1.
शिव कुमार यादव
पाठकीय!
अरसा बाद एक साथ कई कहानियों पढ़ने का मौका हाथ लगा। इन कहानियों को पढ़ते हुए मन खराब हो गया। गाँवों में आधुनिकता के असबाब तो पहुंच गए, आधुनिक विचारों की आमद मगर अत्यंत कम। बदले तो बदले कैसे मंजर / पोशाकें बदलीं,रहे ख्यालात वहीं। जातिवाद का नाग अब भी फन काढ़े हुए। राजनीति की तिकड़में, जातीय तनाव की मार भरपूर। लड़ाने-भिड़ाने में मजा लेने वाले कम नहीं, संबंधों में नई-नई पेंच। मुकदमें में मिट जाएंगे गम नहीं। कथित नाक की लड़ाई से बाज नहीं आएंगे। आँगन बंटने की, खेत बंटने की पीड़ा से छुटकारा नहीं। गाँव से शहर जाकर हालात सुधारने की कोशिशों पर भी अब आफत बन आई है। दंगे-फसाद, क्षेत्रीयता की भावनाओं में उछाल आदि घर वापसी की सौगात पेश करने लगी है। इधर खेती में अनिश्चितता है तो उधर रोजगार पर मार। कहो कहाँ जाओगे, मनचाही दुनिया कहाँ बसाओगे!
औरतें अब भी दोहरी मार को झेलती हुईं। देह बेचने की मजबूरी बरकरार है, जला दी गई औरत सती माई के रूप में पूजी जा रही है। घर-गाँव से खदेड़ दी गई गरीब की बेटी, जो प्रसव पीड़ा की भेंट चढ़ जाती है, उसे संतान की मन्नत पूरी करने वाली माई के रूप में स्थापित कर दिया जाता है। 'हंसली माई की जै' कहानी में इसी विडंबना को रेखांकित किया गया है। ऐसी ही विडंबनाओं, विसंगतियों के तमाम ब्यौरे हैं इस किताब की सोलह कहानियों में। किताब का नाम है 'भूर...भू..स्वाहा'। नेकी का, आदमीयत का स्वाहा होने का जैसे यह समय। 'मरकहा' कहानी में एक झटके से जैसे बिगडैल बैलों से पिण्ड छुड़ाने की असंवेदनशीलता ठीक वैसे ही हाड़-मांस के भदई से भी, जो बाबूसाहब की खेती-मवेशी को संभालने में उम्र खपा रहा होता है।
इस किताब के कहानीकार हैं शिव कुमार यादव। वे प. बंगाल के शिल्पांचल के बर्नपुर में रहकर लेखन में रमे हुए हैं। उनकी यह किताब समर्पित है देश के उन किसानों के लिए, जो अपने हक के लिए लड़ाई लड़ते हुए शहीद हो गए। इन कहानियों को पढ़ने के बाद यह कहा जा सकता है की हमारे बीच हवा- हवाई ही नहीं, जमीनी यथार्थ पर नजर रखने वाले कथाकार भी हमारे बीच हैं। शिव कुमार एक ऐसे ही कलमकार हैं। भोजपुरी अंचल से आने वाले कथाकार अपने उस अंचल के अर्द्ध-सामंती समाज के पर्वेक्षण- निरीक्षण में सफल लगते हैं।
किताब को दिल्ली के 'अनिरुद्ध बुक्स' ने छापा है। मूल्य 400 रु. है।
2.
