'अट्ठारह साल की लड़की अकेली विश्व भ्रमण के लिए निकली है, यह बात मेरे लिए नई तो नहीं, क्यों कि मैं पहले भी कुछ लड़कियों से मिल चुकी हूं,लेकिन आश्चर्य यह था कि ...केवल एक हजार यूरो की रकम उसकी थाती थी। उसका प्लान है कि वह जहां जाएगी कुछ काम कर खर्च निकाल लेगी। ...उसके भ्रमण की सीमा में कई देश थे,पर भारत नहीं।...मैंने कहा कि जूलिया....लेकिन तुम भारत आए बिना विश्व भ्रमण करोगी अच्छा नहीं लग रहा है।...मुझ से अनेक बार पूछा गया भारत में इतने रेप क्यों होते हैं और मुझे उन्हें समझाने वक्त लगता कि रेप भारतीय संस्कृति नहीं, वैश्विक संस्कृति का ही एक भाग है..रेप की घटनाएं ज्यादा होते हुए भी स्थिति ऐसी नहीं कि आप भारत में रह ही नहीं सकते।...खैर, हम बात जूलिया की कर रहे हैं, ना जाने कितनी लड़कियां हमारे घरों से निकलना चाहती हैं, लेकिन कहां निकल पातीं, विश्व भ्रमण का सपना तो किशोर-युवकों का भी पूरा नहीं हो पाता।'
ये उद्धरण कवयित्री रति सक्सेना की यात्रा-वृतांत की किताब 'अटारी पर चांद' से हैं। रति जी कि इस किताब में तमाम कलाकृतियों, कला-दीर्घाओं, सुंदर भवनों आदि के आंखों देखे ब्यौरे हैं, जो जर्मन की समृद्धि की कहानी बयान करती है, साथ ही युद्धों के, नाजी सेना की क्रूरताओं की बानगी भी पेश हैं इसमें। विडंबना और समय का फेर यह कि उसके देश में ही हिटलर पर कोई बात नहीं करना चाहता।
लेखिका को जर्मन कलाकारों की संस्तुति पर प्रदत्त विश्व प्रसिद्ध वालब्रेता रेजीडेंसी में स्कॉलरशिप मिली थी। उन्होंने 2016 में लगभग तीन माह के प्रवास में वहां ‘पोइट्री थेरोपी’ प्रोजेक्ट पर काम किया। जाहिर है, अपनी यात्रा के उल्लेखनीय पल, अनुभव, प्रेक्षण भी पन्नों पर दर्ज करती रहीं, जिसका सुफल यह किताब है। और हम जैसे उनकी आँखों से इस जर्मन को देख, महसूस कर पा रहे हैं। यकीनन दूसरे पाठक भी लाभ उठा रहे होंगे इसका।
एक यह विवरण- '...एनरेट्टे अकेली रहती हैं। एक बार उन्होंने बताया कि उनका एक ब्वॉय फ्रेंड था, जो धोखा देकर चला गया। बाद में वह बताने लगी कि आजकल जर्मन पुरुष जवानी में गर्लफ्रेंड के साथ रहते हैं, जब वे अधेड़ या बूढ़े हो जाते हैं तो थाईलैंड जाकर थाई लड़कियां लाते हैं, वे अधिकतर खरीद कर ही लाते हैं। फिर वे उनकी सेवा करती हैं, क्योंकि जर्मन स्त्रियां मजबूत और मेहनती होती हैं, वे स्वतंत्र व्यक्तित्व रखती हैं।'
तो जर्मन का एक तस्वीर यह भी है।
एक मार्मिक विवरण यह भी - जब हम रोतेन्बर्ग पहुंचे तो महसूस हो गया कि हम पर्यटन केंद्र में पहुँच गए हैं। गुड़ियों के घरौंदों जैसे खूबसूरत रंगे-चुने घर, रंगों के चुनाव में हर घर एक दूसरे से प्रति स्पर्धा करता हुआ-सा। ...हम एक संग्राहलय में पहुँच गए, जिसमें सजा देने के अमानवीय औजार थे। सच कहूं तो शहर की सारी खूबसूरती इस संग्राहालय को देखते ही भड़भड़ा कर टूट गई।...दोष कुछ भी हो सकता था, किसी स्त्री का डायन करार दिया जाना या किसी पुरुष के व्यभिचारी होने की शंका होना या फिर कोई चोरी-चपाटी आदि। सजा में नाखूनों को उखाड़ने से लेकर जीभ पर ताला लगाने तक के औजार थे।...यह सब देख मन बहुत व्यथित हो उठा...और सच कहूं तो लगा कि लौट चलो इस देश से।'
