बुधवार, 18 जुलाई 2012

चलो कवि बाजार



चलो कवि बाजार
चलो कवि
उठाओ झोला
खाकर महंगाई की मार
हिम्मत न बैठो हार
दिल्ली में बैठी है अपनी ही सरकार
उम्मीद रखो
रखो उम्मीद
उम्मीद के सहारे ही चल रही है दुनिया
जैसे कि अब तक चली आ रही है
सच है कि दुश्वारियां बढ़ी जा रही हैं
बीवी से कहो फिर-फिर
अद्भुत है थोड़े में गुजारे का मंत्र
हो-हल्ला से क्या फायदा
समझो और समझाओ कवि
बात नहीं बने तो
कहीं खिसक जाओ कवि
दफ्तर भागो जल्दी
देर से थोड़ा लौटो
बच्चों के बकझक को
चुपचाप सह जाओ कवि
फिर भी नहीं बने बात तो
नेताओं के गुर को
तुम भी अमल में लाओ
उन्हें वादों से बहलाओ
चलो कवि बाजार
झोला उठाओ।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें