कुछ शांत से पाषाण
वरिष्ठ कवि ध्रुवदेव मिश्र पाषाण, जिनके कोई दो दर्जन काव्य पुस्तिकाएं-संग्रह आ चुके हैं 1962 से 2009 के बीच। "लौट जाओ चीनियों" से लेकर "पतझड़-पतझड़ वसंत" तक । इसके एक लम्बे अंतराल के बाद अब आया है नया संग्रह - "सरगम के सुर साधे" ।
नौ साल बाद आये इस किताब को कवि ने खुद ही छापा है । तीन फर्में यानी 48 पन्ने के संग्रह में कुल सोलह कवितायें हैं । पश्चिम बंगाल में इस तरह के संग्रहों के छापे जाने का रिवाज है । बंगला के कवि ऐसे ही कम पन्ने वाले छोटे-छोटे संग्रह निकाला करते हैं । अपनी जेब से । उसे मित्र परिचितों में बांट और बेच लेते हैं । लेकिन यह दुखद है कि हमारे प्रकाशकों को अपनी भाषा की ताकतवर कलम की तरफ भी ध्यान नहीं जाता । बहरहाल ।
पाषाण जी इस किताब में अपनी छोटी सी भूमिका में लिखते हैं - कविता विचारों से नहीं बनती । कविता किताबों से नहीं उपजती । वह विचारों और किताबों के प्रवाहों से गुजरती जरूर है ।
जो विचार और किताबें, जीवन को घेरते हैं -उनकी घेरेबंदी और जकड़बंदी के मकड़जाल को सोच समझकर कविता तोड़ती है , तार-तार करती है । नक्सलबाड़ी आंदोलन के प्रभाव में रहे कवि इस संग्रह में यह करते प्रतीत भी होते हैं ।
"पवित्र हो तुम" कविता की इन पंक्तियों को देखिये -
तुम प्रिया हो मेरी
..........
पूरी स्वतंत्र और पवित्र हो तुम
ओ मेरी प्रिया
कहीं भी
किसी भी अंकवार में निष्कलुष
और प्रवहमान
गंगा के प्रवाह की तरह...
ये पंक्तियां कविता (प्रिया )के लिये ही हैं , जो शायद विचारधारा की सीमा को समझने के बाद एक व्यापकता की तलाश में और उसे आत्मसात करने को उत्सुक है । और कविता सभी की हो जाना चाहती है । कवि ऐसा ही चाहता है किंचित ।
"एक वह " कविता में कवि कहता है -
उगना ही नहीं
ढलना भी है उसे
दोनों हैं उसके लिये
एक समान
जैसे राजतिलक
जैसे वनवास...
इस यथार्थ को कुछ लोग समझकर भी स्वीकार नहीं करते । बहुत से मोह , अपराध से बचा सकता है इस हकीकत का अहसास । अगर इसे महसूस कर लिया जाये । कवि यह महसूस कराना चाहता है ।
"सुनामी " कविता में कवि इसे नई सृष्टि के प्रसव का स्राव बताता है । तबाही के पर्याय को कवि इस नजरिए से देखता है -
लगातार
बारिश की बाहों में
आसमान के साथ
रति सुख से सम्मोहित
धरती के
वत्सला बन जाने के दिन ये
सुनामी दर सुनामी
जारी है
नई सृष्टि के प्रसव का स्राव ।
इसी तरह "भूकम्प " कविता में कवि मुक्ति की तलाश में संलग्न दिखता मालूम पड़ता है । देखें -
कालातीत विरह ताप से मुक्ति चाहती है पृथ्वी
उन्मादित आकाश चाहता है
वियुक्त प्रिया को
चिरकाल के लिये
अपने में समा लेना
भूकम्प है
या कालांतर के दो महानाटकों का
मध्यांतर ।
2010 से 2017 के बीच लिखी गई कविताओं में दो मुक्तिबोध और वीरेन डंगवाल पर है । "पानीनामा " कविता के जरिये भी कुछ और समकालीन कवियों को याद किया है । जाहिर है , कवि पाषाण उनसे खुद के जुड़े होने का संकेत देता है ।
"एक हर्फ़नामा : मुक्तिबोध से जुड़ते हुये " कविता में पाषाण लिखते हैं -
......आदत बदलते हुये
कविता में
एक हर्फ़नामा
आज मुझे दर्ज करना है
"हां
नहीं चल सकता
वर्तमान समाज नहीं चल सकता
पूंजी से जुड़ा हृदय
नहीं बदल सकता "
....
गांव -शहर उमड़ती भीड़ बदलेगी
सत्ता -समाज का जीर्ण -शीर्ण
व्याकरण
....
ओ मुक्तिबोध !