बहरहाल, इसी देश में अब जूलिया की पीढ़ी भी तैयार है। एक दिन बर्लिन की दीवार भी टूटी। और कई भ्रम भी। नहीं बदला है तो शायद अंध-राष्ट्रवाद की परिणति के दुःस्वप्न। हिटलर के प्रति इतनी घृणा की सामान्य जर्मन उस पर बात नहीं करना चाहता।
प्रवेश वर्जित: डकाउ यातना शिविर जिसे कंसेंट्रेशन कैंप कहा जाता है, हिटलर की नाजी मानसिकता का पहला शिविर था, जिसे सोच-समझ कर यहूदियों की हत्या करने के उद्देश्य से बनाया गया था। कहा जाता है कि इसमें विभिन्न देशों के दो लाख से ज्यादा कैदी थे, जिनमें से 41,500 कैदी मारे गए थे। ( मार दिए गए थे, लिखना ज्यादा सही होगा) सहसा सब चुप्पा से गए। जैसे याद आया कि हम मौत से मिलने जा रहे हैं।...बाहर बोर्ड था, (जिस पर लिखा था) कृपया बच्चों और कुत्तों को भीतर न ले आएं।...फिर महसूस हुआ कि हम ही कैदी हैं।...मृतकों की राख पर फुलवारी उगा रखी थीबोर्ड पर लिखा था कि कोई इस फुलवारी पर पैर न रखें, यहां मृतकों की राख बिछी है।...चैंबरों की तरफ जाने से पहले तीन उपासना घर दिखे, शायद उनका निर्केमाण तब हुआ, जब यह यातना घर से शरणार्थी शिविर में बदला गया। मैं यही सोच रही थी कि देव यहां वास कर रहे थे तो उन्होंने इस अत्याचार को क्यों सहा। ( अपने यहां राम जी भी तो सह ही रहे हैं, भक्तों के उत्पात को)'
इस किताब से एक विवरण और- 'लौटते वक्त मैं और शारलोत्ते साथ थे, हम लोग राजनीतीक स्थितियों की बात करने लगे। मैंने कहा कि युद्ध के बाद जर्मनों के साथ जो कुछ हुआ, वह भी दुखद था, क्योंकि समस्या किसी एक नेता ने पैदा की थी।'
शारलोते ने जवाब दिया, 'जब जनता किसी गलत नेता को चुनती है तो वह उसके पाप में बराबर की भागीदीर बन जाती है।'
'निःसंदेह, लेकिन जब जनता भीड़तंत्र के साथ चलती है।' मैंने कहा।
'फिर भी गलती तो है ही', शारलोत्ते का जबाव था।
'गलती का पता जब तक लगता है, अक्सर देर हो जाती है'-मैं कहना चाहती थी, लेकिन चुप ही रही।
अपने मेजबान, दोस्त-गाइड के साथ घूमती-बतकही करती और तमाम लुभाने और बदरंग दृश्यों के लेखकीय ब्यौरे से भरे इस वृतांत से गुजर लेना, बहुत से अहसासों से दो-चार होने जैसा भी है।
इस किताब में रति जी ने कुछ कविताएं भी दर्ज की है। डकाउ पर लिखी बहुत ही मार्मिक कविता के इस अंश के साथ इस चर्चा को विराम देने की इजाजत चाहूंगा।
'लिखा तो यह भी था कि
कृपया शोर ना मचाएं, जोर से ना हँसें
ऐसा कुछ ना करें कि मृतकों की आत्मा को
कष्ट मिले,
लेकिन व्यक्तिगत सामान वाली लाइब्रेरी में
कैदियों के सामान में खूबसूरत प्रेमिकाओं की तस्वीरों के साथ
बच्चों और पालतू कुत्तों की तस्वीरें भी हैं
कैम्प में सन्नाटा है, सैकड़ों दर्शनार्थियों के बावजूद
मानो कि अभी कोई ना कोई मृतात्मा बोल उटेगी
.....
लेकिन क्या आदमी को आदमी बनाने के लिए
यातना घर जरूरी है
सवाल अधूरा है...'
इस पठनीय 'यात्रा-वृतांत' की किताब को न्यू वर्ल्ड पब्लिकेशन ने प्रकाशित किया है।