बलभद्र
श्रम और संबंधों को तरजीह देती कविताएं
इस कवि की कविताओं से छिट-पुट मुलाकात होती रही है। हिन्दी के अलावा भोजपुरी में भी लिखते हैंं। इनकी कविताओं में श्रम को मान देने की झलक मिलती रही है। पहली बार उनके संग्रह की कविताओं से गुजर कर पता चला कि रिश्तों को तरजीह देने की कई कविताएं भी हैं कवि के पास। दादा,पिता,मां आदि को बहुत आत्मीय ढंग से याद किया गया है। बाबा की चिरई, माई की घर-गृहथ्ती, स्नेह ममत्व, पिता की जीवटता-समर्पण मन को मोहने, द्रवित करने का काम करती जाती हैं। इसी तरह फसल काटती मजूरन, साइकिल से कोयला ले जाते लोग,ईंट पाथने वाले, आदीवासी औरत आदि पर कविताएं भी। कविता संग्रह का नाम है-' समय की ठनक' । इसे लोकायत प्रकाशन ,वाराणसी ने छापा है। आलोचक गोपाल प्रधान ने इस पर लंबी भूमिका लिखी है।कवि का नाम है बलभद्र। पेशे से आचार्य हैं। जसम जैसे संगठन से जुड़े हुए। जाहिर है, प्रतिरोध का स्वर को भी जगह है इसमें। गोपाल प्रधान सही कहते हैं कि बिहार के भोजपुर का संघर्षशील इलाका कवि का अपना इलाका है, लेकिन उनकी संवेदना उसी क्षेत्र तक सीमित नहीं रहती। वे अपने इस सुपरिचित संसार को लांघकर भूगोल के मामले में नए इलाकों की यात्रा करते हैं....किसी कुशल छायाकार की तरह उन्होंने मेहनत से जुड़े ढेरों बिंब साधे हैं। उनके बिंबों में गति है।
यह सच है। उनकी कई कविताएं इसकी गवाही देतीं हैं। जैसे कि रोपनहारिनें को ही देखें-
रोपनहारिनें
बड़े ही विश्वास के साथ
दूधमुँह थाती को सौंप थकी उम्र को
आँगन से दिनभर की मुहलत माँग
छतनार आकाश की छाँव तले
अपने अथक श्रम सीकरों से
हरियाली रचने के व्रत के साथ निकलती हैं रोपनिहारिनें
चेहरे पर मेहनत की मटमैली चमक
बोली में रहर की ढेंढियों-सी खनक
मेड़ों पर पछुआ की ठसक ठिठोली
गीले अहसासों से गदरायी धरती
लचक गये पाँव
धसक गयी मेंड़, थोड़ी
सुगबुगाये घास-फूस
पास के महुवे से फड़क उठीं चिड़ियाँ
झेंप गईं हँसकर अल्हड़ रोपनिहारिनें
उमड़-घुमड़ घटाएं
बरसा गईं रिमझिम
जुड़ा गया तन-मन
हवा की थापों पर थिरकी दिशाएं
निहाल हुए हल के हत्थे पर पलभर सुस्ताते हलवाहे
मन ही मन कुपित सूरज
उगलने लगा आग देखजर्रू-सा
अदहन हुआ पानी
युद्धक्षेत्र-सा तनी रही खेतों में जिद्दी रोपनिहारिनें
कभी धूप कभी छाँव के साथ
सीमित में सिमटे बीचड़ों को
देती हैं संभावना और विस्तार
हवा के झोकों से झालर मारते नन्हे नन्हे पौधे
मुँह और पीठ किस दिशा में हों
मुड़ेंगी कलाइयाँ किस कोण से
कब गाएं, सुस्ताएं कब, कैसे--
हवा के रुख को खूब पहचानती हैं रोपनिहारिनें
धरती के पिछड़े हिस्से पर ही सही
जहाँ जमीन और मर्यादा एक मकसद है
जहाँ आकार ले रहा है बदलाव
अपने गीतों से धरती को जगाती
फुफकारते विषधरों के
हर फन का माकूल प्रतिरोध करती हैं रोपनिहारिनें
धरती की धूसर चूनर पर अंकित
अथक शब्दों में
श्रम की अंतहीन गाथा, जिसे
बांचती हुई पुरखों की जन्मपत्री
उसके अंजाम तक पहुंचाएंगी रोपनिहारिनें
......
