पाठकीय !
कोई उम्मीद हो जिसमें,खबर वो
बताओ क्या किसी अखबार में है
अब इस शेर का जवाब कोई क्या दे , सवाल में ही दर्ज है । नहीं है , नहीं है , नहीं है...लूट है , चोरी-डकैती है , भ्रष्टाचार है , हत्या है , आत्महत्या है , धोखा है , बलात्कार है और है जुमलों की बाहर । अखबारों में , चैनलों में , सोशल मीडिया में इन्हीं वारदातों की खबरें ।
इसी वजह से अब इस कहे पर भरोसा भी नहीं होता कि -
वो रंजिश में नहीं अब प्यार में है
मेरा दुश्मन नये किरदार में है
ये दोनों शेर किताब की पहली गजल की है । किताब का नाम है -"तेरा होना तलाशूं" और इस तलाश में सिर खपाने वाले गजलगो हैं विनय मिश्र । अतुकान्त कविता की खेती के साथ दोहे भी जमकर दूहा है इन्होंने । मगर फिलवक्त इनकी गजलों से मुलाकात ।
ऐसे जीना है कभी सोचा न था
जी रहा था और मैं जिंदा न था
.....
याद आने के बहाने थे कई
भूलने का एक भी रस्ता न था
इसी तरह की विडम्बनाओं से दो-चार की तमाम जगहें हैं , कोनें हैं विनय की गजलों में, जहां मन दुखी तो कभी बेचैन हो जाता है पाठक का ।
विनय समय सजग कवि हैं और इसलिए वे अभिव्यक्ति के जोखिम उठाने वालों की कतार में शामिल । उनकी हर गजल कुछ कहती , सुनती , बतियाती सी लगती है । लोकोन्मुखी स्वर का सानिध्य का अहसास देती ।
उस हवा के साथ घर की हवा भी बदली
वक्त बदला तो सभी की भूमिका बदली
....
तुम न बतलाओ भले राजी खुशी दिल्ली
मैं तुम्हें महसूस करता हूं अरी दिल्ली
....
मैं किसे चाहूं न चाहूं बात छोटी है
पर ये भी तय कर रही है अब नई दिल्ली
....
इस तरह भारी हुई हैं आजकल रातें
लोग दहशत में हैं जीवन किस तरह काटें
ये शेर इतने सरल और साफ हैं , जो बाजार की, सत्ता की हमारी जिंदगी में जारी बेरोक-टोक घुसपैठ की ओर इशारा कर देते हैं ।
इस किताब के ब्लर्ब में आलोचक पंकज गौतम के इस कथन से सहमत होने की पूरी गुंजाईश बनती है कि -विनय की गजलों में समकालीन इतिहास अपने समस्त अन्तर्विरोधों के साथ विन्यस्त है । यह ऐतिहासिक गतिशीलता और आधुनिकता की समझ के अभाव में सम्भव नहीं है, चाहे वह अचेत रूप में हो अथवा सचेत रूप में ।....
इस कथन के गवाही देते कुछ शेर, जो ध्यान खींचते हैं -
हाथ में अपने लिये परचम पलाशों का
हर तरफ दहका हुआ मौसम पलाशों का
चाहतों का एक जंगल है या ख्वाबों का
कारवां लेकर चले हैं हम पलाशों का
...
पहले सूली पे मैं चढ़ाऊं भी
फिर मसीहा तुझे बनाऊं भी
....
मिट न जाये जिंदगी का स्वर चलो बातें करें
बेजुबां कर दे न हमको डर चलो बातें करें
....
और जिस शेर से किताब का नाम चुना गया है , एक नजर उस पर भी -
जो डूबा है वही तारा तलाशूं
मैं अपने में तेरा होना तलाशूं
कुल मिलाकर इस किताब के बाबत कहना यह है कि पठनीय है । किसी कविता , गजल की किताब में कुछ कवितायें , काव्य पंक्तियाँ या कोई शेर भी मन में अनुगुंजित होने लगे तो उससे गुजरना सुखकर होता है । इस किताब के साथ ऐसा ही है ।
इसमें ऐसी ही 105 गजलें संग्रहित है । इसे छापा है -शिल्पायन बुक्स ने । इस किताब के लिये समकालीन गजल के परिचित नाम विनय मिश्र को बधाई !
