाहते
जो सुन सकते हैं
सुनना नहीं चाहते
बहुत समझदार हो गए हैं
गांधी जी के बंदरों।
55.
तब
......
इत्यादि-इत्यादि
जब खास हो जाते हैं
उनकी नजर में भी
तब सबकुछ बकवास हो जाता है।
56.
कला
.......
थोड़ी आनी चाहिए
न आती हो तो सिखनी चाहिए
कलावादी होती जा रही दुनिया में
रंग भरने की
छंदों से खेलने की
सुर और ताल
संवाद संप्रेषण की
कैमरे को मूव करने की
रस-छंद-भाव की...
नहीं-नहीं
मैं इन कलाओं की बात नहीं कर रहा।
57.
गुनाह
.........
काम उनके किसी
आ न सके
यह था एक गुनाह
कि सर को पावों तक
ले जा न सके
कि दिन को रात बता न सके
सूखे को कादा कैसे कहता
जाने भी दीजिए
कितनी लंबी फेहरिस्त पेश करूं
गुनाहों की
बस, अफसोस इस बात का
कि खुद को लट्टू बना न सके।
58.
54.
गांधी के बंदर
...................
जो देख सकते हैं
देखना नहीं चाहते
जो बोल सकते हैं
बोलना नहीं चाहते
जो सुन सकते हैं
सुनना नहीं चाहते
बहुत समझदार हो गए हैं
गांधी जी के बंदरों।
55.
तब
......
इत्यादि-इत्यादि
जब खास हो जाते हैं
उनकी नजर में भी
तब सबकुछ बकवास हो जाता है।
56.
कला
.......
थोड़ी आनी चाहिए
न आती हो तो सिखनी चाहिए
कलावादी होती जा रही दुनिया में
रंग भरने की
छंदों से खेलने की
सुर और ताल
संवाद संप्रेषण की
कैमरे को मूव करने की
रस-छंद-भाव की...
नहीं-नहीं
मैं इन कलाओं की बात नहीं कर रहा।
57.
गुनाह
.........
काम उनके किसी
आ न सके
यह था एक गुनाह
कि सर को पावों तक
ले जा न सके
कि दिन को रात बता न सके
सूखे को कादा कैसे कहता
जाने भी दीजिए
कितनी लंबी फेहरिस्त पेश करूं
गुनाहों की
बस, अफसोस इस बात का
कि खुद को लट्टू बना न सके।
58.
अब देर न कर
...................
...................
कहां छुप गया रे सूरज
निकल कोहरे को भेद
तन-मन को किए जा रहे हैं अचल
बहा जा रहा है पवन विकल
शीतदंश के मारे
ठिठुरे जा रहे हैं बेचारे
अनगिनत, करते मिन्नत
निकल चुपके से ही
बादलों की ओट से
अब तो निकल
त्रस्त हैं जो व्यवस्था की खोट से
दे-दे उनको अपनी झलक
जरूरत उनको कुछ ज्यादा
तेरी अनुकंपा की
बनी हुई है आशा
अब तक न ढेर हुई
अब देर न कर
निकल, दिखा अपना मुखड़ा।
59.
कि होती है कोई और बात
.............................. .....
..............................
शिखर की होती है कोई धुरी
होनी चाहिए उसकी कोई धुरी
नजर आता है इन दिनों कोई शिखर
हिमालय की तरह ऊंचा किए माथा
चलिए यह पता किया जाए
कि शिखर जब अपनी धुरी से छिटकता है
तो क्या वह नतीजे से वाकिफ होता है
शिखर जब बहकता है
तब क्या वह शराबियों का सा
करने लगता है आचरण
या लगता है भौंकने
आवारा चौपाए की तरह
काट खाने का कर लेता है इरादा
या कर लेना चाहता है इससे भी कुछ ज्यादा
अच्छा, धुरी से छिटकना
कैसे बन जाती है उसकी मजबूरी
क्या उसे सताने लगता है डर
शिखर से उतर जाने का
कि होती है कोई और बात।
60.
60.
बिटिया ने डांटा
....................
....................
