सोमवार, 19 दिसंबर 2022

'ग़जल को ग़ज़ल ही रहने दें'

 

जैसे भाषा में बोलियां हैं सा'ब

मुल्क में वैसे ही मियां हैं सा'ब


साथ सदियों से रहते आए मगर 

अब भी सदियों की दूरियां हैं सा'ब


आपने ऐसे कैसे सोच लिया !

आपके भी तो बेटियां हैं सा'ब


जुट गयीं तो नहीं बचेगा कुछ

ये सियासत की चीटियां हैं सा'ब


रंग मजहब बिरादरी पैसा

प्यार में कितनी गुत्थियां हैं सा'ब


एक ही तो 'किताब' है अपनी

उसमें भी कितनी गलतियां हैं सा'ब


ये न टेढ़ी हुईं न घी निकला

कैसी मतदानी उंगलियां हैं सा'ब


इनको तो बक्श दीजिए मालिक !

गमछे में बांधी रोटियां हैं सा'ब

यह देवेंद्र आर्य की एक गजल है, जो इनके ताजा संग्रह 'मन कबीर' में दर्ज है। इस संग्रह में ऐसी ही कई गजलें हैं, तल्ख,करारी और कुछ कमजोर सी लगने वाली गजलें भी, जिनमें कुछेक मजबूत शेर हैं। ये सभी समकाल से नज़र मिलाकर बतियाती, सवाल और मुठभेड़ करती लगती हैं। 

जैसे-

चिटक बेशक गए हैं दिल के रिश्ते

अभी तक टूट कर बिखरा नहीं हूँ

 रिश्तों में तोड़-फोड़ के इस दौर खुद को बिखरने से बचाना, उम्मीद को उम्र देने जैसी बात है। 

...... 

कोई कैसे मान ले जिंदा हैं आप

हो कोई काग़ज अगर, दिखाइये

 इधर की यह बड़ी बिडंबना और भुगतभोगी ही इस पीड़ा को समझते हैं। इस पीड़ा को जुबान देने वाला शायर भी बेशक। 

...... 

आप दलहन की बात छेड़ेंगे

जिक्र वह छेड़ देगा केसर का

आज की सियासत की बेशर्मी और असंवेदनशीलता को उजागर करने के लिए यह शेर कितना माफिक है, बताने की जरूरत नहीं। 

..... 

सब चुप हैं डर के मारे मगर फिर भी हो रही

राजा के नंगे होने की चर्चा गली-गली

.... 

जिसको देखो है वही सूखे बदन बारिश में

छत भी कोई नहीं, सर पर कोई छाता भी नहीं

.... 

मोहब्बत नाम है उस जिंदगी का

कि जिसमें आँच है और प्यास भी है

..... 

बेटा बहू तो दूर, खसम भी न आए पास

मैं सो गई थी रात में घर को खिला-पिला

.... 

धर्म और पूँजी का का है रिश्ता यही

ताने में बाना, बाने में ताना

.... 

ये चंद शेर भी बहुत कुछ कहते हैं -अपने समय के यथार्थ को आईने के सामने खड़े करते हुए। देवेंद्र कहन के एक अलग अंदाज लिए हमारे समय के खास गजलकारों में से एक हैं। प्रगतिशील, जनवादी और प्रयोगधर्मी । यह उनका छठा ग़ज़ल संग्रह है। दिल्ली के 'न्यू वर्ल्ड पब्लिकेशन' से आया है । 

इनकी इस किताब पर अग्रज कवि- गजलगो, संपादक रामकुमार कृषक कहते हैं कि "इनके यहां कविता की ताज़गी और ताप दोनों को एकसाथ अनुभव कर सकते हैं। ...नए बिंबों और प्रतीकों की भी उनके यहां कमी नहीं , और शेरों की ज़मीनी अंतर्वस्तु के अनुरूप उन्हें बरतने की सलाहियत की भी । "

इस संग्रह के लिए किसी से ब्लर्ब या भूमिका नहीं लिखाई गई है। आर्य ने जरूर 'कुछ अपनीःकुछ शायरी की' बात कही है। गजल के सफर के बाबत बात करते हुए देवेंद्र इस बात से सहमत दिखते हैं कि गजल को गजल ही रहने दिया जाए। अपने बााबत यह कहते हैं कि" बताने के लिए सिर्फ इतना है कि मैं शायरी करता हूं, सियासत नहीं। शायरी ही मेरी सियासत है। जैसे कबीर अपनी भक्ति में सियासत कर रहे थे।....कविता भी डूबते को तिनके को सहारा होती है, जैसे कि जैसे ईश्वर दुखी इंसान को आखिरी सहारा..."

 उनके इस कथन की गवाही देती इसी किताब की यह गजल गौरतलब है-


तन तुलसी और मन कबीर भए

तब जाके शायर फ़क़ीर भए

रूमी अस जब रूह भयी तब

सूरदास जस ई शरीर भए

कविता होइ गए खुदे निराला

मुक्तिबोध सउंसे ज़मीर भए

तू कचरस हम चाउर कच्चा

प्यार पगे दूनो बखीर भए

छूट गयो पगहा कवित्त कै

जब कविता में कवि अधीर भए

काटत पीटत लांघत रेखा

छोट बड़ा हमहूं लकीर भए

आपे नहीं अकेल आरिया

एकरे पहिले एक 'नज़ीर' भए


मन में कबीर को जगह देना जोखिमों को आमंत्रण देना है। देवेंद्र की गजलें, इसके लिए समर्पित लगती हैं। दुष्यंत कुमार ने हिंदी में गजल जो मान दिलाया, उसे आगे ले जाने वालों में आर्य भी शामिल एक उल्लेखनीय नाम बन चुके हैं। 

उन्हें इस संग्रह के लिए बधाई! 


सोमवार, 12 दिसंबर 2022

नई बात

एक मुखड़ा

दो तीन अंतरे

काफी होते थे कभी

दास्ताँ सुनान को

फलसफा जिंदगी के

दोहराने को। 

कैलाश मनहर की किताब पर संक्षिप्त चर्चा

 

कहीं कुछ सड़ रहा है

संप्रति हमारे समय में एक तरफ तो सुविधापरस्त, मौकापरस्त कलमों की आमद बहुतायत में देखी जा रही है तो कुछ बिगाड़ के डर से झूठ नहीं बोलने वाली कलमें भी हैं। एक तरह से प्रतिरोध की भाषा को रचने वाली कलमें। कालजयी रचने की तमन्ना की जगह अपने समयकाल की विसंगतियों से टकराने वाली कलमें। ऐसी ही कलमों में शुमार हैं कैलाश मनहर। सीधी, सपाट और अभिधा में जरूरी बयान दर्ज करते जा रहे हैं। कविता में कला के मक्खन की चिकनाई की जगह जीवन से गायब होते रस की तलाश में बेचैन कविताएं अभिधा की शरण में जाने को मजबूर है।
     उबाऊ नहीं होनी चाहिए किंतु
     ऊब की अभिव्यक्ति जरूर होनी चाहिए कविताओं में
    कविता के बारे में कविता में कवि यह दर्ज कर अपनी राह के बाबत स्पष्ट कर देता है। यह भी कि-
    मेरे लफ्जों में थोड़ा दमखम है
    मुझको भी जेल में ढालेंगे वे
    (गीतिका-5)
    इस आशंका के बावजूद कवि की यह अपील-
    कहीं कुछ सड़ रहा है
    पता करो कवियों, वैज्ञानिकों,मानवाधिकार कार्यकर्ताओं
    जाने हवा में यह कैसी गंध बहती जा रही है
    हो सकता है किसी कविता की हत्या हुई हो
    किसी तार्किक विचार को मार दिया गया हो...
    (दुर्गंध)
    कवि के ताजा संग्रह -उतरते इक्कीस के दो महीने- में सानेट,गीतिका,पद और अतुकांत कविता के शिल्प में समकालीन विडंबनाओं से मुठभेड़ करते दिखते हैं-सच माने में अभिव्यकित के खतरे उठाते हुए। इस संग्रह में शामिल कविताओं के बारे में वरिष्ठ आलोचक जीवन सिंह ने उचित ही कहा है-साधरणता के सौंदर्य बोध की कविताएँ। उनके सपाटबयानी की भी तारीफ की है। जब अभिधा में बातें कहने की जरूरत आ पड़े तो इसे टाला भी नहीं जा सकता है। इस तरह बोलती कविताओं के कवि हैं कैलाश मनहर। मधुशाला प्रकाशन, भरतपुर, राजस्थान से आए संग्रह में कुछ प्रूफ की गलतियां हैं तो साज-सज्जा पर भी उचित ध्यान नहीं दिया गया है। 
    बहरहाल, इस संग्रह के लिए मनहर जी को बधाई। यहां इस संग्रह से कुछ कविताएं भी पेश कर रहा हूं ताकि पाठक खुद इससे दो-चार हो सकें।