बड़की माई (बड़ी मां)कविता ग्राम्य समाज की पूरी तस्वीर को ही पेश कर देती है- पढ़ी जाए यह-
बड़की माई
तब यह मकान बड़ा था
इसमें दस कमरें और दो निकास थे
एक सीढ़ी घर और एक शौचालय
आँगन भी था अच्छा-खासा
इस मकान में तुम्हारा भी था अपना एक कमरा
और उस कमरे में एक पलंग
पलंग के नीचे रखी रहती थी एक बक्सा
मझोले कद-काठी का
बक्से की कुण्डी थी एकदम दुरुस्त
उसमें ताला लगाना तुम कभी नहीं भूलती
तीरथ-धाम या किसी गंगा-स्नान या मेला-बाजार कर
जब भी तुम लौटती
हाथ-मुँह धोने से पहले अपना वो बक्सा खोलती
और उसमें कुछ रखती-सहेजती
हम तब छोटे थे और हमसबों के सिवा
और किसी को उस बक्से में नहीं थी कोई दिलचस्पी
घर की औरतों के लिए तो वह मजाक का विषय था
पर, हम सबों के लिए वह
बतासा, मोतीचूर, बेलग्रामी, लकठो आदि का भंडार था
जिसकी बाक्साइन गंध
हम नहीं भूल पाए हैं आजतक
ओ बड़की माई !
लोग तुम्हें कहते थे मुसमात
ईया तुमको कहती थी जीवन बो
हम तब नहीं जानते थे
कि मुसमात दरअसल है किस बला का नाम
हम तो यही जानते थे
कि मुसमात तीरथ-धाम, गंगा-स्नान, मेला-बाजार करती है
गाँव में बारात जब आती है और उसमें नाच-काच होता है
तो बच-छिपकर रात-रातभर नाच-काच देखती है
हमसबों के लिए अपने बक्से में
बतासा, मोतीचूर, बेलग्रामी, लकठो रखती है
सबकी नजरों से बच-बचाकर देती है
बिना किसी से पूछे-आछे वह
चुपके से कहीं का कहीं निकल जाती है
नहा-धोकर धूप-बाती करती है कुछ गाती-गुनगुनाती है
जिसका पूरापूरी मरम खुला बहुत बाद में
और खुला तो मन आँसुओं से हुआ तर
अपने बक्से में तुम ताला लगाना कभी नहीं भूलती
पर कमरे की महज जंजीर चढ़ा तुम निकल पड़ती
अचानक किसी सुबह
और किसी को कुछ पता नहीं होता
कभी सुबह निकलती तो शाम को ही आ धमकती
कभी गायब रहती हफ्ता-दस दिन
तुम्हारा गायब रहना किसी को भी नहीं अखरता
घर-आँगन के क्रिया-कलाप सब यथावत
अचानक जब आ धमकती किसी सुबह या सांझ
घर की कोई औरत लोटा में पानी ले तुम्हारे धो देती पॉंव
और तीरथ-धाम के अर्जित सारे पुण्य
उसको असीसने में तुम खर्च कर देती
और हम सब तुम्हारे आस-पास मंडराते
कि बक्से से अबकी देखते हैं निकलता है क्या!
तुम रोज नहाती
सूरज महाराज को जल चढाती
अपने कमरे की दीवार पर खूंटियों के सहारे टिके तखते पर
देवी-देवताओं की मूरतों पर जल छिड़कती
धूप-बाती दिखाती
कुछ बुदबुदाती कुछ गाती-
'सूतल रहलीं पलंग पर हो गुरूजी दिहलें जगाय'
तुम्हारे कमरे की पलंग और मूरतों से जोड़कर
मोटा एक अरथ उचरता तब जेहन में
कि इन्हीं मूरतों के जगाने से तुम निकल पड़ती हो तीरथ-धाम
हम सांझ को कभी तुमसे कथा कहने को कहते
तुम सुनाती कोई न कोई कथा
और इसके बाद हम चले जाते अपनी अपनी माँ के पास
और खा-पीकर तुम्हारे कथा-पात्रों के साथ
हम चले जाते नींद के सपनों की दुनिया में
और तुम अपने उस कमरे में अपनी अंतर्ध्वनियों के साथ
धूप -बाती दिखाते तुम गाती गुनगुनाती अक्सर जो एक गीत
उसकी एक पंक्ति कौंधती है बारम्बार
'सामी के सुरतिया मनवा में रखतीं '
जब भी तुम गुनगुनाती यह गीत
स्वर तुम्हारा भींगा भींगा सा लगता
शीघ्र स्नान का प्रभाव तो यह बिलकुल नहीं था
जिस सामी की स्मृतियों में
तुम भिंगोये रखना चाहती थी अपने को
उसकी सूरत को चित् से उतरने नहीं देना चाहती थी
सब कठिन हो चला था तुम्हारे लिए
ओह री माई !
