मंगलवार, 6 अगस्त 2019

पाठकीय !

पाठकीय !

कोई उम्मीद हो जिसमें,खबर वो
बताओ क्या किसी अखबार में है

अब इस शेर का जवाब कोई क्या दे , सवाल में ही दर्ज है । नहीं है , नहीं है , नहीं है...लूट है , चोरी-डकैती है , भ्रष्टाचार है , हत्या है , आत्महत्या है , धोखा है , बलात्कार है और है जुमलों की बाहर । अखबारों में , चैनलों में , सोशल मीडिया में इन्हीं वारदातों की खबरें ।
इसी वजह से अब इस कहे पर भरोसा भी नहीं होता कि -

वो रंजिश में नहीं अब प्यार में है
मेरा  दुश्मन  नये किरदार  में  है

ये दोनों शेर किताब की पहली गजल की है । किताब का नाम है -"तेरा होना तलाशूं" और इस तलाश में सिर खपाने वाले गजलगो हैं विनय मिश्र । अतुकान्त कविता की खेती  के साथ दोहे भी जमकर दूहा है इन्होंने । मगर फिलवक्त इनकी गजलों से मुलाकात ।

ऐसे जीना है कभी सोचा न था
जी रहा था और मैं जिंदा न था
.....
याद  आने  के बहाने  थे कई
भूलने का एक भी रस्ता न था

इसी तरह की विडम्बनाओं से दो-चार की  तमाम जगहें हैं , कोनें हैं विनय की गजलों में, जहां मन दुखी तो कभी बेचैन हो जाता है पाठक का ।
विनय समय सजग कवि हैं और इसलिए वे अभिव्यक्ति के जोखिम उठाने वालों की कतार में शामिल । उनकी हर गजल कुछ कहती , सुनती , बतियाती सी लगती है । लोकोन्मुखी स्वर का सानिध्य का अहसास देती ।

उस हवा के साथ घर की हवा भी बदली
वक्त बदला तो सभी की भूमिका बदली
....
तुम न बतलाओ भले राजी खुशी दिल्ली
मैं तुम्हें  महसूस  करता हूं  अरी  दिल्ली
....
मैं   किसे  चाहूं न  चाहूं    बात  छोटी है
पर ये भी तय कर रही है अब नई दिल्ली
....
इस   तरह भारी   हुई हैं   आजकल रातें
लोग दहशत में हैं जीवन किस तरह काटें

ये शेर इतने सरल और साफ हैं , जो बाजार की, सत्ता की  हमारी जिंदगी में जारी बेरोक-टोक घुसपैठ की ओर इशारा कर देते हैं ।
इस किताब के ब्लर्ब में आलोचक पंकज गौतम के इस कथन से सहमत होने की पूरी गुंजाईश बनती है कि -विनय की गजलों में समकालीन इतिहास अपने समस्त अन्तर्विरोधों के साथ विन्यस्त है । यह ऐतिहासिक गतिशीलता और आधुनिकता की समझ के अभाव में सम्भव नहीं है, चाहे वह अचेत रूप में हो अथवा सचेत रूप में ।....
इस कथन के गवाही देते कुछ शेर, जो ध्यान खींचते हैं -

हाथ में  अपने  लिये परचम  पलाशों का
हर तरफ दहका हुआ मौसम पलाशों का

चाहतों का एक जंगल है या ख्वाबों का
कारवां  लेकर चले   हैं हम  पलाशों का
...
पहले सूली पे मैं चढ़ाऊं भी
फिर मसीहा तुझे बनाऊं भी
....
मिट न जाये जिंदगी का स्वर चलो बातें करें
बेजुबां कर दे न हमको डर चलो बातें करें
....
और जिस शेर से किताब का नाम चुना गया है , एक नजर उस पर भी -
जो डूबा है वही तारा तलाशूं
मैं अपने में तेरा होना तलाशूं

कुल मिलाकर इस किताब के बाबत कहना यह है कि पठनीय है । किसी कविता , गजल की किताब में कुछ कवितायें , काव्य पंक्तियाँ या कोई शेर भी मन में अनुगुंजित होने लगे तो उससे गुजरना सुखकर होता है । इस किताब के साथ ऐसा ही है ।
इसमें ऐसी ही 105 गजलें संग्रहित है । इसे छापा है -शिल्पायन बुक्स ने । इस किताब के लिये समकालीन गजल के परिचित नाम विनय मिश्र को बधाई !