1.
अंधभक्त गुलाम

संस्कृति के नाम पर
सत्ताधीश फैला रहे हैं सामाजिक वैमनस्य
और तुम चुप बैठे हो
धर्मांधता फैला कर
वे एक दूसरे के खून का प्यासा बना रहे हैं
और तुम डर रहे हो
विकास के नाम पर
बेचे जा रहे हैं वे देश के संसाधन और तुम
अनदेखी कर रहे हो
मंदी की हाहाकारी से
जूझते देश को मन की बात सुना रहे हैं वे
और तुम सुने जाते हो
बेरोज़गारी के कारण
अवसाद में डूबे युवा कर रहे हैं ख़ुदकशी
और तुम अन्जान हो
लगातार बढ़ती जातीं
ऱोजमर्रा ज़रूरतों की क़ीमतों के बावज़ूद
तुम बेफ़िक़्र दिखते हो
जब भी भाषण देते हैं
हर बार झूठ बोलते हैं प्रधान और तुम हो
घुटनों में सिर दिये बैठे
बहुत ज़रूरी लगता है
बोलना किन्तु अँधभक्ति के कारण कुंठित
तुम बेशर्मी दिखाते हो
सही बात तो यह है कि
तुम कोई स्वतंत्र मनुष्य नहीं हो ख़ुदगर्ज़ों
तुम सत्ता के ग़ुलाम हो
2.
डूबना

डूबना होता है
किसी लुहार का
लोहा कूटते समय कि मज़बूत
और धारदार बन सकें
सभी औज़ार
डूबना होता है
किसी प्रेमी का कि
उबरने का मन ही न करे
प्रेमिका की यादों के
ख़्यालों से
डूबना होता है
किसी कवि का कि
पूरी तरह रच सके
अपनी संवेदनायें
कविता में
डूबना होता है
किसी गृहिणी का
भोजन बनाते समय कि
सुपाच्य और स्वादिष्ट बन सके
घर परिवार हेतु
सारा भोजन
डूबना होता है
किसी नाव का कि
तट के पास आते ही
अचानक पलट कर
डूब जाये
डूबना होता है
किसी मुल्क का कि
अँधास्था भड़का कर
कोई तानाशाह नष्ट कर दे
तमाम संस्कृति और
सुभविष्य भी
3.
ऐसी तानाशाही

कितने दिन तक बने रहेंगे तिकुनिया की ज़मीन पर
खून के धब्बे
कितने दिन तक मँडराते रहेंगे वहाँ गिध्द और कौए
कितने दिन तक आवाजाही नहीं करेंगे उस रस्ते से
सामान्य लोग
कितने दिन तक रहेंगे उधर सियार और लोमड़ियाँ
चिन्तित हूँ मैं
कि आख़िर कितने दिन तक जमी रहेगी वहाँ मृत्यु
पुत्र मोह से बेचैन पिता गया था जेल में मिलने तो
क्या पड़ी थी पत्रकारों को कि
कोई असुविधाजनक सवाल पूछें उससे बढ़ाने को
दिल-दिमाग़ की बेचैनी ज़्यादा
कि गाली नहीं देगा तो क्या करेगा कोई मंत्री पिता
कैसा तो पहाड़ टूट पड़ा मंत्री पर कि जेल में गया
उसका प्रिय पुत्र हत्या के जुर्म में
कि हो ही जाता है पद के अहंकार में कभी कभार
आ जाता है गुस्सा विरोधियों पर
कुचल दिया तो कुचल दिया दस-पाँच जनों को हाँ
क्या ज़रूरत थी फैलाने की बात
मंत्री पुत्र को क्या इतना भी हक़ नहीं इस मुल्क में
जब तक रहेंगे सत्ता में ऐसे मंत्री
तब तक बने रहेंगे खून के धब्बे और मँडराते रहेंगे
तिकुनिया की ज़मीन पर गिध्द और कौए तब तक
नहीं करेंगे आम लोग उस रस्ते से आवाजाही और
विचरते रहेंगे सियार-लोमड़ियाँ
तिकुनिया के आसपास तब तक जमी रहेगी मृत्यु
जब तक रहेगी ऐसी तानाशाही
4.
कविता के बारे में

उबाऊ नहीं होनी चाहियें किन्तु
ऊब की अभिव्यक्ति ज़रूर होनी चाहिये कविताओं में
नीरस होते जाते जीवन की जो
ज़ुल्म सहते सहते होता जा रहा है लगभग विचारशून्य
अवरुद्ध-सा हो गया है पशुवत
सटीक बयानी ज़रूरी है किन्तु
सपाट बयानी नहीं होनी चाहिये कविताओं में कि जैसे
सच्चाई की अभिव्यक्ति मार्मिक अभिव्यंजना में हो पर
किसी प्रकार का पूर्वाग्रह न हो
पुनरुक्ति दोष से बचना चाहिये
कवियों को नहीं लिखनी चाहिये एक ही बात बार बार
एक ही रूप में कभी नहीं रखना चाहिये अपना विचार
बना तो रहना चाहिये प्रतिबध्द
सिर्फ़ विरोध में ही नहीं होनी चाहिये कविता कि सदैव
अभाव-अभियोग ही देखे जायें
कविताओं में लिखी जानी चाहियें जीवंत परम्परायें भी
सत्ता के ही विरूद्ध नहीं लिखी जानी चाहियें कवितायें बल्कि विपक्ष को भी यदा कदा
चुनौती देता रहना चाहिये कि बना रहे सर्वथा नियंत्रण
न जाने कितने कितने प्रतिमान
बताते रहे वे मुझे कविता लिखने के बारे में और मैं कि
सुने जा रहा था उनका प्रवचन
लगातार सोचते हुये कि इतना यदि किया जाये सायास
तो कैसे लिखी जायेगी कविता
5.
दुर्गंध

मेरी नाक गंधा रही है
यह सारा वातावरण गंधाता है
शायद यह समय ही गंधाता है
असहनीय है यह गंध
कहीं कुछ सड़ रहा है
पता करो कवियों वैज्ञानिकों मानवाधिकार कार्यकर्ताओं
जाने हवा में यह कैसी गंध बहती जा रही है
हो सकता है किसी कविता की हत्या हुई हो
किसी तार्किक विचार को मार दिया गया हो
हो सकता है किसी क्रान्तिकारी की हत्या कर दी गई हो
सड़ती हुई गंध है यह
कभी तो कोई न्यायाधीश मर जाता है होटल के कमरे में
आयातित हैलीकाप्टर में मारा जाता है सेना का जनरल
राष्ट्र की सुरक्षा के लिये मारे जा रहे हैं राष्ट्र जन
धर्म की रक्षा के नाम पर मारे जा रहे हैं विधर्मी
पुलिस थाने में टोंटी से लटक कर मर जाता है कोई युवा
तंत्र की सलामती के लिये लोक की हत्या की जा रही है
इस समय वातावरण में यह लाशें सड़ने की गंध है
यदि इसे दुर्गंध कहें तो
देशद्रोही होने का आरोप भी लगाया जा सकता है
अँधास्था का ध्रुवीकरण है
और धर्म पर ख़तरा बता कर मारी जा रही है
विवश विलापित मानवता
साज़िशें बहुत विकट हैं
किन्तु आतताई सत्ता को चुनौती देने के लिये ज़रूरी है
दुर्गंध को दुर्गंध कहना
6.
साजिश

