बुधवार, 12 जून 2019

सत्येंद्र की कुछ कविताएं

सत्येंद्र की कुछ कविताएं

पत्रकारिता में रह कर कविता के लिए समय निकालना और उसमें रम पाना बहुत मुश्किल है। पर जिद्दी लोग वक्त निकाल ही लेते हैं संवेदना के सागर में डुबकी लगाने के लिए। सत्येंद्र प्रसाद श्रीवास्तव ऐसे ही लोगों में से एक हैं। इनके अब तक कविता के दो संग्रह-रोटी के हादसे और अंधेरे अपने अपने आए हैं। अच्छी बात यह है कि इनकी कविताओं में जूट मिलों के इर्द-गिर्द के जीवन के सुख-दुख की संवेदनात्मक उपस्थिति मौजूद है। यहां पेश है उनकी कुछ कविताएं।
1.
बाबूजी
बाबूजी
बाबू नहीं, मज़दूर थे
बाबू के शरीर से
नहीं आती फेसुए* की खुशबू
बाबूजी का रोम-रोम
फेसुए की खुशबू से गमकता था
यह खुशबू जितनी फेसुए की पहचान थी
उतनी ही बाबूजी की भी
फेसुए और बाबूजी एक दूसरे को खूब पहचानते थे।
बाबूजी के साथ
मिल से घर आने के लिए
मानो जिद करते थे फेसुए
उनके बदन से चिपक कर सैकड़ों टुकड़े
पहुंच जाते थे घर
वो मेरे ही नहीं
फेसुओं के भी पिता थे
अपनी मशीन पर वो उन्हें भी
ठीक वैसे ही गढ़ते थे
जैसे कि गढ़ रहे थे मुझे
ताकि हम दोनों किसी के काम आ सकें।
बाबूजी
बाबू नहीं, मज़दूर थे
मूड में आने पर
लाल सलाम भी बोलते थे
और इंकलाब ज़िन्दाबाद भी
लेकिन इनका सच भी जानते थे
इसलिए जब अक्सर बिना काम के
घर लौटते तो निडर होकर उद्घोष करते
सब स्साले चोर हैं
वो चोर-सिपाही के सारे तिलिस्म को समझते थे।
बाबूजी
बाबू नहीं, मज़दूर थे
बदली* मज़दूर
काम के लिए अक्सर उनकी साइकिल
इस मिल से उस मिल का
चक्कर लगाती रहती थी
वो जानते थे
जब तक जांगर है
तब तक उनसे चलेगी मशीन
जब तक चलेगी मशीन
तब तक जलेगा घर का चूल्हा
बच्चों के चेहरे पर लहलहाती रहेगी
खुशी की फसल।
बाबूजी ने कभी नहीं देखा
अच्छे दिन का सपना
वो जानते थे
मज़दूरों के कैलेंडर में
कोई भी दिन अच्छा नहीं होता
वो भी तो मज़दूर ही थे
बाबू नहीं थे
बाबूजी।
(फेसुआ--जूट, पाट)
2.नंगई
नंगा होने की हद
कपड़े उतारने तक ही होती है
लेकिन नहीं होती
नंगई की कोई हद
कब का नंगा हो चुका राजा
अब नंगई पर उतारू है।
3.
यह वक्त प्रेम का नहीं
मैं
जिस वक़्त तुम्हारे प्रेम में
आकंठ डूबा हूँ
ठीक उसी वक़्त कुछ लोग
फैला रहे हैं नफ़रत
धर्म के नाम पर
जाति के नाम पर
लेकिन मैं
तुम्हारे प्रेम से इतर
कुछ देख ही नहीं पाता
जबकि यह वक़्त प्रेम का नहीं
नफ़रत से लड़ने का है
प्रेम को बचाने के लिए
बेहद ज़रूरी है यह लड़ाई।
4.
मां का इंतज़ार
मां
जब भी करती है फोन
बेटा काट कर करता है रिंग बैक
फ्री कॉल के ज़माने में भी
जारी है मां-बेटे के बीच
यह परंपरा।