अपनी इस पंक्ति के साथ
ताजिंदगी तुम बनी रही जीवन बो
जीवन सिंह के नहीं होने के बावजूद
धूप-बाती जस जलती हुई,
पास के कुण्डेश्वर शिव का मेला देखा मैंने तुम्हारे संग
तुमने खिलाई थी जिलेबियाँ
तुम हम सबको नहीं ले जा सकती थी अपने साथ कहीं
कहकर तो नहीं मना किया था किसी ने, पर मना था
गाँव की नदी में नहाने तुम जाती थी अक्सर
नदी के पानी को सराहती कहते हुए कि धारा है एकदम निर्मल
स्वच्छ फिटकिरी की तरह
नदी नहाने का लुत्फ़ हम भी तब उठा लेते थे तुम्हारे संग
ब्रह्मपुर, बक्सर, कशी, प्रयाग, हरिद्वार, मथुरा, वृन्दावन, जगन्नाथ धाम, गंगासागर
कहाँ-कहाँ नहीं गई तुम
पर कोई सुननेवाला नहीं था तुम्हारा यात्रा-संस्मरण
अपने सारे संस्मरणों के साथ अब नहीं हो तुम
राजनीति तुम्हारा विषय नहीं रहा कभी
पर इंदिरा गांधी से तुम्हारा न जाने कैसा अपनापा था
आरा, बक्सर, शाहपुर जहाँ कहीं भी आनेवाली होती
इंदिरा गाँधी
तुम वहां पहुंचे बिना नहीं रही
घर की राजनीतिक धारा के विपरीत
तुमने हमेशा अपना वोट इंदिरा गाँधी को ही दिया
पर सतहत्तर में तुम्हारे भी बोल गए थे बदल
इंदिरा की सपने में भी शिकायत नहीं करनेवाली तुम
कहने लगी थी हत्यारिन
तुम कहा करती थी 'जार केहू के ढेर दिन ना चलल बा ना चली'
वोट देते समय मतदानकर्मी तुम्हारे नाम की परची
तुम्हारे हाथ से ले गुहराते
फूला देवी, पति-जीवन सिंह
शायद यही एक अवसर होता तुम्हारे लिए
किसी कागज़ पर अपने नाम के साथ अपने सामी का नाम अंकित देखने का
तुम थी झक्क गोरी, सुन्दर-सुभेख
बड़े-से मकान के भीतर
एक कमरे में रखे बक्से की ताला-कुण्डी में
अँटका तुम्हारा मन
जब आखिरी धाम को किया पयान
जहाँ केवल जाना होता है
तब भी घर की सेहत पर नहीं पड़ा खास फरक
जिनको रोना था, दो धार रो लिया
तुम्हारे बक्से का वह कुण्डी-ताला एक ही झटके में टूट गया
उस बक्से में पड़ी थी मूरतें देवी-देवताओं की
कुछ बतासे, कुछ बिस्कुट
खुली एक दियासलाई, अगरबत्ती का खुला एक पॉकेट
लाइफ़बॉय, सनलाइट साबुन
कुछ पुराने धुराने कपडे
एक तड़प
गीत की वह पंक्ति-'सामी के सुरतिया मनवा में रखतीं '
जिसको उस वक़्त शायद ही किसी ने सुना हो.
..............
और रिश्ते की प्रगाढ़ता को पेश करती नेम-प्लेट भी गौरेतलब है-
नेम-प्लेट
(छोटे भई विमल के लिए)..