जनता को भड़का रहे हैं
अफ़वाहें फैला रहे हैं तानाशाह के गुर्गे
लगातार सुर्रियाँ छोड़ रहे हैं
आँदोलनरत मज़दूरों के विरुद्ध उकसा रहे हैं
जबकि विदूषक हंसी उड़ा रहे हैं
आँदोलनकारियों की और तानाशाह की बातों पर
विश्वास करना सिखा रहे हैं कि
वही सब कुछ सही है जो कहा जा रहा है
झूठे संचार माध्यमों द्वारा
सत्ता में भी तो ऐसे ही आया है तानाशाह
देश-समाज में फैला कर धर्मांध कट्टरता बहुसंख्यकों में
पैदा करते हुये मिथ्या गर्वबोध का उन्माद
ध्वस्त करते हुये पारस्परिक आत्मीयता का संवाद-सेतु
छल-कपटपूर्वक हड़पी है उसने सत्ता भी
साम्राज्यवादी ताक़तों का
दलाल बना हुआ तानाशाह तलुअे चाटता है
पूँजीपति व्यापारियों और विदेशी राज्याध्यक्षों के
और अपनी सत्ता की सलामती के लिये
बना कर तरह तरह के काले क़ानून
दफ़्न करता है सच्चाई को
जब जब भी आँदोलित होता है जनमानस
जत्थों में निकलने लगते हैं
तानाशाह के अत्याचारों से त्रस्त नर-नारी
सड़कों पर इकठ्ठे होने लगते हैं मेहनतकशों के हुज़ूम
तो तानाशाह की नींद उचटती है और
रचने लगते हैं तानाशाह के सिपहसालार नई साज़िशें
जैसे कि अभी अपने
आक़ाओं द्वारा सिखाये गये
"फूट डालो और राज करो" के छद्म से
तानाशाह फूट डाल रहा है मेहनतकश
आँदोलनकारियों में
7.
कविता लिखने की बजाय

सरकार की हाँ में हाँ मिलाना ही यदि देशभक्ति है
तो मैं देशभक्त नहीं हूँ या कि
सरकार के दुष्कृत्यों की आलोचना करना
या सवाल करना यदि देशद्रोह है तो मैं देशद्रोही हूँ
सरकारी मंत्रियों के ऊलजलूल बयानों का विरोध करना
यदि अशिष्टता है तो मैं अशिष्ट हूँ
और न्याय की हत्या के विरोध में
आवाज़ उठाना भी यदि बग़ावत है तो मैं वाक़ई बाग़ी हूँ
सुनो ओ आम और खास लोगों
कि धर्मांध कट्टरता से
हिंसक बन कर
विधर्मियों की हत्या करना ही यदि धर्म है
तो मैं पूर्णत: अधर्मी हूँ
यदि भूखे लोगों के लिये
अनाज की ज़रूरत बताना कोई षड़्यन्त्र है
तो मैं षड़यन्त्रकारी हूँ कि
यदि वास्तव में अपने
जंगल और ज़मीन को बचाना नक्सलवाद है
तो मैं भी नक्सलवादी हूँ
यदि शासन के छल-छद्मों के प्रति लोगों को सचेत
करना अर्बन नक्सली होना है
तो मैं स्वयं के अर्बन नक्सल होने पर गर्व करता हूँ
चाहो तो गिरफ़्तार कर लो मुझे
कि मैं अपने
फ़र्ज़ से हटने वाला क़तई नहीं हूँ
इस ख़तरनाक समय में मुझे
कविता लिखने की बज़ाय संघर्ष ज़रूरी लगता है
8.
भेड़िया
बहुत उदार दिख रहा है
भेड़िया माफ़ी भी मांग रहा है अपने द्वारा
मारी गईं भेड़ों के बारे में
बहुत शरीफ़ दिख रहा है भेड़िया कि
रेवड़ में घात लगा कर हमला करने को बता रहा है
भेड़ों के प्रति अपने प्यार का प्रमाण
बहुत निरीह दिख रहा है भेड़िया
जबकि नष्ट नहीं हुई है उसकी भेड़ों को चबाने की
लपलपाती हुई हिंस्र अभिलाषा
स्वांग रच रहा है भेड़िया
चहेता बनने के लिये भेड़-बकरियों का
राम नाम जप रहा है वह
तपस्वी बता रहा है ख़ुद को भेड़िया
खा नहीं सका भेड़ों को तो
अपनी तपस्या की कमी बता रहा है
संभल कर रहना रे लोगों
भेड़-बकरियाँ नहीं बल्कि मनुष्य हो तुम जबकि
वह वास्तव में भेड़िया है
9.
नमन करता हूँ उस गृहिणी को जो
आग जला कर सेंकती है
दोनों वक़्त मेरे लिये गर्मागर्म रोटी
नमन करता हूँ अनाज के उन दानों को
जिन्हें किसान ने उपजाया
जिनके पिसने से बनता है आटा
और जिस आटे से बनाई जाती है रोटी
नमन करता हूँ रसोई गैस को और तवे को
नमन करता हूँ उन वनस्पतियों को
जिनके सूखे ईंधन से जलती है
चूल्हे में आग और तवे पर सिंकती है रोटी
नमन करता हूँ मेघों को और नदियों को
जल से भरे घड़े को नमन करता हूँ
नमन करता हूँ समुद्र को और नमक को
सुबह उठते ही
मैं किसी ईश्वर या देवी-देवता को
नमन नहीं करता बल्कि
आग जल अन्न नमक और लोहे को
नमन करता हूँ
नमन करता हूँ उन आदिम पूर्वजों को
जिन्होंने ढूँढ़े आग जल अन्न नमक और लोहा
साथ ही नमन करता हूँ गृहिणी को भी
10.
साधो!अपना देश महान |
लगभग सब नेताओं की है गुण्डों-सी पहचान |
करते वे शिकार लोगों का ऊँची बना मचान |
जनता का मुँह अरु सत्ता के बंद पड़े हैं कान |
जिसकी जितनी पहुँच है ऊँची उसका उतना मान |
लोकतन्त्र तो लुप्त पड़ा है ख़तरे में संविधान |
पुरस्कार लिप्सित कवि करते भ्रष्टों का गुणगान |
झूठा योगी गुण्डा शाह अरु जुमलेबाज़ प्रधान |
निपट अधर्मी चला रहे हैं मिथ्या धर्म दूकान |
सबक सिखायेंगे सत्ता को मिल मज़दूर-किसान |




शुक्रवार, 25 मार्च 2022

श्रम और संबंधों को तरजीह देती कविताएं

 बलभद्र

श्रम और संबंधों को तरजीह देती कविताएं

इस कवि की कविताओं से छिट-पुट मुलाकात होती रही है। हिन्दी के अलावा भोजपुरी में भी लिखते हैंं। इनकी कविताओं में श्रम को मान देने की झलक मिलती रही है। पहली बार उनके  संग्रह की कविताओं से गुजर कर पता चला कि रिश्तों को तरजीह देने की कई कविताएं भी हैं कवि के पास। दादा,पिता,मां आदि को बहुत आत्मीय ढंग से याद किया गया है। बाबा की चिरई, माई की घर-गृहथ्ती, स्नेह ममत्व, पिता की जीवटता-समर्पण मन को मोहने, द्रवित करने का काम करती जाती हैं। इसी तरह फसल काटती मजूरन, साइकिल से कोयला ले जाते लोग,ईंट पाथने वाले, आदीवासी औरत आदि पर कविताएं भी। कविता संग्रह का नाम है-' समय की ठनक' । इसे लोकायत प्रकाशन ,वाराणसी ने छापा है। आलोचक गोपाल प्रधान ने इस पर लंबी भूमिका लिखी है।कवि का नाम है बलभद्र। पेशे से आचार्य हैं। जसम जैसे संगठन से जुड़े हुए। जाहिर है, प्रतिरोध का स्वर को भी जगह है इसमें। गोपाल प्रधान सही कहते हैं कि बिहार के भोजपुर का संघर्षशील इलाका कवि का अपना इलाका है, लेकिन उनकी संवेदना उसी क्षेत्र तक सीमित नहीं रहती। वे अपने इस सुपरिचित संसार को लांघकर भूगोल के मामले में नए इलाकों की यात्रा करते हैं....किसी कुशल छायाकार की तरह उन्होंने मेहनत से जुड़े ढेरों बिंब साधे हैं। उनके बिंबों में गति है।
यह सच है। उनकी कई कविताएं इसकी गवाही देतीं हैं। जैसे कि रोपनहारिनें को ही देखें-