फोन कटने के बाद
मां करती है इंतज़ार
कभी तत्काल वापस आता है फोन
तो कभी-कभी
बेटे की एक टुम आवाज़ सुनने के लिए
घंटों इंतज़ार करती है मां
मां इंतज़ार से नहीं ऊबती।
बचपन में देखा है उसने
हर रोज नहाने के बाद
पेटीकोट में ही मां
बिना उकताए करती थी
एकमात्र साड़ी के सूखने का इंतज़ार
बारिश के दिनों में
मां की तकलीफ देख
पिताजी करते थे
नई साड़ी लाने का वादा
बिना झुंझलाए मां ने
नई साड़ी के लिए भी
किया था लंबा इंतज़ार।
मां ने इंतज़ार किया
पति के फैक्ट्री से लौटने का
बच्चों की स्कूल से वापसी का
मां ने बड़े धीरज से इंतज़ार किया
राशन-पानी का
बच्चों के दूध के डिब्बे का
दमे की दवाई का
मां
इंतज़ार की घड़ियों में
दुख को सुख की कथा सुनाती रही
उसे भरोसा है सुख एक दिन आएगा
वह बिना उकताए करती है सुख का इंतज़ार
मां का इंतज़ार कभी खत्म नहीं होता।
ना कट सकने वाली
इंतज़ार की घड़ियों से ही
बतियाती है मां
दोनों बांटते हैं
एक-दूसरे का दुख
और कटता जाता है
ज़िन्दगी का हर कठिन पल।
5.
गुमशुदा

मैं गुम हूँ
लेकिन कोई मुझे ढूँढ़ता नहीं
अखबार के फड़फड़ाते पन्ने
नहीं लेते मेरा नाम
किसी ने अभी तक नहीं छपवाया
मेरी गुमशुदगी का विज्ञापन
टीवी के पर्दे पर अपना चेहरा
खोजता हूँ लेकिन
सिर्फ राजा दिखता है
बार-बार दिखता है
हर बार मुस्कुराता हुआ
मानो खुश हो मेरे गुम होने पर
इंतजार करता रहता हूँ
लेकिन टीवी पर नहीं आती मेरे गुम होने की कोई खबर
कोई यह मानने को तैयार नहीं कि
मैं गुम हो चुका हूँ।

दरअसल वो ये मानने को भी तैयार नहीं कि
गुम वो भी हो चुके हैं
वो सरकारी पहचान पत्र को अपनी पहचान बता रहे हैं
मैं पूछता हूँ कौन हो तुम
वो खुद पीछे हो जाते हैं
सरकार को आगे कर देते हैं
सच ये है कि
अकेले मैं गुम नहीं हूँ
पूरा का पूरा शहर गुम हो चुका है
पूरा का पूरा देश गुम हो चुका है
इतिहास गुम है
वर्तमान गुम है
और भविष्य का कोई पता नहीं
लेकिन सभी भ्रम में हैं कि
कहीं कुछ गुम नहीं हुआ है
सबके पास अपने-अपने मुखौटे हैं
सबके पास अपने-अपने पहचान पत्र हैं।

जब तक लोग
खुद को भूल
मुखौटे के भरम में जीते रहेंगे
राजा निरंकुश होकर राज करता रहेगा
राजा के लिए जितना जरूरी राजपाट है
उतनी ही जरूरी ऐसी प्रजा भी।

6.
मिट्टी की कब्रगाह
शहर में मिट्टी नहीं है
कंक्रीट और कोलतार के शहर ने
बहुत पहले कर दिया था
मिट्टी का कत्ल।

