शनिवार, 15 जून 2019

संतोष कुमार चतुर्वेदी की कविताएं


युवा कवि संतोष कुमार चतुर्वेदी की कविताएं पत्रिकाओं में पढ़ता रहा हूं। गांव से जुड़े हुए, यानी खेत-खलिहान, बाग-बगीचा, पेड़, पाखी और पियराती जिंदगियों से। यहीं से ढूंढ निकाले है मोछू नेटुआ को और यह समझ भी कि दक्षिण का भी अपना पूरब होता है। दरअसल,हर दिशा के समांतर दिशा होती है, जो रूढ़ मान्यताओं को खंडित करती जाती है। जिंदगियां जहां भी पनाह लेती हैं, वह जगह मानीखेज ही हुआ करती हैं। पात्रों के सुख-दुख के हिस्से का बंटवारा व्यवस्था ही करती चलती है। जागरूक कलमकार इसे समझता, महसूस करता है और विचलित भी होता है यानी कि बेचैन। संतोष के इस संग्रह का प्लर्ब वरिष्ठ कवि विजेंद्र जी ने लिखा है, जिसमें इस कवि की रचनात्मक खूबियों पर चर्चा के साथ ही और बेहतर की उम्मीद जताई है। दक्षिण का भी अपना पूरब होता है की तीस कविताओं में कुछ लंबी, कुछ मझौली और कुछ छोटी कविताएं संग्रहित है। मां का घर, पानी का रंग, चाबी,मोछू नेटुआ, भभकना,मुकम्मिल स्वर, सुराख, जिंदगी आदि कविताएं इस पाठक को ज्यादा पसंद आई। इन कविताओं के लिए संतोष जी को बधाई। आपके लिए उनकी ये छोटी कविताएं-

निगाहों को आइना
तुम्हारी निगाहों का
फकत
ये आइना न होता
तो कभी
परख ही न पाता मैं
अपना यह चेहरा
.....................
मुकम्मिल स्वर
कौन कहता है
कि महज दीवारों और छतों से
बनते हैं घर
वह तो खिड़कियां दरवाजे हैं
जो देते हैं घर को
सही तौर पर
उसका मुकम्मिल स्वर
.........................
सुराख
अतल गहराइयों में राह बना लेने वाला
समुद्र के सीने को चीर देने वाला
पानी को बेरहमी से हलकोर देने वाला
आंधी तूफान को झेल लेने वाला
भीमकाय जहाज
डरता आया है हमेशा से
एक महीन सी सुराख से
............................
जिंदगी
हर पल जीने का
दोहराव भर नहीं है जिंदगी
पारदर्शी सांसों की
मौलिक कविता है
अनूठी यह