रोपनहारिनें
बड़े ही विश्वास के साथ
दूधमुँह थाती को सौंप थकी उम्र को
आँगन से दिनभर की मुहलत माँग
छतनार आकाश की छाँव तले
अपने अथक श्रम सीकरों से
हरियाली रचने के व्रत के साथ निकलती हैं रोपनिहारिनें
चेहरे पर मेहनत की मटमैली चमक
बोली में रहर की ढेंढियों-सी खनक
मेड़ों पर पछुआ की ठसक ठिठोली
गीले अहसासों से गदरायी धरती
लचक गये पाँव
धसक गयी मेंड़, थोड़ी
सुगबुगाये घास-फूस
पास के महुवे से फड़क उठीं चिड़ियाँ
झेंप गईं हँसकर अल्हड़ रोपनिहारिनें
उमड़-घुमड़ घटाएं
बरसा गईं रिमझिम
जुड़ा गया तन-मन
हवा की थापों पर थिरकी दिशाएं
निहाल हुए हल के हत्थे पर पलभर सुस्ताते हलवाहे
मन ही मन कुपित सूरज
उगलने लगा आग देखजर्रू-सा
अदहन हुआ पानी
युद्धक्षेत्र-सा तनी रही खेतों में जिद्दी रोपनिहारिनें
कभी धूप कभी छाँव के साथ
सीमित में सिमटे बीचड़ों को
देती हैं संभावना और विस्तार
हवा के झोकों से झालर मारते नन्हे नन्हे पौधे
मुँह और पीठ किस दिशा में हों
मुड़ेंगी कलाइयाँ किस कोण से
कब गाएं, सुस्ताएं कब, कैसे--
हवा के रुख को खूब पहचानती हैं रोपनिहारिनें
धरती के पिछड़े हिस्से पर ही सही
जहाँ जमीन और मर्यादा एक मकसद है
जहाँ आकार ले रहा है बदलाव
अपने गीतों से धरती को जगाती
फुफकारते विषधरों के
हर फन का माकूल प्रतिरोध करती हैं रोपनिहारिनें
धरती की धूसर चूनर पर अंकित
अथक शब्दों में
श्रम की अंतहीन गाथा, जिसे
बांचती हुई पुरखों की जन्मपत्री
उसके अंजाम तक पहुंचाएंगी रोपनिहारिनें
......
बड़की माई (बड़ी मां)कविता ग्राम्य समाज की पूरी तस्वीर को ही पेश कर देती है- पढ़ी जाए यह-

बड़की माई
तब यह मकान बड़ा था
इसमें दस कमरें और दो निकास थे
एक सीढ़ी घर और एक शौचालय
आँगन भी था अच्छा-खासा
इस मकान में तुम्हारा भी था अपना एक कमरा
और उस कमरे में एक पलंग
पलंग के नीचे रखी रहती थी एक बक्सा
मझोले कद-काठी का
बक्से की कुण्डी थी एकदम दुरुस्त
उसमें ताला लगाना तुम कभी नहीं भूलती
तीरथ-धाम या किसी गंगा-स्नान या मेला-बाजार कर
जब भी तुम लौटती
हाथ-मुँह धोने से पहले अपना वो बक्सा खोलती
और उसमें कुछ रखती-सहेजती
हम तब छोटे थे और हमसबों के सिवा
और किसी को उस बक्से में नहीं थी कोई दिलचस्पी
घर की औरतों के लिए तो वह मजाक का विषय था
पर, हम सबों के लिए वह
बतासा, मोतीचूर, बेलग्रामी, लकठो आदि का भंडार था
जिसकी बाक्साइन गंध
हम नहीं भूल पाए हैं आजतक
ओ बड़की माई !
लोग तुम्हें कहते थे मुसमात
ईया तुमको कहती थी जीवन बो
हम तब नहीं जानते थे
कि मुसमात दरअसल है किस बला का नाम
हम तो यही जानते थे
कि मुसमात तीरथ-धाम, गंगा-स्नान, मेला-बाजार करती है
गाँव में बारात जब आती है और उसमें नाच-काच होता है
तो बच-छिपकर रात-रातभर नाच-काच देखती है
हमसबों के लिए अपने बक्से में
बतासा, मोतीचूर, बेलग्रामी, लकठो रखती है
सबकी नजरों से बच-बचाकर देती है
बिना किसी से पूछे-आछे वह
चुपके से कहीं का कहीं निकल जाती है
नहा-धोकर धूप-बाती करती है कुछ गाती-गुनगुनाती है
जिसका पूरापूरी मरम खुला बहुत बाद में
और खुला तो मन आँसुओं से हुआ तर
अपने बक्से में तुम ताला लगाना कभी नहीं भूलती
पर कमरे की महज जंजीर चढ़ा तुम निकल पड़ती
अचानक किसी सुबह
और किसी को कुछ पता नहीं होता
कभी सुबह निकलती तो शाम को ही आ धमकती
कभी गायब रहती हफ्ता-दस दिन
तुम्हारा गायब रहना किसी को भी नहीं अखरता
घर-आँगन के क्रिया-कलाप सब यथावत
अचानक जब आ धमकती किसी सुबह या सांझ
घर की कोई औरत लोटा में पानी ले तुम्हारे धो देती पॉंव
और तीरथ-धाम के अर्जित सारे पुण्य
उसको असीसने में तुम खर्च कर देती
और हम सब तुम्हारे आस-पास मंडराते
कि बक्से से अबकी देखते हैं निकलता है क्या!
तुम रोज नहाती
सूरज महाराज को जल चढाती
अपने कमरे की दीवार पर खूंटियों के सहारे टिके तखते पर
देवी-देवताओं की मूरतों पर जल छिड़कती
धूप-बाती दिखाती
कुछ बुदबुदाती कुछ गाती-
'सूतल रहलीं पलंग पर हो गुरूजी दिहलें जगाय'
तुम्हारे कमरे की पलंग और मूरतों से जोड़कर
मोटा एक अरथ उचरता तब जेहन में
कि इन्हीं मूरतों के जगाने से तुम निकल पड़ती हो तीरथ-धाम
हम सांझ को कभी तुमसे कथा कहने को कहते
तुम सुनाती कोई न कोई कथा
और इसके बाद हम चले जाते अपनी अपनी माँ के पास
और खा-पीकर तुम्हारे कथा-पात्रों के साथ
हम चले जाते नींद के सपनों की दुनिया में
और तुम अपने उस कमरे में अपनी अंतर्ध्वनियों के साथ
धूप -बाती दिखाते तुम गाती गुनगुनाती अक्सर जो एक गीत
उसकी एक पंक्ति कौंधती है बारम्बार
'सामी के सुरतिया मनवा में रखतीं '
जब भी तुम गुनगुनाती यह गीत
स्वर तुम्हारा भींगा भींगा सा लगता
शीघ्र स्नान का प्रभाव तो यह बिलकुल नहीं था
जिस सामी की स्मृतियों में
तुम भिंगोये रखना चाहती थी अपने को
उसकी सूरत को चित् से उतरने नहीं देना चाहती थी
सब कठिन हो चला था तुम्हारे लिए
ओह री माई !
अपनी इस पंक्ति के साथ
ताजिंदगी तुम बनी रही जीवन बो
जीवन सिंह के नहीं होने के बावजूद
धूप-बाती जस जलती हुई,
पास के कुण्डेश्वर शिव का मेला देखा मैंने तुम्हारे संग
तुमने खिलाई थी जिलेबियाँ
तुम हम सबको नहीं ले जा सकती थी अपने साथ कहीं
कहकर तो नहीं मना किया था किसी ने, पर मना था
गाँव की नदी में नहाने तुम जाती थी अक्सर
नदी के पानी को सराहती कहते हुए कि धारा है एकदम निर्मल
स्वच्छ फिटकिरी की तरह
नदी नहाने का लुत्फ़ हम भी तब उठा लेते थे तुम्हारे संग
ब्रह्मपुर, बक्सर, कशी, प्रयाग, हरिद्वार, मथुरा, वृन्दावन, जगन्नाथ धाम, गंगासागर
कहाँ-कहाँ नहीं गई तुम
पर कोई सुननेवाला नहीं था तुम्हारा यात्रा-संस्मरण
अपने सारे संस्मरणों के साथ अब नहीं हो तुम
राजनीति तुम्हारा विषय नहीं रहा कभी
पर इंदिरा गांधी से तुम्हारा न जाने कैसा अपनापा था
आरा, बक्सर, शाहपुर जहाँ कहीं भी आनेवाली होती
इंदिरा गाँधी
तुम वहां पहुंचे बिना नहीं रही
घर की राजनीतिक धारा के विपरीत
तुमने हमेशा अपना वोट इंदिरा गाँधी को ही दिया
पर सतहत्तर में तुम्हारे भी बोल गए थे बदल
इंदिरा की सपने में भी शिकायत नहीं करनेवाली तुम
कहने लगी थी हत्यारिन
तुम कहा करती थी 'जार केहू के ढेर दिन ना चलल बा ना चली'
वोट देते समय मतदानकर्मी तुम्हारे नाम की परची
तुम्हारे हाथ से ले गुहराते
फूला देवी, पति-जीवन सिंह
शायद यही एक अवसर होता तुम्हारे लिए
किसी कागज़ पर अपने नाम के साथ अपने सामी का नाम अंकित देखने का
तुम थी झक्क गोरी, सुन्दर-सुभेख
बड़े-से मकान के भीतर
एक कमरे में रखे बक्से की ताला-कुण्डी में
अँटका तुम्हारा मन
जब आखिरी धाम को किया पयान
जहाँ केवल जाना होता है
तब भी घर की सेहत पर नहीं पड़ा खास फरक
जिनको रोना था, दो धार रो लिया
तुम्हारे बक्से का वह कुण्डी-ताला एक ही झटके में टूट गया
उस बक्से में पड़ी थी मूरतें देवी-देवताओं की
कुछ बतासे, कुछ बिस्कुट
खुली एक दियासलाई, अगरबत्ती का खुला एक पॉकेट
लाइफ़बॉय, सनलाइट साबुन
कुछ पुराने धुराने कपडे
एक तड़प
गीत की वह पंक्ति-'सामी के सुरतिया मनवा में रखतीं '
जिसको उस वक़्त शायद ही किसी ने सुना हो.
..............
और रिश्ते की प्रगाढ़ता को पेश करती नेम-प्लेट भी गौरेतलब है-