रविवार, 4 अगस्त 2019

कि जैसे हो कोई मंजी कलम

कि जैसे हो कोई मंजी कलम
लेखक की कहानियों की पहली किताब है। कुल जमा छह कहानियां हैं इसमें। पेशे से पत्रकार राम जन्म पाठक की लिखी हैं ये कहानियां। कभी हिंदी पत्रकारिता में भारी उथल-पथल मचाने वाले अखबार के पत्रकार हैं। दिल्ली में ही नौकरी बजाते हैं। जनसत्ता रविवारी से जुड़े रहे। मगर यह किताब आई है इलाहाबाद से। जाहिर है, वहां के किसी प्रकाशक को तैयार नहीं पाये। हालांकि इन दिनों हिंदी साहित्य का वही मक्का-मदीना है। बहरहाल, इस किताब के ब्लर्ब में वरिष्ठ आलोचक-कवि राजेंद्र कुमार लिखते हैं राम जन्म हड़बड़ी के कहानीकार नहीं हैं, तो सही लिखते हैं। 1965 के पाठक की यह पहली किताब 2018 में छप कर आई है। जाहिर है, धीरधारी कलम की कतार वालों में शुमार हैं यह भी।
संग्रह की पहली कहानी `बंदूक' है। यह कोई डेढ़ दशक पहले कथादेश के नवलेखन विशेषांक में छप कर चर्चित हुई थी और इस कहानी पर सागर सरहदी ने फीचर फिल्म भी बनाई। बाकी की कहानियां कब और कहां छपी इसका पता नहीं चलता। वैसे, कहानीकार अपनी बात में बताते हैं कि इन कहानियों के लिखने का क्रम रहा है, छपने में कुछ उलट-पलट गया है...। लेकिन सभी कहानियां पढ़ा ले जाने का माद्दा रखती हैं। राम जन्म का अंदाज अपना है, जुदा है। पात्रों में डूब कर उनकी भाषा, उनके तर्क, उनके परिवेश को जीवंतता प्रदान करते जाते हैं।
जिंदगी तो जैसे-तैसे चलती-घिसटती ही रहती है गांव-गंज के आमजनों की। थोड़ी बेहतरी की तमन्ना किसे नहीं रहती, इस कोशिश में कुछेक सफल रहते हैं तो बहुत सारे असफल। कुछ की जिंदगियां तो उलझ कर तबाह हो जाती हैं। जैसे कि गजाधर की। अपनी मेहरारू जसोदा की उलाहना-झिड़की से प्रेरित हो जब नौकरी की तलाश में जुटते हैं तो चीनी मिल में सुरक्षा कर्मी के रूप में बहाली की संभावना बनती दिखती है, लेकिन शर्त की उसके पास बंदूक होनी चाहिए। बंदूक खरीदने से ज्यादा टेढ़ी खीर है, उसका लैसन बनवाना। इसी कोशिश में दुर्गति-मुसीबतों का आमंत्रण दे बैठते हैं गजाधर-जसोदा। सरकारी महकमें के ठगी तंत्र से परेशान होकर गजाधर एक छुटभैयै नेता विक्रमा सिंह के जाल में फंस जाता है। पैसे के लिए जसोदा को अपने छोटे भाई के पास गिरवी तक रख देता है। गोंजर से दस हजार का कर्ज लेता है, उसकी शर्त के मुताबिक कि वह जब तक कर्ज न चुका दे तब तक जसोदा उसकी। पर जसोदा को यह सब कहां पता। वह देवर, जिससे उससे शादी होने वाली थी, पर विकलांग होने के कारण लड़की पक्ष के एतराज किए जाने पर गांव-घर की राय से बड़े भाई गजाधर से शादी करा दी जाती है। रहस्य के खुलासे के बाद झगड़ा-फसाद, मार-पीट की नौबत। खद्दरधारी दलाल से लुट जाने के बाद शराब के नशे में जब गजाधर गांव लौटता है तो गोंजर से हुए समझौते को मानने के बाबत जसोदा से सवाल-जवाब करता है। उसे अंधेरे में किए गए अनैतिक समझौते को मानने से जब वह इंकार कर देती तो गजाधर जसोदा पर हाथ उठाता है। प्रतिक्रिया में वह भी उसके मर्मस्थल पर लात जमा कर कहीं चल देती है।  यह कहानी एक तरफ गांवों की बदहाल जिंदगियों की दुर्दशा को पेश करती है तो दूसरी तरफ महिला स्वाभिमान की गाथा भी सुनाती है।