ओह
दाल में इतनी सारी हल्दी
क्यों डाली
नमक भी क्या
डाला है ज्यादा
ओह
इतने सारे आलू-प्याज
क्यों काटे
किसने कहा था सानो
कर दिया न गीला आटा
मम्मी नहीं तो क्या हुआ
मैं तो थी घर में
बच्चों की सी हरकत
क्यों करते हो पापा
बिटिया ने डांटा।
61.
61.
तिनका
........
........
कैसे बने सहारा
किसी का
कोई डूबता हो
चाहे उतराता
क्यों गढ़ी
किसने गढ़ी
यह कहावत
उसके नाम
उकसी समझ में नहीं आता।
62.
62.
..........
सुलगी तो धुआं-धुआं
दहकी तो आग-आग
पड़ी ठंडी तो राख-राख
लकड़ी ने साथ निभाया
पतंगों को भगाया
व्यंजनों को पकाया
बर्तनों को चमकाया
घूरे से पहुंती जब खेतों में
घुल-मिल गई माटी से
पा लेती है एक नई शक्ल
माटी से।
63.
धारक
........
लूट भरी जेबों से
........
लूट भरी जेबों से
रक्त सने हाथों से
सम्मानित होना
कितना है सम्मानजनक
कितना मारक
कोई और क्यों
कोई गैर क्यों
खुद ही विचार करे धारक!
64.
बनिस्बत
............
बहुत लिखे
कम लिखे
खुशी लिखे
गम लिखे
लिखे थोड़ा सच
थोड़ा गपशप लिखे
कलम जो भी लिखे, अच्छा
चुपचुप रहने से बहुत अच्छा।
65.
काम की चीज
....................
कविता के सागर में डुबकी लगाओ
सम्मानित होना
कितना है सम्मानजनक
कितना मारक
कोई और क्यों
कोई गैर क्यों
खुद ही विचार करे धारक!
64.
बनिस्बत
............
बहुत लिखे
कम लिखे
खुशी लिखे
गम लिखे
लिखे थोड़ा सच
थोड़ा गपशप लिखे
कलम जो भी लिखे, अच्छा
चुपचुप रहने से बहुत अच्छा।
65.
काम की चीज
....................
कविता के सागर में डुबकी लगाओ
तो डूबने सा लगता है बहुत कुछ
जैसे कि निराशा
जैसे कि संताप
जैसे कि लोभ-कामनाएं
तरह-तरह की वासनाएं
शमन करती जाती है बड़े प्यार से
हौले-हौले
कविता होती है बड़े काम की चीज।
66.
66.
गिरे भी तो
..............
..............
जो गिर चुके हैं
बहुत-बहुत नीचे
उन्हें कोई और क्या गिराएगा
वे आसमान से गिरे
कि छत से
कि खजूर से
क्या फर्क पड़ता है
हकीकत तो यही
कि वे गिर चुके हैं
गिरे भी तो
नाले में
कुएं में
दलदल में
पास ही में
बह रही थी नदी
वे उसमें नहीं गिरे
उनको बहुत कुछ पाना था
और जल्दी-जल्दी।
67.
67.
आजादी
...........
...........
थोड़े से आबाद हुए
बहुत सारे बरबाद
आजादी जिंदाबाद।
68
आत्मकथा
(कवयित्री सुकीर्ति गुप्ता के स्मरण में)
..............
यह चाहना भी
कोई चाहना हुआ
कोई चाहना हुआ
पर उसने यही चाहा
चाहने वाले तो
बहुत कुछ चाहते हैं
जैसे कि घरबारी
पर्याप्त धन
कि जैसे पूंजीपति
एक और कारखाना
कि जैसे नेता
मंत्री की कुर्सी
कि जैसे पत्रकार
संपादक का ओहदा
कि जैसे संपादक
राज्यसभा की सदस्यता
कि जैसे कलाकार
तालियों की गूंज
कि जैसे.....
पर वह चाहता था
कि छप जाए वह किताब
जिसमें लिखा था उसने
जिंदगी का हिसाब-किताब
बताना चाहता था
कुछ राज की बातें
खोलना चाहता था कुछ भेद
हालांकि जानने वाले
जान चुके थे
बहुत सारी बातें
जो उसे भी नहीं पता था
उसने सौंप दी थी पांडुलिपि
उत्साही प्रकाशक को
और खुद चला गया था बहुत दूर...
69.
69.
गुमसुम बैठे थे बातुनी
............................
............................
चुभती हुई सी
कोई बात थी
और पसरा हुआ था-
सन्नाटा
दूर-दूर तलक
फलक पर
बेशुमार परिंदे थे
पर उनके पंखों की फड़फड़ाहट
कहीं गुम थी
हंस-खिलखिला रहे थे
मंद-मंद मुस्करा रहे थे
जंतु कुछ खास-खास
गुमसुम-गुमसुम
बैठे थे बातुनी।
70.
70.
उसके सीने पर सवार थी इमारत
.............................. ..............
मछलियां बार-बार
ऊपर आ जाती थीं
और पलट कर
गोताखोर बन जाती थीं
इस छोर, उस छोर
कुछ लोग उन्हें फंसाने की फिराक में
बैठे थे बंसी डाले
और उधर उस छोर पर
बैठे थे कुछ जोड़े
अपनी सुध खोए
और उस ओर बर्तन साफ कर रही थीं
कुछ औरतें, उन्हें ताकती-मुस्करातीं
कुछ बच्चे सीख रहे थे तैरना
और कुछ बड़ी होतीं बच्चियां
छीटें मार रही थीं एक-दूसरे पर
तभी अचानक दृश्य से गायब हो गए थे सब के सब
लाल हो चुका था तालाब का पानी
कुछ लाशें भी दिखी थीं तैरती हुईं
लाशें दिखीं तो बंदूकें चलने की
आवाजें गूंजने लगी थीं कानों में
(यह सत्तर के दशक के न्याय की इबारत थी)
वह तीसरी मंजिल के एक दड़बे में सो रहा था
सोते से हड़बड़ा कर उठा तो पाया
कि वहां न मछलियां थीं
न बंसी वाले
न जोड़े, न औरतें, न बच्चे
न बड़ी होतीं बच्चियां
वह तालाब भी नहीं था वहां
वह तो भेंट चढ़ चुका था
विकास की वेदी पर
उसके सीने पर सवार थी तीन मंजिली इमारत
जिसमें सो रहे थे लोग गहरी नींद
वह जो जागा था अभी-अभी
लाशों को देख घबरा गया था बुरी तरह!
71.गेहूं के दाने
..............................
मछलियां बार-बार
ऊपर आ जाती थीं
और पलट कर
गोताखोर बन जाती थीं
इस छोर, उस छोर
कुछ लोग उन्हें फंसाने की फिराक में
बैठे थे बंसी डाले
और उधर उस छोर पर
बैठे थे कुछ जोड़े
अपनी सुध खोए
और उस ओर बर्तन साफ कर रही थीं
कुछ औरतें, उन्हें ताकती-मुस्करातीं
कुछ बच्चे सीख रहे थे तैरना
और कुछ बड़ी होतीं बच्चियां
छीटें मार रही थीं एक-दूसरे पर
तभी अचानक दृश्य से गायब हो गए थे सब के सब
लाल हो चुका था तालाब का पानी
कुछ लाशें भी दिखी थीं तैरती हुईं
लाशें दिखीं तो बंदूकें चलने की
आवाजें गूंजने लगी थीं कानों में
(यह सत्तर के दशक के न्याय की इबारत थी)
वह तीसरी मंजिल के एक दड़बे में सो रहा था
सोते से हड़बड़ा कर उठा तो पाया
कि वहां न मछलियां थीं
न बंसी वाले
न जोड़े, न औरतें, न बच्चे
न बड़ी होतीं बच्चियां
वह तालाब भी नहीं था वहां
वह तो भेंट चढ़ चुका था
विकास की वेदी पर
उसके सीने पर सवार थी तीन मंजिली इमारत
जिसमें सो रहे थे लोग गहरी नींद
वह जो जागा था अभी-अभी
लाशों को देख घबरा गया था बुरी तरह!
71.गेहूं के दाने
कितने कतरे खून के सूखे
कितना बहा पसीना
कितनों के घर कर्ज में डूबे
कितनों को परिजन पड़े गंवाने
सपने में संवादकितना बहा पसीना
कितनों के घर कर्ज में डूबे
कितनों को परिजन पड़े गंवाने
वे क्या जाने
वे क्या जाने
कुछ बेदर्दी ले गए औने-पौने में
भरने अपने खजाने
कुछ ले गए गोदामों उन्हें सड़ाने
मंत्री-अफसर और क्या करते
देते रहे सफाई
बनाते रहे बहाने
इस मंजर को देख
तड़पे दिल उनका
जिनको पड़े उगाने
गेहूं के दाने।
72.
संदिग्ध
काटिए दांतों से
चाहे जीभ पर रखिए
तनिक सा, सिलवट पर पिसी
उस चीज को
जिह्वा तालू से टकराएगी
और मुंह से निकलेगी
टक-टक की आवाज
खट्टा-छट्टा ही होगा
उसका स्वाद
डिब्बे से निकाल कर
पानी में घोला गया जिसे
मधु-मधु ही होगा
बेशक-बेशक
थोड़ा कम या थोड़ा ज्यादा
उसका स्वाद
छोटी हो चाहे बड़ी
हरा हो चाहे हो रंग उसका लाल
दिखाती है एक सा ही कमाल
तीखा तीखा तीखा
आंखों से टपक पड़ता है पानी
तलब भी पैदा कर देती है उसकी
यही तो है उसकी रंगत, उसका स्वाद
और आपका
73.
उसका आना
चुपके से आती है
अचानक चली आती है
बगैर पूछे, बगैर बताए
कई-कई बांधों को तोड़
वक्त-बेवक्त ले जाती है
अपने साथ भींचे
कभी ट्रेन से फेंक देती है बाहर
कभी खींच लेती है पटरियों के नीचे
पांव खुद-ब-खुद फिसल जाते हैं
पर्वत चढ़ते हुए
फंदे से लटका देती है
तो कभी किरासन छिड़क देती है देह पर
न जाने कितने बहाने बना लेती है
गढ़ लेती है न जाने कितनी कहानियां
जहर भी भला कोई
खाने-पीने की चीज होती है
पर उतार देती है एक झटके से
हलक के नीचे
जर-जोरू-जमीन के मोह-माया से
बिलगा कर उनकी काया से
ले जाती है अपने साथ
पैदल-पैदल न जाने कहां।
74.
खुशनसीबी
..............
वह महफिलों, जलसों, सेमिनारों से अलग
एक दुनिया थी
वहां छोटी-छोटी बातें थीं
छोटी-छोटी कथा-कहानियां थीं
बेहद सहज, सरल लोगों की दुनिया में थे
छोटे-छोटे सुख-दुख
वासनाएं भी थीं छोटी-छोटी
मेरी खुशनसीबी
कि मैं घिरा था
उस दुनिया के
सीधे-जटिल
बाशिंदों से
मेरी खुशनसीबी
कि मेरी आवाजाही
बराबर बनी रही
उस दुनिया में
वह एक अलक्षित दुनिया थी
वह एक समांतर दुनिया थी
यह कुबेरों और उनके चाकरों से
लगभग खाली-खाली एक दुनिया थी
उसी ने हाथ थामा
उसी ने दिया पानी
लड़खड़ाई जब गिरहस्ती
सूखे जब कंठ
संवेदनाओं के ठेकेदार
वहां दूर-दूर तक नहीं दिखे।
75.
थमे की कोईगति नहीं
तुम चलोगे तो
पांवों से चिपकेंगे धूल
कीचड़ भी चिपक सकते हैं
यदा-कदा
ठोकर लग सकती है
हो सकते हैं लहूलुहान
तुम्हारे पांव
तुम चलोगे तो
यह सब होगा
कुछ न कुछ तो होगा
हो सकता है
कि डंडे भी पडें
तुम्हारे पांवों पर
और जकड़ दिए जाएं
जंजीरों में
पर तुम्हें चलना होगा
थमे की कोई गति नहीं।
76.
नियोजन
गर्वित थे
सीख कर हुनर
डूब-डूब कर
खूब-खूब
करते हुए भरोसा
हाथों के हुनर से
नहीं बढ़ता है देश आगे
पीछे छूट जाता है
उनको कहां पता था
कि जब आता है विकास
तो बदल जाता है मतलब
हास-परिहास का
उनको कहां पता था
हास को हंस के पंख लग जाते हैं
हाथ पर धरे हाथ
बैठे तकते हैं
सुनी आंखों से आकाश
हुनरमंद हाथ
और उनकी तरफ
ईश्वर भी नहीं देखता
पलट कर
उनको कहां पता था।
78.