आख़िरकार तुमने लगा ही दिया
मेरा नेम-प्लेट,
जो पड़ा हुआ था बनारस मे यूँ ही
लाकर वहाँ से
गाँव के दुआर के बरामदे में लगा ही दिया तुमने
मैंने तो नहीं बनवाया था इसे
बनवाने को कभी सोचा भी नहीं था
यह तो वर्माजी के उत्साही पुत्रों ने
मुझसे बिना कुछ बताए,
दिया था मेरे जन्म-दिन के उपहार के तौर पर
और यह अबतक का प्रथम उपहार था मेरे जन्म-दिन का.
इसे बनारस में बच्चों ने ज़रूर लगाया दीवार पर
पर, मैने ही उतार दिया एक-दो दिन बाद
जब भी मेरी पड़ती इसपर नज़र
मन ही मन शर्मा जाता रहा
कि इतना तो नहीं हो गया बड़ा
और यह आत्म-प्रदर्शन!
और उसी को तुमने लाकर बनारस से
लगा दिया गाँव पर-
'डॉ बलभद्र सिंह
हिन्दी विभाग,
गिरिडीह कॉलेज, गिरिडीह'.
गाँव पर इसे जब देखा पहली बार,
तो पड़ गया आश्चर्य में
अरे, यह यहाँ कैसे!
फिर फोन किया बनारस
तो मालूम हुआ कि उठा लाए तुम वहाँ से
पोंछ-पांछ कर
और दीवाल मे यहाँ ठोककर कीलें
लगा दिया तुमने
चलो ठीक ही किया
पड़ा हुआ था वहाँ बेमतलब
ठीक ही किया तुमने
और जो किया सो आजकल करता ही कौन है?
भाई का नेम-प्लेट शान से लगाते ही कितने हैं?
तुम्हें मालूम होना चाहिए
कि मेरा यह नाम
पिता के चाचा का है दिया हुआ
उनको मिला था यह नाम जगन्नाथ धाम की यात्रा में
और यह भी मालूम होना चाहिए
कि तुम्हारा नाम पिता के छोटका बाबूजी का है दिया हुआ-
जिनको हमसब कहते थे कलकतवा बाबा
कलकत्ता से पोस्ट-कार्ड पर पर लिखकर भेजा था उन्होंने।
बिमल अर्थ सहित......
..........
'समय की ठनक' की कविताओं में ऐसी कई पठनीय कविताएं है, जिससे गुजरना संवेदना के सागर में डुबकी लगाने जैसा है। इसमें दर्ज 'कविता मेरी' बताती है कि कवि ने ये कविताएँ क्यों लिखी हैं। कवि को अपने समय की विद्रूपताएं बाध्य करती हैं कुछ सोचने-विचारने और उन पर कुछ कहने के लिए। संग्रह की पहली कविता अन्न हैं, कलपेंगे से अन्न की महत्ता को रेखांकित करता है कवि।
आया कि
अन्न हैं, कलपेंगे पड़े-पड़े
धंगाते रहेंगे पैरों तले
ठीक नहीं इनका अपमान
वह तो चिरई है बाबा की कविता की यह पंक्तियां कितनी मार्मिक हैं, इसे देखें-
मैं बड़ा हुआ और होता ही गया
फिर हुआ एक दिन ऐसा
कि चिरई की तरह
बाबा ही उड़ गए फुर्र...
पर, उनकी वह चिरई
मैं जहां-जहां जाता हूं
वहां-वहां जाती है
शिव-शिव गुहराती है
जगाती है रोज
मैं देखता चाहता हूं उसे
इसी तरह की कई कविताएं हैं इसमें। जैसे कि बात ठन गई। छोटी मगर, मजबूती से खड़ी रिक्शेवाले के पक्ष में-
धक्का खाया
भरी सड़क पर रिक्शा छितराया
रह गए हम सब हक्के-बक्के
कहीं से कोई बोल न पाया
खड़ा हो गया रिक्शावाला
देह झाड़ कर
गोल बने दो
बात ठन गई।
........