नेम-प्लेट
(छोटे भई विमल के लिए)..
आख़िरकार तुमने लगा ही दिया
मेरा नेम-प्लेट,
जो पड़ा हुआ था बनारस मे यूँ ही
लाकर वहाँ से
गाँव के दुआर के बरामदे में लगा ही दिया तुमने
मैंने तो नहीं बनवाया था इसे
बनवाने को कभी सोचा भी नहीं था
यह तो वर्माजी के उत्साही पुत्रों ने
मुझसे बिना कुछ बताए,
दिया था मेरे जन्म-दिन के उपहार के तौर पर
और यह अबतक का प्रथम उपहार था मेरे जन्म-दिन का.
इसे बनारस में बच्चों ने ज़रूर लगाया दीवार पर
पर, मैने ही उतार दिया एक-दो दिन बाद
जब भी मेरी पड़ती इसपर नज़र
मन ही मन शर्मा जाता रहा
कि इतना तो नहीं हो गया बड़ा
और यह आत्म-प्रदर्शन!
और उसी को तुमने लाकर बनारस से
लगा दिया गाँव पर-
'डॉ बलभद्र सिंह
हिन्दी विभाग,
गिरिडीह कॉलेज, गिरिडीह'.
गाँव पर इसे जब देखा पहली बार,
तो पड़ गया आश्चर्य में
अरे, यह यहाँ कैसे!
फिर फोन किया बनारस
तो मालूम हुआ कि उठा लाए तुम वहाँ से
पोंछ-पांछ कर
और दीवाल मे यहाँ ठोककर कीलें
लगा दिया तुमने
चलो ठीक ही किया
पड़ा हुआ था वहाँ बेमतलब
ठीक ही किया तुमने
और जो किया सो आजकल करता ही कौन है?
भाई का नेम-प्लेट शान से लगाते ही कितने हैं?
तुम्हें मालूम होना चाहिए
कि मेरा यह नाम
पिता के चाचा का है दिया हुआ
उनको मिला था यह नाम जगन्नाथ धाम की यात्रा में
और यह भी मालूम होना चाहिए
कि तुम्हारा नाम पिता के छोटका बाबूजी का है दिया हुआ-
जिनको हमसब कहते थे कलकतवा बाबा
कलकत्ता से पोस्ट-कार्ड पर पर लिखकर भेजा था उन्होंने।
बिमल अर्थ सहित......
..........
'समय की ठनक' की कविताओं में ऐसी कई पठनीय कविताएं है, जिससे गुजरना संवेदना के सागर में डुबकी लगाने जैसा है। इसमें दर्ज 'कविता मेरी' बताती है कि कवि ने ये कविताएँ क्यों लिखी हैं। कवि को अपने समय की विद्रूपताएं बाध्य करती हैं कुछ सोचने-विचारने और उन पर कुछ कहने के लिए। संग्रह की पहली कविता अन्न हैं, कलपेंगे से अन्न की महत्ता को रेखांकित करता है कवि।
आया कि
अन्न हैं, कलपेंगे पड़े-पड़े
धंगाते रहेंगे पैरों तले
ठीक नहीं इनका अपमान
वह तो चिरई है बाबा की कविता की यह पंक्तियां कितनी मार्मिक हैं, इसे देखें-
मैं बड़ा हुआ और होता ही गया
फिर हुआ एक दिन ऐसा
कि चिरई की तरह
बाबा ही उड़ गए फुर्र...
पर, उनकी वह चिरई
मैं जहां-जहां जाता हूं
वहां-वहां जाती है
शिव-शिव गुहराती है
जगाती है रोज
मैं देखता चाहता हूं उसे
इसी तरह की कई कविताएं हैं इसमें। जैसे कि बात ठन गई। छोटी मगर, मजबूती से खड़ी रिक्शेवाले के पक्ष में-
धक्का खाया
भरी सड़क पर रिक्शा छितराया
रह गए हम सब हक्के-बक्के
कहीं से कोई बोल न पाया
खड़ा हो गया रिक्शावाला
देह झाड़ कर
गोल बने दो
बात ठन गई।
........
पुलिस फायरिंग, जातीय संघर्ष, जनसंहार जैसी दुखद वारदातों पर भी साहस के साथ दर्ज हुईं हैं कविताएं।
कोई सुने तो एक छोटी कविता है।
चल रही है गेहूं की कटाई
ताबड़तोड़ चल रहे हैं हंसिये
खेतों से उठ रहा है एक संगीत चतुर्दिक
कोई सुने तो समझे
झींगुरों ने भी इसमें डाली है जान।
कवि ने अपनी इस किताब को समर्पित किया है कथाकार मार्कण्डेय की स्मृति को।
इस किताब की कविताएं पढ़ी जानी चाहिए।

सोमवार, 28 फ़रवरी 2022

पाठकीय!

 1.