बुधवार, 12 जून 2019

सत्येंद्र की कुछ कविताएं

सत्येंद्र की कुछ कविताएं

पत्रकारिता में रह कर कविता के लिए समय निकालना और उसमें रम पाना बहुत मुश्किल है। पर जिद्दी लोग वक्त निकाल ही लेते हैं संवेदना के सागर में डुबकी लगाने के लिए। सत्येंद्र प्रसाद श्रीवास्तव ऐसे ही लोगों में से एक हैं। इनके अब तक कविता के दो संग्रह-रोटी के हादसे और अंधेरे अपने अपने आए हैं। अच्छी बात यह है कि इनकी कविताओं में जूट मिलों के इर्द-गिर्द के जीवन के सुख-दुख की संवेदनात्मक उपस्थिति मौजूद है। यहां पेश है उनकी कुछ कविताएं।
1.
बाबूजी
बाबूजी
बाबू नहीं, मज़दूर थे
बाबू के शरीर से
नहीं आती फेसुए* की खुशबू
बाबूजी का रोम-रोम
फेसुए की खुशबू से गमकता था
यह खुशबू जितनी फेसुए की पहचान थी
उतनी ही बाबूजी की भी
फेसुए और बाबूजी एक दूसरे को खूब पहचानते थे।
बाबूजी के साथ
मिल से घर आने के लिए
मानो जिद करते थे फेसुए
उनके बदन से चिपक कर सैकड़ों टुकड़े
पहुंच जाते थे घर
वो मेरे ही नहीं
फेसुओं के भी पिता थे
अपनी मशीन पर वो उन्हें भी
ठीक वैसे ही गढ़ते थे
जैसे कि गढ़ रहे थे मुझे
ताकि हम दोनों किसी के काम आ सकें।
बाबूजी
बाबू नहीं, मज़दूर थे
मूड में आने पर
लाल सलाम भी बोलते थे
और इंकलाब ज़िन्दाबाद भी
लेकिन इनका सच भी जानते थे
इसलिए जब अक्सर बिना काम के
घर लौटते तो निडर होकर उद्घोष करते
सब स्साले चोर हैं
वो चोर-सिपाही के सारे तिलिस्म को समझते थे।
बाबूजी
बाबू नहीं, मज़दूर थे
बदली* मज़दूर
काम के लिए अक्सर उनकी साइकिल
इस मिल से उस मिल का
चक्कर लगाती रहती थी
वो जानते थे
जब तक जांगर है
तब तक उनसे चलेगी मशीन
जब तक चलेगी मशीन
तब तक जलेगा घर का चूल्हा
बच्चों के चेहरे पर लहलहाती रहेगी
खुशी की फसल।
बाबूजी ने कभी नहीं देखा
अच्छे दिन का सपना
वो जानते थे
मज़दूरों के कैलेंडर में
कोई भी दिन अच्छा नहीं होता
वो भी तो मज़दूर ही थे
बाबू नहीं थे
बाबूजी।
(फेसुआ--जूट, पाट)
2.नंगई
नंगा होने की हद
कपड़े उतारने तक ही होती है
लेकिन नहीं होती
नंगई की कोई हद
कब का नंगा हो चुका राजा
अब नंगई पर उतारू है।
3.
यह वक्त प्रेम का नहीं
मैं
जिस वक़्त तुम्हारे प्रेम में
आकंठ डूबा हूँ
ठीक उसी वक़्त कुछ लोग
फैला रहे हैं नफ़रत
धर्म के नाम पर
जाति के नाम पर
लेकिन मैं
तुम्हारे प्रेम से इतर
कुछ देख ही नहीं पाता
जबकि यह वक़्त प्रेम का नहीं
नफ़रत से लड़ने का है
प्रेम को बचाने के लिए
बेहद ज़रूरी है यह लड़ाई।
4.
मां का इंतज़ार
मां
जब भी करती है फोन
बेटा काट कर करता है रिंग बैक
फ्री कॉल के ज़माने में भी
जारी है मां-बेटे के बीच
यह परंपरा।

फोन कटने के बाद
मां करती है इंतज़ार
कभी तत्काल वापस आता है फोन
तो कभी-कभी
बेटे की एक टुम आवाज़ सुनने के लिए
घंटों इंतज़ार करती है मां
मां इंतज़ार से नहीं ऊबती।
बचपन में देखा है उसने
हर रोज नहाने के बाद
पेटीकोट में ही मां
बिना उकताए करती थी
एकमात्र साड़ी के सूखने का इंतज़ार
बारिश के दिनों में
मां की तकलीफ देख
पिताजी करते थे
नई साड़ी लाने का वादा
बिना झुंझलाए मां ने
नई साड़ी के लिए भी
किया था लंबा इंतज़ार।
मां ने इंतज़ार किया
पति के फैक्ट्री से लौटने का
बच्चों की स्कूल से वापसी का
मां ने बड़े धीरज से इंतज़ार किया
राशन-पानी का
बच्चों के दूध के डिब्बे का
दमे की दवाई का
मां
इंतज़ार की घड़ियों में
दुख को सुख की कथा सुनाती रही
उसे भरोसा है सुख एक दिन आएगा
वह बिना उकताए करती है सुख का इंतज़ार
मां का इंतज़ार कभी खत्म नहीं होता।
ना कट सकने वाली
इंतज़ार की घड़ियों से ही
बतियाती है मां
दोनों बांटते हैं
एक-दूसरे का दुख
और कटता जाता है
ज़िन्दगी का हर कठिन पल।
5.
गुमशुदा

मैं गुम हूँ
लेकिन कोई मुझे ढूँढ़ता नहीं
अखबार के फड़फड़ाते पन्ने
नहीं लेते मेरा नाम
किसी ने अभी तक नहीं छपवाया
मेरी गुमशुदगी का विज्ञापन
टीवी के पर्दे पर अपना चेहरा
खोजता हूँ लेकिन
सिर्फ राजा दिखता है
बार-बार दिखता है
हर बार मुस्कुराता हुआ
मानो खुश हो मेरे गुम होने पर
इंतजार करता रहता हूँ
लेकिन टीवी पर नहीं आती मेरे गुम होने की कोई खबर
कोई यह मानने को तैयार नहीं कि
मैं गुम हो चुका हूँ।