इतने तो
...........
इतने तो अविश्वसनीय
न हुए थे कभी
अर्थहीन न हुए थे
न हुए थे कभी
इतने बेअसर
बुजदिल न हुए थे
बेअसर-बीमार न हुए थे
न हुए थे इतने हल्के
बेशर्मी में न हुए थे
इतने अव्वल
वे क्या जाने
कुछ बेदर्दी ले गए औने-पौने में
भरने अपने खजाने
कुछ ले गए गोदामों उन्हें सड़ाने
मंत्री-अफसर और क्या करते
देते रहे सफाई
बनाते रहे बहाने
इस मंजर को देख
तड़पे दिल उनका
जिनको पड़े उगाने
गेहूं के दाने।
72.
संदिग्ध
काटिए दांतों से
चाहे जीभ पर रखिए
तनिक सा, सिलवट पर पिसी
उस चीज को
जिह्वा तालू से टकराएगी
और मुंह से निकलेगी
टक-टक की आवाज
खट्टा-छट्टा ही होगा
उसका स्वाद
डिब्बे से निकाल कर
पानी में घोला गया जिसे
मधु-मधु ही होगा
बेशक-बेशक
थोड़ा कम या थोड़ा ज्यादा
उसका स्वाद
छोटी हो चाहे बड़ी
हरा हो चाहे हो रंग उसका लाल
दिखाती है एक सा ही कमाल
तीखा तीखा तीखा
आंखों से टपक पड़ता है पानी
तलब भी पैदा कर देती है उसकी
यही तो है उसकी रंगत, उसका स्वाद
और आपका
73.
उसका आना
चुपके से आती है
अचानक चली आती है
बगैर पूछे, बगैर बताए
कई-कई बांधों को तोड़
वक्त-बेवक्त ले जाती है
अपने साथ भींचे
कभी ट्रेन से फेंक देती है बाहर
कभी खींच लेती है पटरियों के नीचे
पांव खुद-ब-खुद फिसल जाते हैं
पर्वत चढ़ते हुए
फंदे से लटका देती है
तो कभी किरासन छिड़क देती है देह पर
न जाने कितने बहाने बना लेती है
गढ़ लेती है न जाने कितनी कहानियां
जहर भी भला कोई
खाने-पीने की चीज होती है
पर उतार देती है एक झटके से
हलक के नीचे
जर-जोरू-जमीन के मोह-माया से
बिलगा कर उनकी काया से
ले जाती है अपने साथ
पैदल-पैदल न जाने कहां।
74.
खुशनसीबी
..............
वह महफिलों, जलसों, सेमिनारों से अलग
एक दुनिया थी
वहां छोटी-छोटी बातें थीं
छोटी-छोटी कथा-कहानियां थीं
बेहद सहज, सरल लोगों की दुनिया में थे
छोटे-छोटे सुख-दुख
वासनाएं भी थीं छोटी-छोटी
मेरी खुशनसीबी
कि मैं घिरा था
उस दुनिया के
सीधे-जटिल
बाशिंदों से
मेरी खुशनसीबी
कि मेरी आवाजाही
बराबर बनी रही
उस दुनिया में
वह एक अलक्षित दुनिया थी
वह एक समांतर दुनिया थी
यह कुबेरों और उनके चाकरों से
लगभग खाली-खाली एक दुनिया थी
उसी ने हाथ थामा
उसी ने दिया पानी
लड़खड़ाई जब गिरहस्ती
सूखे जब कंठ
संवेदनाओं के ठेकेदार
वहां दूर-दूर तक नहीं दिखे।
75.
थमे की कोईगति नहीं
तुम चलोगे तो
पांवों से चिपकेंगे धूल
कीचड़ भी चिपक सकते हैं
यदा-कदा
ठोकर लग सकती है
हो सकते हैं लहूलुहान
तुम्हारे पांव
तुम चलोगे तो
यह सब होगा
कुछ न कुछ तो होगा
हो सकता है
कि डंडे भी पडें
तुम्हारे पांवों पर
और जकड़ दिए जाएं
जंजीरों में
पर तुम्हें चलना होगा
थमे की कोई गति नहीं।
76.