ओ मेरे कामरेड
तुम्हारे स्वपनों के
नये भारत का
-भवितव्य।
इस संग्रह की सबसे लम्बी और प्रभावशाली "पानीनामा" । इस कविता के जरिये कवि एक दीर्घ कालयात्रा में ले जाते हैं । जहां समाज, संस्कृति और सभ्यता की क्षय गाथा से दो -चार होना पड़ता है ।
बचपन
पानी का मचलना है
यौवन
पानी का चढ़ना है
बुढ़ापा
पानी का उतरना है
......
जीवन
एक अनंत है प्रवाह है पानी का
पूरा का पूरा ब्रह्माण्ड
एक खिलौना है
पानी का...
इसमें नर्मदा के भवानी भाई हैं , सरयू तटवासी मोती बीए हैं , हुगली तट के छविनाथ मिश्र हैं, हरीश भादानी हैं, बलिया के केदारनाथ सिंह हैं , साबरमती के गाँधी हैं , तुलसी,रहीम हैं,शमशेर हैं ।
यानी इनका स्मरण , साहचर्य है ।
"दूब "कविता में जीवन राग की लय है ।
पतझड़ का उत्पात हो
या
वसंत का वैभव
हर कुछ धरती के आँचल में
सहेज रखती है
दूब ।
इसी राग की सहचर है आमुख कविता ! पेड़ से पत्तियों का झरना । फिर से शाखों पर झूमना -
...उगते शाख-शाख पत्ते
हवा-हवा झूम- झूम
हिलते पत्ते
जुटते -जुड़ते पाखी
पाँख -पाँख
फर -फर
सर -सर
सरगम के सुर साधे पाखी...
एक मार्मिक कविता है "शोकार्त "। इसमें अपनी पौत्री के विवाह के तुरंत बाद अग्निदग्ध हो जाने के हादसे पर आर्तनाद है । कवि को निराला याद आते हैं । सरोज स्मृति का स्मरण हो आता है -
काश लिख पांऊं कोई कविता मैं
विभा की स्मृति में-
देशकाल के शर से विंध कर ?
आखिर कैसे उबर पाऊँगा इस वेदना से-
प्रतिपल मानस मथती
वेदना से ?
कुछ और जो कवितायें हैं , खुद को पढ़ा ले जाती हैं । कुछ सोचने -विचारने के लिये प्रेरित करती हुईं । खास बात यह कि इस संग्रह में पाषाण जी कुछ शांत से दिखते हैं , क्षोभ -असंतोष -पीड़ा की झलक देने के बावजूद ।
वरिष्ठ कवि ध्रुवदेव मिश्र पाषाण, जिनके कोई दो दर्जन काव्य पुस्तिकाएं-संग्रह आ चुके हैं 1962 से 2009 के बीच। "लौट जाओ चीनियों" से लेकर "पतझड़-पतझड़ वसंत" तक । इसके एक लम्बे अंतराल के बाद अब आया है नया संग्रह - "सरगम के सुर साधे" ।
नौ साल बाद आये इस किताब को कवि ने खुद ही छापा है । तीन फर्में यानी 48 पन्ने के संग्रह में कुल सोलह कवितायें हैं । पश्चिम बंगाल में इस तरह के संग्रहों के छापे जाने का रिवाज है । बंगला के कवि ऐसे ही कम पन्ने वाले छोटे-छोटे संग्रह निकाला करते हैं । अपनी जेब से । उसे मित्र परिचितों में बांट और बेच लेते हैं । लेकिन यह दुखद है कि हमारे प्रकाशकों को अपनी भाषा की ताकतवर कलम की तरफ भी ध्यान नहीं जाता । बहरहाल ।
पाषाण जी इस किताब में अपनी छोटी सी भूमिका में लिखते हैं - कविता विचारों से नहीं बनती । कविता किताबों से नहीं उपजती । वह विचारों और किताबों के प्रवाहों से गुजरती जरूर है ।
जो विचार और किताबें, जीवन को घेरते हैं -उनकी घेरेबंदी और जकड़बंदी के मकड़जाल को सोच समझकर कविता तोड़ती है , तार-तार करती है । नक्सलबाड़ी आंदोलन के प्रभाव में रहे कवि इस संग्रह में यह करते प्रतीत भी होते हैं ।
"पवित्र हो तुम" कविता की इन पंक्तियों को देखिये -
तुम प्रिया हो मेरी
..........
पूरी स्वतंत्र और पवित्र हो तुम
ओ मेरी प्रिया
कहीं भी
किसी भी अंकवार में निष्कलुष
और प्रवहमान
गंगा के प्रवाह की तरह...
ये पंक्तियां कविता (प्रिया )के लिये ही हैं , जो शायद विचारधारा की सीमा को समझने के बाद एक व्यापकता की तलाश में और उसे आत्मसात करने को उत्सुक है । और कविता सभी की हो जाना चाहती है । कवि ऐसा ही चाहता है किंचित ।
"एक वह " कविता में कवि कहता है -
उगना ही नहीं
ढलना भी है उसे
दोनों हैं उसके लिये
एक समान
जैसे राजतिलक
जैसे वनवास...