खेतों की कब्र पर खड़ी
बड़ी-बड़ी अट्टालिकाएं
उनकी याद में बनाई गईं
स्मृति फलक लगती हैं
जहां बन्द कर दिए गए हैं
हर खिड़की-दरवाजे
नई हवा, नए विचार के लिए
इस डर से कि कहीं घर में मिट्टी ना घुस जाए
मिट्टी सिर ना उठा पाए
इसलिए हर रोज होती है डस्टिंग
घर की भी, दिमाग की भी।
शहर में कोई नंगे पांव नहीं चलता
क्योंकि शहर में घास नहीं है
कृत्रिम घास से ही मन बहला लेते हैं
मिट्टी के क़ातिल
बॉलकनी में रखे सजावटी गमले के लिए
खरीद कर लानी पड़ती है मिट्टी
रोज डालते हैं पानी
इसलिए नहीं कि उन्हें प्रकृति से प्रेम है
बल्कि इसलिए कि ज्योतिषी ने कहा है कि
पौधों में रोज पानी डालने से
मजबूत होता है चन्द्रमा।
शहर में पौधे भी नहीं है
पेड़ की जगह खड़े हैं कंक्रीट के खंभे
इसलिए शुद्ध हवा के लिए
अब एयर प्यूरफायर का इस्तेमाल करता है शहर
शहर जानता है कि इससे शुद्ध नहीं होती हवा
लेकिन वो बताता है कि उसके पास हर चीज़ की है मशीन
वह मशीन से हवा साफ करता है
वह मशीन से पानी साफ़ करता है
वह मशीन से कमरे को गर्म करता है
वह मशीन से कमरे को ठंडा करता है
वह मशीन से हर मुश्किल आसान करने का दावा करता है
मशीन-मशीन करते करते
वह खुद
बन गया है मशीन
मिट्टीविहीन इस शहर में
अब मशीनें ही रहती हैं
इंसान तो मिट्टी की तलाश में
यहां से कब का जा चुका है ।
7.
जनतंत्र

पहला
जनता का खून चूसता है
दूसरा विरोध करता है
फिर दूसरा
बन जाता है जोंक
पहला विरोध करता है।

वर्षों से जारी है ये सिलसिला
जनता सूखती जा रही है
नारों का शोर बढ़ता जा रहा है
सुना है
शोषण और शोर के इस तंत्र को
वो जनतंत्र कहते हैं।
8.
राजा
उसे वे पसंद हैं
जो मुंह नहीं खोलते
उसे वे पसंद हैं
जो आंखें बंद रखते हैं
उसे वे पसंद हैं
जो सवाल नहीं करते
उसे वे पसंद हैं
जिनका खून नहीं खोलता
उसे वे पसंद हैं
जो अन्याय का प्रतिकार नहीं करते
उसे मुर्दे पसंद हैं
वह राजा है।
9.
अब हर हत्या हत्या नहीं है

बदल रही है
हत्या की परिभाषा
हत्यारे की भी

हत्या
अब हत्या हो भी सकती है
नहीं भी हो सकती है

हत्यारा
अब हत्यारा भी हो सकता है
या फिर हो सकता है
हिंदू या मुसलमान

बोल सकने वाली जीभें
स्वाद को समर्पित हो चुकी हैं
और वे बड़ी कामयाबी के साथ
बदल रहे हैं
हत्या और हत्या की परिभाषा।

9.ईश्वर और किसान

बिचौलियों से परेशान है ईश्वर
किसान भी
दोनों का हिस्सा
मार लेते हैं बिचौलिए

ईश्वर नहीं करता विरोध
इसीलिए उसके हिस्से फूल
किसान विरोध करता है
उसके हिस्से फंदा।

10.
अब और नहीं अहिल्या

सतयुग में
बलात्कारी इंद्र के खिलाफ
आवाज दबाने के लिए
पत्थर बना दी गई थी अहिल्या

अहिल्या का पत्थर हो जाना
चेतन का जड़ हो जाना था
जड़ मुंह नहीं खोलता
इंसाफ नहीं मांगता
बगावत नहीं करता
अहिल्या को भी नहीं मिला इंसाफ
बेखौफ घूमता रहा देवताओं का राजा

कलियुग में
एक बलत्कृत लड़की ने
कर दिया अहिल्या बनने से इंकार
अपनी चेतना के समस्त वेग के साथ
उसने भींच ली मुट्ठी
पत्थर बनने की जगह
उसने उठा लिए हैं हाथ में पत्थर
डोल रहा है इंद्र का सिंहासन।


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