कितने खतरनाक दौर से गुजर रहे हैं। दुख पर अब सामूहिक रुदन नहीं होता। अस्मिताएं संकट में है, पर सवमेत स्वर उभरते ही नहीं। शब्दों का सरोकार बेअसर सा होता जा रहा है। शोर कभी भी कमायत के साथ अवतरित हो ता जा रहा है। आंदोलनकारी ताकतें तितर-बितर हो गई हैं। जिंदगी की जंग की कहानियां अखबारों-चैनलों से गायब है। ये मॉडल, फिल्म वाले, क्रिकेट वाले, ये बाहुबली नेता, ये बिल्डर, ये धनपशु मौज-मस्ती में डूबे हुए है।अशिक्षा से, दवा-दारू से,गरीबी, भूख, बेकारी से, महंगाई से, दहेज जैसी कुरीतियों, महज जिस्म में तब्दील देने की बाजारू पेंच से कत्तई परेशान नहीं। यथास्थिति बनी रहे। पैसे-प्रचार से लोकतंत्र को हांका जाता रहे, यही इनकी ख्वाहिश है, जो अपने शबाब पर है। और बाकी दुनिया अलग-थलग पड़े किसी भी तरह पैसे बनाने के कुचक्र में अथक यत्न में जुटी है। इस दौर से बाहर कौन निकाले? शायद वक्त ही...
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