नियोजन
हम तो लड़खड़ाते रहे
गिरते-पड़ते रहे
संभलने की हर कोशिश के बावजूद
हम भरे-पूरे कुनबे से ऊबे तो कहा-
ठीक है,मान लेते हैं-
बस दो या तीन बच्चे
होते हैं घर में अच्छे
पर हमसे कहा गया
कि बात बन नहीं रही
मुसीबतें कम नहीं रहीं
सो थोड़ा और सुधर जाएं हम
बन जाएं थोड़ा और जिम्मेदार
हमने कहा-ठीक है सरकार
यह भी लेते हैं मान
कि अगला अभी नहीं
दो के बाद कभी नहीं
इतने पर भी बात बनी नहीं तो
लिया हमारे आत्मजनों ने मान
कि अगला बच्चा अभी नही
एक के बाद कभी नहीं
फिर भी तो मुसीबत कमी नहीं
महंगाई सुरसा थमी नहीं।
अब कौन सा करें उपचार
कौन सा नियोजन!
77.
उनको कहां पता था
गिरते-पड़ते रहे
संभलने की हर कोशिश के बावजूद
हम भरे-पूरे कुनबे से ऊबे तो कहा-
ठीक है,मान लेते हैं-
बस दो या तीन बच्चे
होते हैं घर में अच्छे
पर हमसे कहा गया
कि बात बन नहीं रही
मुसीबतें कम नहीं रहीं
सो थोड़ा और सुधर जाएं हम
बन जाएं थोड़ा और जिम्मेदार
हमने कहा-ठीक है सरकार
यह भी लेते हैं मान
कि अगला अभी नहीं
दो के बाद कभी नहीं
इतने पर भी बात बनी नहीं तो
लिया हमारे आत्मजनों ने मान
कि अगला बच्चा अभी नही
एक के बाद कभी नहीं
फिर भी तो मुसीबत कमी नहीं
महंगाई सुरसा थमी नहीं।
अब कौन सा करें उपचार
कौन सा नियोजन!
77.
उनको कहां पता था
सीख कर हुनर
डूब-डूब कर
खूब-खूब
करते हुए भरोसा
हाथों के हुनर से
नहीं बढ़ता है देश आगे
पीछे छूट जाता है
उनको कहां पता था
कि जब आता है विकास
तो बदल जाता है मतलब
हास-परिहास का
उनको कहां पता था
हास को हंस के पंख लग जाते हैं
हाथ पर धरे हाथ
बैठे तकते हैं
सुनी आंखों से आकाश
हुनरमंद हाथ
और उनकी तरफ
ईश्वर भी नहीं देखता
पलट कर
उनको कहां पता था।
78.
इतने तो
...........
इतने तो अविश्वसनीय
न हुए थे कभी
अर्थहीन न हुए थे
न हुए थे कभी
इतने बेअसर
बुजदिल न हुए थे
बेअसर-बीमार न हुए थे
न हुए थे इतने हल्के
बेशर्मी में न हुए थे
इतने अव्वल
बचाओ, ऐ शब्दकारो!
अर्थ खोते शब्दों को बचाओ!
79.अर्थ खोते शब्दों को बचाओ!
अब तो मुश्किल हो गया है यह काम
कुछ और कठिन श्रीमान
हर तरफ कुकुरमुत्ते की तरह उग आए हैं
और सबके सब पर काबिज हैं महासचिव
बौने-बौने मृगछौने
‘क्या ट्रेजडी है...!’
कि तोड़ते-तोड़ते
कि लगभग आपकी ही भाषा में
गढ़ों और मठों को
बन बैठे हैं उन्हीं के पोषक
मंचों पर विराजमान संचालक-उद्घोषक
और अब उनकी पालिटिक्स यह है श्रीमान
कि उनकी पैंतरेबाजी पर गिरगिट भी हैं हैरान
और यह दौर है बगलगीर हो जाने का
कुछ भी नहीं खोने का
बस पाने ही पाने का
उनको लुभाने का
जिनके थैलों में हैं-
तरह-तरह के प्रमाणपत्र-पुरस्कार
चतुर सुजान नहीं हैं अनजान
कि उनके थैलों में हैं उपेक्षा के नुकेले पत्थर
और स्वाभिमानियों को नेस्तनाबूद कर देने के
दूसरे औजार भी
सो, श्रीमान
कुछ और मुश्किल हो गया है यह काम।
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