दरअसल वो ये मानने को भी तैयार नहीं कि
गुम वो भी हो चुके हैं
वो सरकारी पहचान पत्र को अपनी पहचान बता रहे हैं
मैं पूछता हूँ कौन हो तुम
वो खुद पीछे हो जाते हैं
सरकार को आगे कर देते हैं
सच ये है कि
अकेले मैं गुम नहीं हूँ
पूरा का पूरा शहर गुम हो चुका है
पूरा का पूरा देश गुम हो चुका है
इतिहास गुम है
वर्तमान गुम है
और भविष्य का कोई पता नहीं
लेकिन सभी भ्रम में हैं कि
कहीं कुछ गुम नहीं हुआ है
सबके पास अपने-अपने मुखौटे हैं
सबके पास अपने-अपने पहचान पत्र हैं।

जब तक लोग
खुद को भूल
मुखौटे के भरम में जीते रहेंगे
राजा निरंकुश होकर राज करता रहेगा
राजा के लिए जितना जरूरी राजपाट है
उतनी ही जरूरी ऐसी प्रजा भी।

6.
मिट्टी की कब्रगाह
शहर में मिट्टी नहीं है
कंक्रीट और कोलतार के शहर ने
बहुत पहले कर दिया था
मिट्टी का कत्ल।

खेतों की कब्र पर खड़ी
बड़ी-बड़ी अट्टालिकाएं
उनकी याद में बनाई गईं
स्मृति फलक लगती हैं
जहां बन्द कर दिए गए हैं
हर खिड़की-दरवाजे
नई हवा, नए विचार के लिए
इस डर से कि कहीं घर में मिट्टी ना घुस जाए
मिट्टी सिर ना उठा पाए
इसलिए हर रोज होती है डस्टिंग
घर की भी, दिमाग की भी।
शहर में कोई नंगे पांव नहीं चलता
क्योंकि शहर में घास नहीं है
कृत्रिम घास से ही मन बहला लेते हैं
मिट्टी के क़ातिल
बॉलकनी में रखे सजावटी गमले के लिए
खरीद कर लानी पड़ती है मिट्टी
रोज डालते हैं पानी
इसलिए नहीं कि उन्हें प्रकृति से प्रेम है
बल्कि इसलिए कि ज्योतिषी ने कहा है कि
पौधों में रोज पानी डालने से
मजबूत होता है चन्द्रमा।
शहर में पौधे भी नहीं है
पेड़ की जगह खड़े हैं कंक्रीट के खंभे
इसलिए शुद्ध हवा के लिए
अब एयर प्यूरफायर का इस्तेमाल करता है शहर
शहर जानता है कि इससे शुद्ध नहीं होती हवा
लेकिन वो बताता है कि उसके पास हर चीज़ की है मशीन
वह मशीन से हवा साफ करता है
वह मशीन से पानी साफ़ करता है
वह मशीन से कमरे को गर्म करता है
वह मशीन से कमरे को ठंडा करता है
वह मशीन से हर मुश्किल आसान करने का दावा करता है
मशीन-मशीन करते करते
वह खुद
बन गया है मशीन
मिट्टीविहीन इस शहर में
अब मशीनें ही रहती हैं
इंसान तो मिट्टी की तलाश में
यहां से कब का जा चुका है ।
7.
जनतंत्र

पहला
जनता का खून चूसता है
दूसरा विरोध करता है
फिर दूसरा
बन जाता है जोंक
पहला विरोध करता है।

वर्षों से जारी है ये सिलसिला
जनता सूखती जा रही है
नारों का शोर बढ़ता जा रहा है
सुना है
शोषण और शोर के इस तंत्र को
वो जनतंत्र कहते हैं।
8.
राजा
उसे वे पसंद हैं
जो मुंह नहीं खोलते
उसे वे पसंद हैं
जो आंखें बंद रखते हैं
उसे वे पसंद हैं
जो सवाल नहीं करते
उसे वे पसंद हैं
जिनका खून नहीं खोलता
उसे वे पसंद हैं
जो अन्याय का प्रतिकार नहीं करते
उसे मुर्दे पसंद हैं
वह राजा है।
9.
अब हर हत्या हत्या नहीं है