शिव कुमार यादव
पाठकीय! 
अरसा बाद एक साथ कई कहानियों पढ़ने का मौका हाथ लगा। इन कहानियों को पढ़ते हुए मन खराब हो गया। गाँवों में आधुनिकता के असबाब तो पहुंच गए, आधुनिक विचारों की आमद मगर अत्यंत कम। बदले तो बदले कैसे मंजर / पोशाकें बदलीं,रहे ख्यालात वहीं। जातिवाद का नाग अब भी फन काढ़े हुए। राजनीति की तिकड़में, जातीय तनाव की मार भरपूर। लड़ाने-भिड़ाने में मजा लेने वाले कम नहीं, संबंधों में नई-नई पेंच। मुकदमें में मिट जाएंगे गम नहीं। कथित नाक की लड़ाई से बाज नहीं आएंगे। आँगन बंटने की, खेत बंटने की पीड़ा से छुटकारा नहीं। गाँव से शहर जाकर हालात सुधारने की कोशिशों पर भी अब आफत बन आई है। दंगे-फसाद, क्षेत्रीयता की भावनाओं में उछाल आदि घर वापसी की सौगात पेश करने लगी है। इधर खेती में अनिश्चितता है तो उधर रोजगार पर मार। कहो कहाँ जाओगे, मनचाही दुनिया कहाँ बसाओगे! 
औरतें अब भी दोहरी मार को झेलती हुईं। देह बेचने की मजबूरी बरकरार है, जला दी गई औरत सती माई के रूप में पूजी जा रही है। घर-गाँव से खदेड़ दी गई गरीब की बेटी, जो प्रसव पीड़ा की भेंट चढ़ जाती है, उसे संतान की मन्नत पूरी करने वाली माई के रूप में स्थापित कर दिया जाता है। 'हंसली माई की जै' कहानी में इसी विडंबना को रेखांकित किया गया है। ऐसी ही विडंबनाओं, विसंगतियों के तमाम ब्यौरे हैं इस किताब की सोलह कहानियों में। किताब का नाम है  'भूर...भू..स्वाहा'। नेकी का, आदमीयत का स्वाहा होने का जैसे यह समय। 'मरकहा' कहानी में एक झटके से जैसे बिगडैल बैलों से पिण्ड छुड़ाने की असंवेदनशीलता ठीक वैसे ही हाड़-मांस के भदई से भी, जो बाबूसाहब की खेती-मवेशी को संभालने में उम्र खपा रहा होता है। 
इस किताब के कहानीकार हैं शिव कुमार यादव। वे प. बंगाल के शिल्पांचल के बर्नपुर में रहकर लेखन में रमे हुए हैं। उनकी यह किताब समर्पित है देश के उन किसानों के लिए, जो अपने हक के लिए लड़ाई लड़ते हुए शहीद हो गए। इन कहानियों को पढ़ने के बाद यह कहा जा सकता है की हमारे बीच हवा- हवाई ही नहीं, जमीनी यथार्थ पर नजर रखने वाले कथाकार भी हमारे बीच हैं। शिव कुमार एक ऐसे ही कलमकार हैं। भोजपुरी अंचल से आने वाले कथाकार अपने उस अंचल के अर्द्ध-सामंती समाज के पर्वेक्षण- निरीक्षण में सफल लगते हैं। 
किताब को दिल्ली के 'अनिरुद्ध बुक्स' ने छापा है। मूल्य 400 रु. है। 

2.
बलभद्र
श्रम और संबंधों को तरजीह देती कविताएं

इस कवि की कविताओं से छिट-पुट मुलाकात होती रही है। हिन्दी के अलावा भोजपुरी में भी लिखते हैंं। इनकी कविताओं में श्रम को मान देने की झलक मिलती रही है। पहली बार उनके  संग्रह की कविताओं से गुजर कर पता चला कि रिश्तों को तरजीह देने की कई कविताएं भी हैं कवि के पास। दादा,पिता,मां आदि को बहुत आत्मीय ढंग से याद किया गया है। बाबा की चिरई, माई की घर-गृहथ्ती, स्नेह ममत्व, पिता की जीवटता-समर्पण मन को मोहने, द्रवित करने का काम करती जाती हैं। इसी तरह फसल काटती मजूरन, साइकिल से कोयला ले जाते लोग,ईंट पाथने वाले, आदीवासी औरत आदि पर कविताएं भी। कविता संग्रह का नाम है-' समय की ठनक' । इसे लोकायत प्रकाशन ,वाराणसी ने छापा है। आलोचक गोपाल प्रधान ने इस पर लंबी भूमिका लिखी है।कवि का नाम है बलभद्र। पेशे से आचार्य हैं। जसम जैसे संगठन से जुड़े हुए। जाहिर है, प्रतिरोध का स्वर को भी जगह है इसमें। गोपाल प्रधान सही कहते हैं कि बिहार के भोजपुर का संघर्षशील इलाका कवि का अपना इलाका है, लेकिन उनकी संवेदना उसी क्षेत्र तक सीमित नहीं रहती। वे अपने इस सुपरिचित संसार को लांघकर भूगोल के मामले में नए इलाकों की यात्रा करते हैं....किसी कुशल छायाकार की तरह उन्होंने मेहनत से जुड़े ढेरों बिंब साधे हैं। उनके बिंबों में गति है।
यह सच है। उनकी कई कविताएं इसकी गवाही देतीं हैं। जैसे कि रोपनहारिनें को ही देखें-

रोपनहारिनें
बड़े ही विश्वास के साथ
दूधमुँह थाती को सौंप थकी उम्र को
आँगन से दिनभर की मुहलत माँग
छतनार आकाश की छाँव तले
अपने अथक श्रम सीकरों से
हरियाली रचने के व्रत के साथ निकलती हैं रोपनिहारिनें
चेहरे पर मेहनत की मटमैली चमक
बोली में रहर की ढेंढियों-सी खनक
मेड़ों पर पछुआ की ठसक ठिठोली
गीले अहसासों से गदरायी धरती
लचक गये पाँव
धसक गयी मेंड़, थोड़ी
सुगबुगाये घास-फूस
पास के महुवे से फड़क उठीं चिड़ियाँ
झेंप गईं हँसकर अल्हड़ रोपनिहारिनें
उमड़-घुमड़ घटाएं
बरसा गईं रिमझिम
जुड़ा गया तन-मन
हवा की थापों पर थिरकी दिशाएं
निहाल हुए हल के हत्थे पर पलभर सुस्ताते हलवाहे
मन ही मन कुपित सूरज
उगलने लगा आग देखजर्रू-सा
अदहन हुआ पानी
युद्धक्षेत्र-सा तनी रही खेतों में जिद्दी रोपनिहारिनें
कभी धूप कभी छाँव के साथ
सीमित में सिमटे बीचड़ों को
देती हैं संभावना और विस्तार
हवा के झोकों से झालर मारते नन्हे नन्हे पौधे
मुँह और पीठ किस दिशा में हों
मुड़ेंगी कलाइयाँ किस कोण से
कब गाएं, सुस्ताएं कब, कैसे--
हवा के रुख को खूब पहचानती हैं रोपनिहारिनें
धरती के पिछड़े हिस्से पर ही सही
जहाँ जमीन और मर्यादा एक मकसद है
जहाँ आकार ले रहा है बदलाव
अपने गीतों से धरती को जगाती
फुफकारते विषधरों के
हर फन का माकूल प्रतिरोध करती हैं रोपनिहारिनें
धरती की धूसर चूनर पर अंकित
अथक शब्दों में
श्रम की अंतहीन गाथा, जिसे
बांचती हुई पुरखों की जन्मपत्री
उसके अंजाम तक पहुंचाएंगी रोपनिहारिनें
......
बड़की माई (बड़ी मां)कविता ग्राम्य समाज की पूरी तस्वीर को ही पेश कर देती है- पढ़ी जाए यह-