इस यथार्थ को कुछ लोग समझकर भी स्वीकार नहीं करते । बहुत से मोह , अपराध से बचा सकता है इस हकीकत का अहसास । अगर इसे महसूस कर लिया जाये । कवि यह महसूस कराना चाहता है ।
"सुनामी " कविता में कवि इसे नई सृष्टि के प्रसव का स्राव बताता है । तबाही के पर्याय को कवि इस नजरिए से देखता है -
लगातार
बारिश की बाहों में
आसमान के साथ
रति सुख से सम्मोहित
धरती के
वत्सला बन जाने के दिन ये
सुनामी दर सुनामी
जारी है
नई सृष्टि के प्रसव का स्राव ।
इसी तरह "भूकम्प " कविता में कवि मुक्ति की तलाश में संलग्न दिखता मालूम पड़ता है । देखें -
कालातीत विरह ताप से मुक्ति चाहती है पृथ्वी
उन्मादित आकाश चाहता है
वियुक्त प्रिया को
चिरकाल के लिये
अपने में समा लेना
भूकम्प है
या कालांतर के दो महानाटकों का
मध्यांतर ।
2010 से 2017 के बीच लिखी गई कविताओं में दो मुक्तिबोध और वीरेन डंगवाल पर है । "पानीनामा " कविता के जरिये भी कुछ और समकालीन कवियों को याद किया है । जाहिर है , कवि पाषाण उनसे खुद के जुड़े होने का संकेत देता है ।
"एक हर्फ़नामा : मुक्तिबोध से जुड़ते हुये " कविता में पाषाण लिखते हैं -
......आदत बदलते हुये
कविता में
एक हर्फ़नामा
आज मुझे दर्ज करना है
"हां
नहीं चल सकता
वर्तमान समाज नहीं चल सकता
पूंजी से जुड़ा हृदय
नहीं बदल सकता "
....
गांव -शहर उमड़ती भीड़ बदलेगी
सत्ता -समाज का जीर्ण -शीर्ण
व्याकरण
....
ओ मुक्तिबोध !
ओ मेरे कामरेड
तुम्हारे स्वपनों के
नये भारत का
-भवितव्य।
इस संग्रह की सबसे लम्बी और प्रभावशाली "पानीनामा" । इस कविता के जरिये कवि एक दीर्घ कालयात्रा में ले जाते हैं । जहां समाज, संस्कृति और सभ्यता की क्षय गाथा से दो -चार होना पड़ता है ।
बचपन
पानी का मचलना है
यौवन
पानी का चढ़ना है
बुढ़ापा
पानी का उतरना है
......
जीवन
एक अनंत है प्रवाह है पानी का
पूरा का पूरा ब्रह्माण्ड
एक खिलौना है
पानी का...
इसमें नर्मदा के भवानी भाई हैं , सरयू तटवासी मोती बीए हैं , हुगली तट के छविनाथ मिश्र हैं, हरीश भादानी हैं, बलिया के केदारनाथ सिंह हैं , साबरमती के गाँधी हैं , तुलसी,रहीम हैं,शमशेर हैं ।
यानी इनका स्मरण , साहचर्य है ।
"दूब "कविता में जीवन राग की लय है ।
पतझड़ का उत्पात हो
या
वसंत का वैभव
हर कुछ धरती के आँचल में
सहेज रखती है
दूब ।
इसी राग की सहचर है आमुख कविता ! पेड़ से पत्तियों का झरना । फिर से शाखों पर झूमना -
...उगते शाख-शाख पत्ते
हवा-हवा झूम- झूम
हिलते पत्ते
जुटते -जुड़ते पाखी
पाँख -पाँख
फर -फर
सर -सर
सरगम के सुर साधे पाखी...
एक मार्मिक कविता है "शोकार्त "। इसमें अपनी पौत्री के विवाह के तुरंत बाद अग्निदग्ध हो जाने के हादसे पर आर्तनाद है । कवि को निराला याद आते हैं । सरोज स्मृति का स्मरण हो आता है -
काश लिख पांऊं कोई कविता मैं
विभा की स्मृति में-
देशकाल के शर से विंध कर ?
आखिर कैसे उबर पाऊँगा इस वेदना से-
प्रतिपल मानस मथती
वेदना से ?
कुछ और जो कवितायें हैं , खुद को पढ़ा ले जाती हैं । कुछ सोचने -विचारने के लिये प्रेरित करती हुईं । खास बात यह कि इस संग्रह में पाषाण जी कुछ शांत से दिखते हैं , क्षोभ -असंतोष -पीड़ा की झलक देने के बावजूद ।
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