बदल रही है
हत्या की परिभाषा
हत्यारे की भी

हत्या
अब हत्या हो भी सकती है
नहीं भी हो सकती है

हत्यारा
अब हत्यारा भी हो सकता है
या फिर हो सकता है
हिंदू या मुसलमान

बोल सकने वाली जीभें
स्वाद को समर्पित हो चुकी हैं
और वे बड़ी कामयाबी के साथ
बदल रहे हैं
हत्या और हत्या की परिभाषा।

9.ईश्वर और किसान

बिचौलियों से परेशान है ईश्वर
किसान भी
दोनों का हिस्सा
मार लेते हैं बिचौलिए

ईश्वर नहीं करता विरोध
इसीलिए उसके हिस्से फूल
किसान विरोध करता है
उसके हिस्से फंदा।

10.
अब और नहीं अहिल्या

सतयुग में
बलात्कारी इंद्र के खिलाफ
आवाज दबाने के लिए
पत्थर बना दी गई थी अहिल्या

अहिल्या का पत्थर हो जाना
चेतन का जड़ हो जाना था
जड़ मुंह नहीं खोलता
इंसाफ नहीं मांगता
बगावत नहीं करता
अहिल्या को भी नहीं मिला इंसाफ
बेखौफ घूमता रहा देवताओं का राजा

कलियुग में
एक बलत्कृत लड़की ने
कर दिया अहिल्या बनने से इंकार
अपनी चेतना के समस्त वेग के साथ
उसने भींच ली मुट्ठी
पत्थर बनने की जगह
उसने उठा लिए हैं हाथ में पत्थर
डोल रहा है इंद्र का सिंहासन।


मंगलवार, 11 जून 2019

रंजो-गम को बयां करती कविताएं

रंजो-गम को बयां करती कविताएं

उम्र छियासठ साल की और किताब पहली। है न चकित करने वाली बात। आम तौर पर चंचल चित्त माने जाते रहे हैं कवि। पर यह कवि तो इससे एकदम उलट। इतना धैर्य ? इतना लंबा इंतजार? आज का दौर मुक्तिबोध वाला तो रहा नहीं। हालांकि,तब भी उनके साथ के लोगों की किताबें तो आ ही रही थीं। बहरहाल, इस कवि की कविता के बारे में ब्लर्ब लेखक क्या सोचता है, यह तो जान लिया जाए, किताब हाथ आने पर इच्छा पैदा होना स्वाभाविक है, लेकिन पेपरबैक किताब में तो यह होता नहीं। भूमिका तो होनी ही चाहिए। लेकिन वह भी नहीं। पन्ने पलटने पर पता चला कि कवि ने अपनी कविताओं के बारे में खुद भी कुछ नहीं लिखा है। आखिरी कवर पर बस परिचय भर है। तमाम साहित्यिक पत्रिकाओं में, अखबारों में इनकी कविताएं बीती सदी के सातवें दशक से छपती रही हैं। लेकिन कवि शायद संकोचवश किसी से इस बाबत दो शब्द लिखने को कह नहीं पाए होंगे। जाहिर है, पाठक को खुद ही अपनी राय कायम करनी होगी इन कविताओं और कवि के बारे में। `वह औरत नहीं महानद थी' (बोधि प्रकाशन) संग्रह के यह कवि हैं कौशल किशोर। दो खंडों में विभक्त यह संग्रह आधी आबादी को समर्पित है। लेकिन है तो इसमें पूरी आबादी के रंजो-गम को बयां करने वाली कविताएं। एक मुट्ठी रेत(खंड एक) की पहली कविता ही इसे साबित करती है और चौंकाती भी है।
कैसे कह दूं
मैं कैसे कह दूं
हरे-भरे पेड़ों के तने पर
कहीं नहीं मौजूद गोलियों के घाव
मैं कैसे कह दूं
चांद-तारे आज भी बिखेर रहे हैं रोशनी
आकाश में अंधेरा कहीं नहीं है...
  साठवें दशक के मध्य से ही कविता से दोस्ती बरत रहे कौशल जी साहित्यिक पत्रकारिता के साथ ही सामाजिक-सांस्कृतिक कार्यकर्ता की भूमिका में भी रहे हैं, सो मानवाधिकार, सांस्कृतिक परिदृश्य में हो रहे क्षरण की चिंता से वे आंख नहीं मूंद सकते थे। 1977 में लिखी इस कविता में भी इसकी झलक मिलती है।
कारखाने से लौटने पर, अंधेरे से प्रतिबद्ध ये लोग, इस वक्त के बाद , जागता शहर , लहरें, हमें बोनस दो , गौरैया आदि कविताएं मजदूर, किसान, साधारण लोगों की तकलीफों और उनके अधिकारों को स्वर देने वाली कविताएं हैं।
गौरैया कविता की ये पंक्तियां बतौर बानगी देखिए-
गौरैये की चहल
उसकी उछल-कूद और फुदकना
मालिक मकान की सुविधाओं में खलल है
मालिक मकान पिंजड़ों में बंद
चिड़ियों की तड़प देखने के शौकीन हैं
वे नहीं चाहते
उनके खूबसूरत कमरों में गौरये का जाल बिछे
वे नहीं चाहते
गौरैया उनकी स्वतंत्र जिंदगी में दखल दे
........