कोई उम्मीद हो जिसमें,खबर वो
बताओ क्या किसी अखबार में है
अब इस शेर का जवाब कोई क्या दे , सवाल में ही दर्ज है । नहीं है , नहीं है , नहीं है...लूट है , चोरी-डकैती है , भ्रष्टाचार है , हत्या है , आत्महत्या है , धोखा है , बलात्कार है और है जुमलों की बाहर । अखबारों में , चैनलों में , सोशल मीडिया में इन्हीं वारदातों की खबरें ।
इसी वजह से अब इस कहे पर भरोसा भी नहीं होता कि -
वो रंजिश में नहीं अब प्यार में है
मेरा दुश्मन नये किरदार में है
ये दोनों शेर किताब की पहली गजल की है । किताब का नाम है -"तेरा होना तलाशूं" और इस तलाश में सिर खपाने वाले गजलगो हैं विनय मिश्र । अतुकान्त कविता की खेती के साथ दोहे भी जमकर दूहा है इन्होंने । मगर फिलवक्त इनकी गजलों से मुलाकात ।
ऐसे जीना है कभी सोचा न था
जी रहा था और मैं जिंदा न था
.....
याद आने के बहाने थे कई
भूलने का एक भी रस्ता न था
इसी तरह की विडम्बनाओं से दो-चार की तमाम जगहें हैं , कोनें हैं विनय की गजलों में, जहां मन दुखी तो कभी बेचैन हो जाता है पाठक का ।
विनय समय सजग कवि हैं और इसलिए वे अभिव्यक्ति के जोखिम उठाने वालों की कतार में शामिल । उनकी हर गजल कुछ कहती , सुनती , बतियाती सी लगती है । लोकोन्मुखी स्वर का सानिध्य का अहसास देती ।
उस हवा के साथ घर की हवा भी बदली
वक्त बदला तो सभी की भूमिका बदली
....
तुम न बतलाओ भले राजी खुशी दिल्ली
मैं तुम्हें महसूस करता हूं अरी दिल्ली
....
मैं किसे चाहूं न चाहूं बात छोटी है
पर ये भी तय कर रही है अब नई दिल्ली
....
इस तरह भारी हुई हैं आजकल रातें
लोग दहशत में हैं जीवन किस तरह काटें
ये शेर इतने सरल और साफ हैं , जो बाजार की, सत्ता की हमारी जिंदगी में जारी बेरोक-टोक घुसपैठ की ओर इशारा कर देते हैं ।
इस किताब के ब्लर्ब में आलोचक पंकज गौतम के इस कथन से सहमत होने की पूरी गुंजाईश बनती है कि -विनय की गजलों में समकालीन इतिहास अपने समस्त अन्तर्विरोधों के साथ विन्यस्त है । यह ऐतिहासिक गतिशीलता और आधुनिकता की समझ के अभाव में सम्भव नहीं है, चाहे वह अचेत रूप में हो अथवा सचेत रूप में ।....
इस कथन के गवाही देते कुछ शेर, जो ध्यान खींचते हैं -
हाथ में अपने लिये परचम पलाशों का
हर तरफ दहका हुआ मौसम पलाशों का
चाहतों का एक जंगल है या ख्वाबों का
कारवां लेकर चले हैं हम पलाशों का
...
पहले सूली पे मैं चढ़ाऊं भी
फिर मसीहा तुझे बनाऊं भी
....
मिट न जाये जिंदगी का स्वर चलो बातें करें
बेजुबां कर दे न हमको डर चलो बातें करें
....
और जिस शेर से किताब का नाम चुना गया है , एक नजर उस पर भी -
जो डूबा है वही तारा तलाशूं
मैं अपने में तेरा होना तलाशूं
कुल मिलाकर इस किताब के बाबत कहना यह है कि पठनीय है । किसी कविता , गजल की किताब में कुछ कवितायें , काव्य पंक्तियाँ या कोई शेर भी मन में अनुगुंजित होने लगे तो उससे गुजरना सुखकर होता है । इस किताब के साथ ऐसा ही है ।
इसमें ऐसी ही 105 गजलें संग्रहित है । इसे छापा है -शिल्पायन बुक्स ने । इस किताब के लिये समकालीन गजल के परिचित नाम विनय मिश्र को बधाई !
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