बड़की माई
तब यह मकान बड़ा था
इसमें दस कमरें और दो निकास थे
एक सीढ़ी घर और एक शौचालय
आँगन भी था अच्छा-खासा
इस मकान में तुम्हारा भी था अपना एक कमरा
और उस कमरे में एक पलंग
पलंग के नीचे रखी रहती थी एक बक्सा
मझोले कद-काठी का
बक्से की कुण्डी थी एकदम दुरुस्त
उसमें ताला लगाना तुम कभी नहीं भूलती
तीरथ-धाम या किसी गंगा-स्नान या मेला-बाजार कर
जब भी तुम लौटती
हाथ-मुँह धोने से पहले अपना वो बक्सा खोलती
और उसमें कुछ रखती-सहेजती
हम तब छोटे थे और हमसबों के सिवा
और किसी को उस बक्से में नहीं थी कोई दिलचस्पी
घर की औरतों के लिए तो वह मजाक का विषय था
पर, हम सबों के लिए वह
बतासा, मोतीचूर, बेलग्रामी, लकठो आदि का भंडार था
जिसकी बाक्साइन गंध
हम नहीं भूल पाए हैं आजतक
ओ बड़की माई !
लोग तुम्हें कहते थे मुसमात
ईया तुमको कहती थी जीवन बो
हम तब नहीं जानते थे
कि मुसमात दरअसल है किस बला का नाम
हम तो यही जानते थे
कि मुसमात तीरथ-धाम, गंगा-स्नान, मेला-बाजार करती है
गाँव में बारात जब आती है और उसमें नाच-काच होता है
तो बच-छिपकर रात-रातभर नाच-काच देखती है
हमसबों के लिए अपने बक्से में
बतासा, मोतीचूर, बेलग्रामी, लकठो रखती है
सबकी नजरों से बच-बचाकर देती है
बिना किसी से पूछे-आछे वह
चुपके से कहीं का कहीं निकल जाती है
नहा-धोकर धूप-बाती करती है कुछ गाती-गुनगुनाती है
जिसका पूरापूरी मरम खुला बहुत बाद में
और खुला तो मन आँसुओं से हुआ तर
अपने बक्से में तुम ताला लगाना कभी नहीं भूलती
पर कमरे की महज जंजीर चढ़ा तुम निकल पड़ती
अचानक किसी सुबह
और किसी को कुछ पता नहीं होता
कभी सुबह निकलती तो शाम को ही आ धमकती
कभी गायब रहती हफ्ता-दस दिन
तुम्हारा गायब रहना किसी को भी नहीं अखरता
घर-आँगन के क्रिया-कलाप सब यथावत
अचानक जब आ धमकती किसी सुबह या सांझ
घर की कोई औरत लोटा में पानी ले तुम्हारे धो देती पॉंव
और तीरथ-धाम के अर्जित सारे पुण्य
उसको असीसने में तुम खर्च कर देती
और हम सब तुम्हारे आस-पास मंडराते
कि बक्से से अबकी देखते हैं निकलता है क्या!
तुम रोज नहाती
सूरज महाराज को जल चढाती
अपने कमरे की दीवार पर खूंटियों के सहारे टिके तखते पर
देवी-देवताओं की मूरतों पर जल छिड़कती
धूप-बाती दिखाती
कुछ बुदबुदाती कुछ गाती-
'सूतल रहलीं पलंग पर हो गुरूजी दिहलें जगाय'
तुम्हारे कमरे की पलंग और मूरतों से जोड़कर
मोटा एक अरथ उचरता तब जेहन में
कि इन्हीं मूरतों के जगाने से तुम निकल पड़ती हो तीरथ-धाम
हम सांझ को कभी तुमसे कथा कहने को कहते
तुम सुनाती कोई न कोई कथा
और इसके बाद हम चले जाते अपनी अपनी माँ के पास
और खा-पीकर तुम्हारे कथा-पात्रों के साथ
हम चले जाते नींद के सपनों की दुनिया में
और तुम अपने उस कमरे में अपनी अंतर्ध्वनियों के साथ
धूप -बाती दिखाते तुम गाती गुनगुनाती अक्सर जो एक गीत
उसकी एक पंक्ति कौंधती है बारम्बार
'सामी के सुरतिया मनवा में रखतीं '
जब भी तुम गुनगुनाती यह गीत
स्वर तुम्हारा भींगा भींगा सा लगता
शीघ्र स्नान का प्रभाव तो यह बिलकुल नहीं था
जिस सामी की स्मृतियों में
तुम भिंगोये रखना चाहती थी अपने को
उसकी सूरत को चित् से उतरने नहीं देना चाहती थी
सब कठिन हो चला था तुम्हारे लिए
ओह री माई !
अपनी इस पंक्ति के साथ
ताजिंदगी तुम बनी रही जीवन बो
जीवन सिंह के नहीं होने के बावजूद
धूप-बाती जस जलती हुई,
पास के कुण्डेश्वर शिव का मेला देखा मैंने तुम्हारे संग
तुमने खिलाई थी जिलेबियाँ
तुम हम सबको नहीं ले जा सकती थी अपने साथ कहीं
कहकर तो नहीं मना किया था किसी ने, पर मना था
गाँव की नदी में नहाने तुम जाती थी अक्सर
नदी के पानी को सराहती कहते हुए कि धारा है एकदम निर्मल
स्वच्छ फिटकिरी की तरह
नदी नहाने का लुत्फ़ हम भी तब उठा लेते थे तुम्हारे संग
ब्रह्मपुर, बक्सर, कशी, प्रयाग, हरिद्वार, मथुरा, वृन्दावन, जगन्नाथ धाम, गंगासागर
कहाँ-कहाँ नहीं गई तुम
पर कोई सुननेवाला नहीं था तुम्हारा यात्रा-संस्मरण
अपने सारे संस्मरणों के साथ अब नहीं हो तुम
राजनीति तुम्हारा विषय नहीं रहा कभी
पर इंदिरा गांधी से तुम्हारा न जाने कैसा अपनापा था
आरा, बक्सर, शाहपुर जहाँ कहीं भी आनेवाली होती
इंदिरा गाँधी
तुम वहां पहुंचे बिना नहीं रही
घर की राजनीतिक धारा के विपरीत
तुमने हमेशा अपना वोट इंदिरा गाँधी को ही दिया
पर सतहत्तर में तुम्हारे भी बोल गए थे बदल
इंदिरा की सपने में भी शिकायत नहीं करनेवाली तुम
कहने लगी थी हत्यारिन
तुम कहा करती थी 'जार केहू के ढेर दिन ना चलल बा ना चली'
वोट देते समय मतदानकर्मी तुम्हारे नाम की परची
तुम्हारे हाथ से ले गुहराते
फूला देवी, पति-जीवन सिंह
शायद यही एक अवसर होता तुम्हारे लिए
किसी कागज़ पर अपने नाम के साथ अपने सामी का नाम अंकित देखने का
तुम थी झक्क गोरी, सुन्दर-सुभेख
बड़े-से मकान के भीतर
एक कमरे में रखे बक्से की ताला-कुण्डी में
अँटका तुम्हारा मन
जब आखिरी धाम को किया पयान
जहाँ केवल जाना होता है
तब भी घर की सेहत पर नहीं पड़ा खास फरक
जिनको रोना था, दो धार रो लिया
तुम्हारे बक्से का वह कुण्डी-ताला एक ही झटके में टूट गया
उस बक्से में पड़ी थी मूरतें देवी-देवताओं की
कुछ बतासे, कुछ बिस्कुट
खुली एक दियासलाई, अगरबत्ती का खुला एक पॉकेट
लाइफ़बॉय, सनलाइट साबुन
कुछ पुराने धुराने कपडे
एक तड़प
गीत की वह पंक्ति-'सामी के सुरतिया मनवा में रखतीं '
जिसको उस वक़्त शायद ही किसी ने सुना हो.
..............
और रिश्ते की प्रगाढ़ता को पेश करती नेम-प्लेट भी गौरेतलब है-