    विचित्र हो चली हमारी दुनिया की बानगी को कवि चिड़िया और आदमीःएक में इस तरह पेश करते हैं-
चिड़ियों को मारा गया
इसलिए कि
उनके पंखों के पास था विस्तृत आसमान
नीचे घूमती हुई पृथ्वी
और वे
इन सबको लांघ जाना चाहती थीं
आदमी को मारा गया
इसलिए कि
वे चिड़ियों की तरह उड़ना चाहते थे उन्मुक्त
.....
चिड़ियों के लिए
मौसम ने आंसू बहाए
आदमियों के लिए
आंसू बहाने वाले
गिरफ्तार कर लिए गए।
   हम जिस समय और समाज में पनाह ले रहे है उसकी विसंगति को तानाशाह शीर्षक से कुछ कविताओं के इस अंश के मार्फत देखिए-
 ...
हंसो
इसलिए कि
रो नहीं सकते इस देश में
हंसो
खिलखिला कर
अपनी पूरी शक्ति के साथ
इसलिए कि
तुम्हारे उदास होने से
उदास हो जाती हैं प्रधानमंत्री जी
(1981-83 के बीच में लिखी कविता)
    भूख और चूल्हे की कहानी अभी तक पुरानी नहीं पड़ी, विकास की डुगडुगी पर सवाल उठाती आग और अन्न कविता को पढ़ते हुए नागार्जुन की याद आ जाती है...कई दिनों के बाद...। कौशल किशोर की इन पंक्तियों को देखिए-
चूल्हा जल रहा है
.....................
चूल्हें में आग है
आग पर चढ़ा है पतीला
पतीले में पक रहा है अन्न
औरत पतीले का ढक्कन हटाती है
......
देखती है आग और अन्न का मिलन
......
अन्न का आग से
जब होता है ऐसा मिलन
सृजित होता है
जीवन का अजेय संगीत
भूख जैसा हिंस्र पशु भी
इसमें हो जाता है नख दंतविहीन।
   औरत और घर कविता में भी कुछ इसी तरह का भाव है। चूल्हे को जलाने-चलाने के गुर को सीखने-जानने में माहिर। इस खंड की कविताओं में असम आंदोलन की तकलीफदेह याद को ताजा करने वाली कविता असमःफरवरी 1983, बिहारी मजदूरों के संघर्ष और वेदना को उकेरने वाली कविता पंजाब और बिहारी भाई, तेल की लूट पर एक मुट्ठी रेत जैसी मार्मिक कविताओं के साथ ही कवि बेंजामिन मोलायस को फांसी दिए जाने पर भी एक कविता एक दिन आएगा...है।
   अनंत है यह यात्रा (खंड दो) में आमुख कविता समेत स्त्री विमर्श की कई कविताएं हैं। उसका हिंदुस्तान, मां का रोना, पुस्तक मेले से, उसकी जिंदगी में लोकतंत्र, दुनिया की सबसे सुंदर कविता, मलाला, धरती, स्त्री है वह आदि, जिनमें स्त्री की पीड़ा, हाहाकार, जिजीविषा, संघर्ष के स्वर मुखर हैं। जिंदगी की तपिश के साथ।
वह जुलूस के पीछे थी
उछलती फुदकती
दूर से बिल्कुल मेंढक सी नजर आ रही थी
पर वह मेंढक नहीं स्त्री थी
जुलूस में चलती हुई
नारे लगाती हुई
............
पहाड़ी नदियां उतर रही थीं
चट्टानों से टकराती
उछाल लेती
लहराती मचलती बलखाती
बढ़ती उसी की ओर
अब वह औरत नहीं महानद थी।
 इस कविता ने आठ मार्च 2010 को जन्म लिया था लखनऊ में हुई महिलाओं की हुई रैली में। जाहिर है कि यह कवि रैली, सभाओं, आंदोलनों में भी शिरकत करता रहा है। तभी नारी के इस रूप से भी वाकिफ हो पाता है। औरतों के एक दूसरे रूप से भी परिचित है यह कवि, तभी उसका हिंदुस्तान कविता में ये पंक्तियां लिख पाता है-
एक औरत सड़क किनारे बैठी
पत्थर तोड़ती है...
एक...सड़क पर सरपट दौड़ती है
एक औरत के दोनों हाथ मिट्टी में सने हैं
एक...उसकी दुनियां से बेखबर...
दुनिया की सबसे सुंदर कविता में कवि स्त्री को ही यह मान देता है।
....जब गिरता हूं
वह संभालती है
जब भी बिखरता हूं
वह बंटोरती है
तिनका तिनका जोड़
.....उसका सौंदर्य मेरे लिए
गहन अनुभूति है
लिखी जा सकती है उससे
दुनिया की सबसे सुंदर कविता।
स्त्री है वह की ये पंक्तियां भी कम मोहक नहीं-
......फिक्र नहीं कोई
पास जो है उसके
सब लुट जाए
बस, चित्तभूमि तर हो जाए
धरती पर बहार आए
ऐसी है वह
स्त्री है वह।
   इसी तरह की तमाम कविताएं हैं इस संग्रह में, जिनमें शहर(लखनऊ), समय, समाज , संबंध के टूटने, बिखरने, क्षरण के साथ ही साधारणजनों के संघर्ष और जिजीविषा को उम्मीद की नजर से देखने का नजरिया भी है। कौशल जी के इस संग्रह को स्वागत किया जाना चाहिए।
शैलेंद्र शांत