पुलिस फायरिंग, जातीय संघर्ष, जनसंहार जैसी दुखद वारदातों पर भी साहस के साथ दर्ज हुईं हैं कविताएं।
कोई सुने तो एक छोटी कविता है।
चल रही है गेहूं की कटाई
ताबड़तोड़ चल रहे हैं हंसिये
खेतों से उठ रहा है एक संगीत चतुर्दिक
कोई सुने तो समझे
झींगुरों ने भी इसमें डाली है जान।
कवि ने अपनी इस किताब को समर्पित किया है कथाकार मार्कण्डेय की स्मृति को।
इस किताब की कविताएं पढ़ी जानी चाहिए।
3.
रोमेंद्र कुशवाहा
कहानी संग्रह का नाम है - 'आसमां से आगे'। इसे पढ़ते ही इस गाने का मुखड़ा याद आ गया जाने क्यों-
'आसमां के नीचे, हम आज अपने पीछे
प्यार का जहाँ बसा के चले
कदम के निशाँ, बना के चले... 'लेकिन प्यार का जहाँ बनाना इतना आसान भी नहीं।
संग्रह की कहानियों को पढ़ते हुए भी ऐसा लगता है। बहरहाल, इस संग्रह में कुल बारह कहानियाँ हैं,जो शहरी निम्न-मध्य वर्ग से ताल्लुक रखती हैं। इनमें समाज के छद्म हैं, संघर्ष हैं और हैं मामूली सपने। स्त्री और पारिवारिक विडंबनाएँ भी। पहली कहानी बदलते समाज बदलती मानसिकता का परिचय देती है- कुछ अचंभित करती। निष्ठा उसके घर में किरायेदार के रूप में आती है, मल्टीनेशनल कंपनी में काम करती है, प्रतियोगी परीक्षा की तैयारी भी। वह बीटेक है, किसी कंस्ट्रक्शन कंपनी में काम कर रहा है। निष्ठा के पिता की सलाह पर भारतीय प्रशासनिक सेवा के लिए तैयारी करता है। अपने घर के पास ही निष्ठा के पिता के प्लाट पर घर बनाने में मदद करता है। और आईएएस की परीक्षा भी पास कर लेता है। उसकी माँ निष्ठा को बहू के रूप में देखने लगती है, पर पढ़ी-लिखी सुंदर लड़की काले कुरूप विधायक से शादी करने के लिए तैयार हो जाती है और 'अच्छा पड़ोसी' ठगा-सा। आईएएस पर एमएलए भारी पड़ जाता है। उपभोक्तावाद ने संबंधों, भावनाओं की क्या गति कर दी है, यह कहानी यही बताती है। संग्रह की आमुख कथा 'आसमां से आगे' पुरुषवादी सोच पर प्रहार करती स्त्री विमर्श की कहानी है। कामकाजी स्त्री की तकलीफों को बयां करती। स्कूल शिक्षिका बबिता, सास, पति की असंवेदनशीलता की चक्की में पीसते हुए अंततः दुश्वारियों पर जीत दर्ज करती है। इसी तरह एक कहानी 'परिवर्तन' पुरुष अहं और दांव पेंच को उजागर करती है। 'घूटन' कहानी में नौकरी छूट जाने से बेरोजगार हो गए व्यक्ति की व्यथा- कथा पेश करती है। 'दंश' कहानी में स्वाभाविक मृत्यु को हत्या, आत्महत्या में दिखाने की विडंबना- झूठ का पर्दाफाश करती है। भू-माफियाओं के करतब से परेशान लोगों की कहानी कहती है 'भूभक्षी'! 'लुटेरे' में मजदूर वर्ग की लाचारी और उसके प्रति उदासीनता का चित्रण है। 'मुक्ति', 'ईमान का मसीहा' भी समाज में पैठ बना चुकी विद्रूपता को सामने लाती है। 'न्यायी का न्याय' न्याय पर भरोसा पैदा करने वाली कहानी है। इसमें एक पुत्र द्वारा अपने पिता को घर से निकाल देने की मार्मिक कथा है। 'उसकी ताकत' यौन शोषण की कहानी है, जिसमें रिश्ते के लोग भी शामिल हैं।
कुल मिलाकर बदलते समाज की नई विकृतियों पर पैनी नजर है कहानीकार रोमेंद्र कुशवाहा की। इसे देहरादून के 'समय साक्ष्य' ने छापा है।
4.
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