गुरुवार, 7 अप्रैल 2011

तब मैं

मैं  धीमा 
सुस्त   ,गतिहीन 
निष्क्रिय इतना
जितना कि अजगर
गतिशील पंक्षी को ठूंसे रखता 
आलस्य की जेंब  में
बस बीच बीच में ही 
पुचकारता,टटोलता रहा उसे 
पर जब भी टटोलता 
हाथ में आ जाते उसके पंख
जो उड़ने को हो जाते बेताब 
मैं  उसके मुलायम स्पर्श को महसूस करता
और फिर ठूंस देता उसे
दूसरी जेंब में 
जो फटी होती अंदर से
इसकी खबर तब लगी 
जब सेमल कि फुनगी पर बैठ
चहचहाने लगी कविता 
मुझे अच्छा लगा 
और साथ ही तरस आया खुदपर
फिर अपनी साबुत जेब से 
उस पंक्षी को किया आजाद 
तब से  कुछ सुगबुगाहट सा 
महसूस   कर रहा  हूँ   !     

 

2 टिप्‍पणियां:

  1. अच्छे है आपके विचार, ओरो के ब्लॉग को follow करके या कमेन्ट देकर उनका होसला बढाए ....

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  2. shilendra bhai ji
    aapki post ke baare me kya likhun .
    aapto itne mahaan sahitykaar v patrkaar jo thare .aapki rachna bilkul alag si aur bahut bahut achhi lagi
    bahut abhut badhai
    dhanyvaad
    poonam

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