नेम-प्लेट
(छोटे भई विमल के लिए)..
आख़िरकार तुमने लगा ही दिया
मेरा नेम-प्लेट,
जो पड़ा हुआ था बनारस मे यूँ ही
लाकर वहाँ से
गाँव के दुआर के बरामदे में लगा ही दिया तुमने
मैंने तो नहीं बनवाया था इसे
बनवाने को कभी सोचा भी नहीं था
यह तो वर्माजी के उत्साही पुत्रों ने
मुझसे बिना कुछ बताए,
दिया था मेरे जन्म-दिन के उपहार के तौर पर
और यह अबतक का प्रथम उपहार था मेरे जन्म-दिन का.
इसे बनारस में बच्चों ने ज़रूर लगाया दीवार पर
पर, मैने ही उतार दिया एक-दो दिन बाद
जब भी मेरी पड़ती इसपर नज़र
मन ही मन शर्मा जाता रहा
कि इतना तो नहीं हो गया बड़ा
और यह आत्म-प्रदर्शन!
और उसी को तुमने लाकर बनारस से
लगा दिया गाँव पर-
'डॉ बलभद्र सिंह
हिन्दी विभाग,
गिरिडीह कॉलेज, गिरिडीह'.
गाँव पर इसे जब देखा पहली बार,
तो पड़ गया आश्चर्य में
अरे, यह यहाँ कैसे!
फिर फोन किया बनारस
तो मालूम हुआ कि उठा लाए तुम वहाँ से
पोंछ-पांछ कर
और दीवाल मे यहाँ ठोककर कीलें
लगा दिया तुमने
चलो ठीक ही किया
पड़ा हुआ था वहाँ बेमतलब
ठीक ही किया तुमने
और जो किया सो आजकल करता ही कौन है?
भाई का नेम-प्लेट शान से लगाते ही कितने हैं?
तुम्हें मालूम होना चाहिए
कि मेरा यह नाम
पिता के चाचा का है दिया हुआ
उनको मिला था यह नाम जगन्नाथ धाम की यात्रा में
और यह भी मालूम होना चाहिए
कि तुम्हारा नाम पिता के छोटका बाबूजी का है दिया हुआ-
जिनको हमसब कहते थे कलकतवा बाबा
कलकत्ता से पोस्ट-कार्ड पर पर लिखकर भेजा था उन्होंने।
बिमल अर्थ सहित......
..........
'समय की ठनक' की कविताओं में ऐसी कई पठनीय कविताएं है, जिससे गुजरना संवेदना के सागर में डुबकी लगाने जैसा है। इसमें दर्ज 'कविता मेरी' बताती है कि कवि ने ये कविताएँ क्यों लिखी हैं। कवि को अपने समय की विद्रूपताएं बाध्य करती हैं कुछ सोचने-विचारने और उन पर कुछ कहने के लिए। संग्रह की पहली कविता अन्न हैं, कलपेंगे से अन्न की महत्ता को रेखांकित करता है कवि।
आया कि
अन्न हैं, कलपेंगे पड़े-पड़े
धंगाते रहेंगे पैरों तले
ठीक नहीं इनका अपमान
वह तो चिरई है बाबा की कविता की यह पंक्तियां कितनी मार्मिक हैं, इसे देखें-
मैं बड़ा हुआ और होता ही गया
फिर हुआ एक दिन ऐसा
कि चिरई की तरह
बाबा ही उड़ गए फुर्र...
पर, उनकी वह चिरई
मैं जहां-जहां जाता हूं
वहां-वहां जाती है
शिव-शिव गुहराती है
जगाती है रोज
मैं देखता चाहता हूं उसे
इसी तरह की कई कविताएं हैं इसमें। जैसे कि बात ठन गई। छोटी मगर, मजबूती से खड़ी रिक्शेवाले के पक्ष में-
धक्का खाया
भरी सड़क पर रिक्शा छितराया
रह गए हम सब हक्के-बक्के
कहीं से कोई बोल न पाया
खड़ा हो गया रिक्शावाला
देह झाड़ कर
गोल बने दो
बात ठन गई।
........
पुलिस फायरिंग, जातीय संघर्ष, जनसंहार जैसी दुखद वारदातों पर भी साहस के साथ दर्ज हुईं हैं कविताएं।
कोई सुने तो एक छोटी कविता है।
चल रही है गेहूं की कटाई
ताबड़तोड़ चल रहे हैं हंसिये
खेतों से उठ रहा है एक संगीत चतुर्दिक
कोई सुने तो समझे
झींगुरों ने भी इसमें डाली है जान।
कवि ने अपनी इस किताब को समर्पित किया है कथाकार मार्कण्डेय की स्मृति को।
इस किताब की कविताएं पढ़ी जानी चाहिए।
3.
रोमेंद्र कुशवाहा
कहानी संग्रह का नाम है - 'आसमां से आगे'। इसे पढ़ते ही इस गाने का मुखड़ा याद आ गया जाने क्यों-

'आसमां के नीचे, हम आज अपने पीछे
प्यार का जहाँ बसा के चले
कदम के निशाँ, बना के चले... '

लेकिन प्यार का जहाँ बनाना इतना आसान भी नहीं। 
संग्रह की कहानियों को पढ़ते हुए भी ऐसा लगता है। बहरहाल, इस संग्रह में कुल बारह कहानियाँ हैं,जो शहरी निम्न-मध्य वर्ग से ताल्लुक रखती हैं। इनमें समाज के छद्म हैं, संघर्ष हैं और हैं मामूली सपने। स्त्री और पारिवारिक विडंबनाएँ भी। पहली कहानी बदलते समाज  बदलती मानसिकता का परिचय देती है- कुछ अचंभित करती। निष्ठा उसके घर में किरायेदार के रूप में आती है, मल्टीनेशनल कंपनी में काम करती है, प्रतियोगी परीक्षा की तैयारी भी। वह बीटेक है, किसी कंस्ट्रक्शन कंपनी में काम कर रहा है। निष्ठा के पिता की सलाह पर भारतीय प्रशासनिक सेवा के लिए तैयारी करता है। अपने घर के पास ही निष्ठा के पिता के प्लाट पर घर बनाने में मदद करता है। और आईएएस की परीक्षा भी पास कर लेता है। उसकी माँ निष्ठा को बहू के रूप में देखने लगती है, पर पढ़ी-लिखी सुंदर लड़की काले कुरूप विधायक से शादी करने के लिए तैयार हो जाती है और 'अच्छा पड़ोसी' ठगा-सा। आईएएस पर एमएलए भारी पड़ जाता है। उपभोक्तावाद ने संबंधों, भावनाओं की क्या गति कर दी है, यह कहानी यही बताती है। संग्रह की आमुख कथा 'आसमां से आगे' पुरुषवादी सोच पर प्रहार करती स्त्री विमर्श की कहानी है। कामकाजी स्त्री की तकलीफों को बयां करती। स्कूल शिक्षिका बबिता, सास, पति की असंवेदनशीलता की चक्की में पीसते हुए अंततः दुश्वारियों पर जीत दर्ज करती है। इसी तरह एक कहानी 'परिवर्तन' पुरुष अहं और दांव पेंच को उजागर करती है। 'घूटन' कहानी में नौकरी छूट जाने से बेरोजगार हो गए व्यक्ति की व्यथा- कथा पेश करती है। 'दंश' कहानी में स्वाभाविक मृत्यु को हत्या, आत्महत्या में दिखाने की विडंबना- झूठ का पर्दाफाश करती है। भू-माफियाओं के करतब से परेशान लोगों की कहानी कहती है 'भूभक्षी'! 'लुटेरे' में मजदूर वर्ग की लाचारी और उसके प्रति उदासीनता का चित्रण है। 'मुक्ति', 'ईमान का मसीहा' भी समाज में पैठ बना चुकी विद्रूपता को सामने लाती है। 'न्यायी का न्याय' न्याय पर भरोसा पैदा करने वाली कहानी है। इसमें एक पुत्र द्वारा अपने पिता को घर से निकाल देने की मार्मिक कथा है। 'उसकी ताकत' यौन शोषण की कहानी है, जिसमें रिश्ते के लोग भी शामिल हैं। 
कुल मिलाकर बदलते समाज की नई विकृतियों पर पैनी नजर है कहानीकार रोमेंद्र कुशवाहा की। इसे देहरादून के 'समय साक्ष्य' ने छापा है। 

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