गुरुवार, 6 सितंबर 2018

कुछ शांत से पाषाण

कुछ शांत से पाषाण
वरिष्ठ कवि ध्रुवदेव मिश्र पाषाण, जिनके कोई दो दर्जन काव्य पुस्तिकाएं-संग्रह आ चुके हैं 1962 से 2009 के बीच। "लौट जाओ चीनियों" से लेकर "पतझड़-पतझड़ वसंत" तक । इसके एक लम्बे अंतराल के बाद अब आया है नया संग्रह - "सरगम के सुर साधे" ।
नौ साल बाद आये इस किताब को कवि ने खुद ही छापा है । तीन फर्में यानी 48 पन्ने के संग्रह में कुल सोलह कवितायें हैं । पश्चिम बंगाल में इस तरह के संग्रहों के छापे जाने का रिवाज है । बंगला के कवि ऐसे ही कम पन्ने वाले छोटे-छोटे संग्रह निकाला करते हैं । अपनी जेब से । उसे मित्र परिचितों में बांट और बेच लेते हैं । लेकिन यह दुखद है कि हमारे प्रकाशकों को अपनी भाषा की ताकतवर कलम की तरफ भी ध्यान नहीं जाता । बहरहाल ।
पाषाण जी इस किताब में अपनी छोटी सी भूमिका में लिखते हैं - कविता विचारों से नहीं बनती । कविता किताबों से नहीं उपजती । वह विचारों और किताबों के प्रवाहों से गुजरती जरूर है ।
जो विचार और किताबें, जीवन को घेरते हैं -उनकी घेरेबंदी और जकड़बंदी के मकड़जाल को सोच समझकर कविता तोड़ती है , तार-तार करती है । नक्सलबाड़ी आंदोलन के प्रभाव में रहे कवि इस संग्रह में यह करते प्रतीत भी होते हैं ।
"पवित्र हो तुम" कविता की इन पंक्तियों को देखिये -
तुम प्रिया हो मेरी
..........
पूरी स्वतंत्र और पवित्र हो तुम
ओ मेरी प्रिया
कहीं भी
किसी भी अंकवार में निष्कलुष
और प्रवहमान
गंगा के प्रवाह की तरह...
ये पंक्तियां कविता (प्रिया )के लिये ही हैं , जो शायद विचारधारा की सीमा को समझने के बाद एक व्यापकता की तलाश में और उसे आत्मसात करने को उत्सुक है । और कविता सभी की हो जाना चाहती है । कवि ऐसा ही चाहता है किंचित ।
"एक वह " कविता में कवि कहता है -
उगना ही नहीं
ढलना भी है उसे
दोनों हैं उसके लिये
एक समान
जैसे राजतिलक
जैसे वनवास...
इस यथार्थ को कुछ लोग समझकर भी स्वीकार नहीं करते । बहुत से मोह , अपराध से बचा सकता है इस हकीकत का अहसास । अगर इसे महसूस कर लिया जाये । कवि यह महसूस कराना चाहता है ।
"सुनामी " कविता में कवि इसे नई सृष्टि के प्रसव का स्राव बताता है । तबाही के पर्याय को कवि इस नजरिए से देखता है -