-तुमने मेरी कीमत लगाई,मुझे इसका दुख नहीं है। हम तो तिरिया जात हैं,हरमेसा बिकती आई हैं। तुमने कौन गुनाह किया। दुख इस बात का है कि खरीदने वाले से पता चला कि मैं बिक चुकी हूं।सात फेरी की कुछ तो लाज रख ली होती। भला ई कौन वेद-बिधान का न्याव है कि जब चाहो तब राखौ और जब चाहो तो किसी और को सौंप दो।... इस कहानी को पढ़ते रेणु की याद आ जाती है। उनकी कहानियों के पात्रों की। मारे गए गुलफाम उर्फ तीसरी कसम, पंचलाईट, रसप्रिया, के पात्रों की।
दूसरी कहानी `थोड़ा हटकर' में शराब से तौबा कर चुके एक शरीफ की दूसरे शराबी के साथ बतकही है। स्त्री-पुरुष संबंधों पर उसकी अपनी राय है, जिसमें स्त्री के रिश्ते निभाने का पक्ष मजबूत है। `...उसे शराब से नहीं, तुम्हारी यह ओढ़ी हुई नफासत से चिढ़ थी। उसने तुम्हें बेनकाब कर दिया।'
तीसरी कहानी है सत्यकथा की तरह लगने वाली `हम किनारे लग भी सकते थे' । इस प्रेमकथा में अपने समय की विसंगतियों के साथ प्रेम के अपने तौर-तरीके और समझ का ब्यौरा है, नैतिकता-अनैतिकता के बीच जिरह है, जो दिलचस्प है। प्रेम को बांचने, समझने, जीने के अपने तौर-तरीके हैं, जहां विचित्रताओं का ताना-बाना है।
चौथी कहानी `निरीक्षण' है-नौकरशाही को बेनकाब करती। राजनीति से डरी-सहमी। मगर खुद में असंवेदनशील, अत्याचारी नौकरशाही। इसकी चिंदी-चिंदी उड़ाती है यह कहानी।
`पनाह' कहानी में बाबरी मस्जिद विध्वंस से पैदा हालात और पत्रकारिता की विसंगतियों से दो-चार कराती है। बहुत खुले दिमाग का पत्रकार भी आशंकाओं से घिर जाता है। सांप्रदायिक ध्रुवीकरण ने समाज की एका और भाईचारे को, आपसी विश्वास को कितनी बुरी तरह से खंडित किया है, यह कहानी इसे बताती चलती है। एक मुस्लिम परिवार में बतौर किरायेदार रह रहा है पत्रकार। वह भी इरशाद के साथ बतौर रूम पार्टनर। तनाव तो पहले से ही था और जब मस्जिद के सारे गुंबद गिरा दिए गए तो माहौल बिगड़ना ही था, ऐसे तमाम आशंकाओं के साथ वह दफ्तर से घर लौटता है। फिर सुरक्षित इलाके में चले जाने के लिए गेट तक पहुंचता है तो सलमा भाभी उसे रोक देती है। इस वारदात से नाराज लोग सड़कों पर उतरते हैं और भीड़ उसके घर की ओर नारे लगाते आती लगती है तो वह उसे कमरे में ले जाकर, तख्त के नीचे पनाह देती है। इस दौरान उसकी दारूण मनःस्थिति का लाजवाब चित्रण है इस कहानी में।
आखिरी कहानी `हां कहूं या ना' भी एक प्रेम कहानी है। नायक पत्रकार, अल्प वेतनभोगी, ऐसे में दहेज के कारण टूट गई शादी से परेशान प्रेमिका के प्रस्ताव पर तैश खाता हुआ। कहानी में एक तीसरा भी है। लेखक है और नायक की जुबान में, उससे सफल। वह नायिका को झांसा देता है, मगर स्क्रिप्ट लिखने का काम पाकर मुंबई चला जाता है। प्रेमिका उसके पास आती है फिर तो रिश्ते को हरी झंड़ी को लेकर द्वंद सामने है।
प्रेम, स्त्री स्वाभिमान , निकम्मी, भ्रष्ट, रीढ़हीन नौकरशाही और खुराफाती सांप्रदायिकता को कटघरे में खड़ी करने वाली इन कहानियों की सबसे बड़ी खासियत है, पठनीयता । लेखक की माने तो ये लिखी नहीं गई, लिखवाई गई हैं। इन्हें पढ़ते हुए कुछ ऐसा ही लगता है।
पुस्तकः बंदूक और अन्य कहानियां
मूल्यः दो सौ रुपए
प्रकाशकः साहित्य भंडार, इलाहाबाद