उड़ान को पंख देती कविताएं ! 
 लखनऊ की सांस्कृतिक कार्यकर्ता  व कवयित्री  विमल किशोर के कविता संग्रह "
 पंख खोलूं उड़ चलूं "से गुजरना सुखकर है । विमल जी का यह पहला संग्रह है। 
कुल 43 कविताएं दर्ज है इसमें । स्त्री विमर्श का स्वर मुखर है ,आक्रोश भी 
लाजमी है । लेकिन साथ-साथ प्रेम, प्रकृति, रिश्तों के सहज निर्वाह की 
कविताएं भी है। 
 आगे कुछ कहने से पहले विमल जी की कुछ छोटे आकार और गहरे भाव बोध की कुछ कविताओं से गुजर लिया जाए-
 1.
 चांद से दोस्ती
 बिस्तर पर लेटी
 नींद आने के झूठे प्रयास में
 करवटें बदलती
 अचानक तेज शीतल रोशनी से
 खुल गईं आंखें
 खिड़की के रास्ते चांद झांक रहा था
 मुझसे हाथ फैला दोस्ती का
 मांग रहा था हाथ
 फिर क्या था
 फटाफट ले लिए थे मैंने
 चांद को तस्वीरों में
 और हो गई दोस्ती लो
 पूरी प्रगाढ़ता के साथ।
 2.
 किताब
 किताब में लिखी बातें
 सब झूठी हो जाएंगी
 किसी को जानने के लिए
 नहीं पलटे जाएंगे पन्ने
 आदमी मिलेगा किताबों में नहीं
 मूर्तियों में
 उसका कद
 उसकी महानता नापी जाएगी
 मूर्तियों की ऊंचाई से।
 3.
 तुम कहां हो
 खोजती हूं तुम्हें
 मैं तारों के आसपास
 क्योंकि तुम दूर हो
 बहुत दूर
 बिजली कौंध उठती है
 पर बादलों के उस पार नहीं
 आंखों के अंबर में
 घटाएं आतीं
 चली जाती हैं
 मौसम भी बदलता है
 शीत की बूंदें फिसलन बन जाती हैं
 और इसलिए
 मन पुकार उठता है
 तुम कहां हो
 कहां हो...?
 4.
 तुम्हारा न होना
 जीवन की डगर पर
 मुझे अकेला जान
 यादों के ये तस्कर
 मेरा पीछा कर रहे हैं
 निरंतर
 मेरी अपनी परछाई की तरह
 बांध न पाया तुम्हें 
 मेरा प्यार
 अब इस भीड़ भरे
 एकाकीपन में
 गहराते अंधेरे
 कहां तक संभालूं
 अपने को
 कितना अखरता है
 तुम्हारा
 न होना।
 5.
 नया सूरज
 धरती का कलेजा लाल है
 और आंचल भी 
 लाल है माथे का सिंदूर
 टिकली और बिंदिया का रंग भी
 हृदय से फूटती चिंगारी का रंग लाल है
 और लाल है सख्त चेहरे का रंग भी
 लाल है दिये की लौ
 और हमारा परचम भी
 लाल है जलती हुई मशालों का रंग
 हमें साफ-साफ दिखता है इसमें
 गोलबंद होते हुए लोग
 बढ़ते हुए कदम
 ढलती हुई रातें
 क्षितिज पर फैलती भोर की लाली
 चिड़ियों का चहचहाना
 और अपनी सम्पूर्ण लालिमा के साथ
 उदित होता हुआ
 एक नया सूरज।
इस पाठक की पसंद की,विविध भाव-बोध की इन कविताओं की तरह संग्रह की लगभग सभी कविताएं सहज-सरल
 भाषा में,अभिधा में हैं। भाषाई चमत्कार के कोई लक्षण नहीं हैं। कोशिश नहीं। स्त्री 
उत्पीड़न,राजनीतिक-प्रशासनिक असंवेदनशीलता, शोषण,जुल्म, सामाजिक 
विद्रूपताओं को बयां करने की भाषा ऐसी ही हो सकती है।
 बहरहाल, `हवाएं गर्म 
हैं'`,...वाह रे हिंदुत्व', `कोसगंज..'.,`अगस्त में बच्चे मरते ही हैं',`तीन तलाक', 
`विकास का प्रसाद',`सपने भी डराते हैं',`बलात्कारी सिर्फ...',`गटर में' ,`अनसुनी 
गांठें' आदि जैसी कविताएं हमारी सरकार और समाज को भी कटघरे में शामिल करने 
वाली कविताएं हैं। ये कविताएं एक तरफ उदास, हताश करती हैं तो दूसरी तरफ 
हृदय में गुस्से का संचार। बाजारवाद, सांप्रदायिकता, जातिवाद, क्षेत्रीयता,
 लिंगभेद, किसानों, श्रमिकों, बेरोजगारी की बढ़ती समस्याएं और सबसे बढ़कर 
वोट बंटोरू असंवेदनशील राजनीति पर हर जागरूक,संवेदनशील कलमकार की तरह इस 
कवयित्री की भी नजर है। यह आश्वस्त करने वाली बात है।आमुख कविता `पंख खोलूं 
उड़ चलूं' की ये पंक्तियां-मैं अपने सपनों को/पंख देना चाहती हूं/ उड़ना चाहती 
हूं/उड़-उड़/वहां पहुंचना चाहती हूं/जो मन की चाहत है/.....मैं घर से चारदीवारी
 से/बाहर निकलना चाहती हूं......
हम जानते हैं कि एक स्त्री की यह चाहत अक्सर घर-परिवार की जिम्मेदारियां और समाज की तरह-तरह की बंदिशें की भेंट चढ़ जाती हैं। पर इस चाहत को बल मिले, यह कामना और कोशिश जरूरी है।
कुलमिलाकर कवयित्री का यह संग्रह पठनीय है, विचारणीय है। स्त्री उड़ान की तलबगार है। इसलिए स्वागत योग्य भी। इसे लखनऊ के लोकोदय प्रकाशन ने छापा है। आवरण आकर्षक है और अंदर के पन्नों की छपाई अच्छी है । 112 पेज के पेपर बैक किताब की कीमत जरूर कुछ ज्यादा है । 210 रुपए ।
 
 