लगातार
बारिश की बाहों में
आसमान के साथ
रति सुख से सम्मोहित
धरती के
वत्सला बन जाने के दिन ये
सुनामी दर सुनामी
जारी है
नई सृष्टि के प्रसव का स्राव ।
इसी तरह "भूकम्प " कविता में कवि मुक्ति की तलाश में संलग्न दिखता मालूम पड़ता है । देखें -
कालातीत विरह ताप से मुक्ति चाहती है पृथ्वी
उन्मादित आकाश चाहता है
वियुक्त प्रिया को
चिरकाल के लिये
अपने में समा लेना
भूकम्प है
या कालांतर के दो महानाटकों का
मध्यांतर ।
2010 से 2017 के बीच लिखी गई कविताओं में दो मुक्तिबोध और वीरेन डंगवाल पर है । "पानीनामा " कविता के जरिये भी कुछ और समकालीन कवियों को याद किया है । जाहिर है , कवि पाषाण उनसे खुद के जुड़े होने का संकेत देता है ।
"एक हर्फ़नामा : मुक्तिबोध से जुड़ते हुये " कविता में पाषाण लिखते हैं -
......आदत बदलते हुये
कविता में
एक हर्फ़नामा
आज मुझे दर्ज करना है
"हां
नहीं चल सकता
वर्तमान समाज नहीं चल सकता
पूंजी से जुड़ा हृदय
नहीं बदल सकता "
....
गांव -शहर उमड़ती भीड़ बदलेगी
सत्ता -समाज का जीर्ण -शीर्ण
व्याकरण
....
ओ मुक्तिबोध !
ओ मेरे कामरेड
तुम्हारे स्वपनों के
नये भारत का
-भवितव्य।
इस संग्रह की सबसे लम्बी और प्रभावशाली "पानीनामा" । इस कविता के जरिये कवि एक दीर्घ कालयात्रा में ले जाते हैं । जहां समाज, संस्कृति और सभ्यता की क्षय गाथा से दो -चार होना पड़ता है ।
बचपन
पानी का मचलना है
यौवन
पानी का चढ़ना है
बुढ़ापा
पानी का उतरना है
......
जीवन
एक अनंत है प्रवाह है पानी का
पूरा का पूरा ब्रह्माण्ड
एक खिलौना है
पानी का...
इसमें नर्मदा के भवानी भाई हैं , सरयू तटवासी मोती बीए हैं , हुगली तट के छविनाथ मिश्र हैं, हरीश भादानी हैं, बलिया के केदारनाथ सिंह हैं , साबरमती के गाँधी हैं , तुलसी,रहीम हैं,शमशेर हैं ।
यानी इनका स्मरण , साहचर्य है ।
"दूब "कविता में जीवन राग की लय है ।
पतझड़ का उत्पात हो
या
वसंत का वैभव
हर कुछ धरती के आँचल में
सहेज रखती है
दूब ।
इसी राग की सहचर है आमुख कविता ! पेड़ से पत्तियों का झरना । फिर से शाखों पर झूमना -
...उगते शाख-शाख पत्ते
हवा-हवा झूम- झूम
हिलते पत्ते
जुटते -जुड़ते पाखी
पाँख -पाँख
फर -फर
सर -सर
सरगम के सुर साधे पाखी...
एक मार्मिक कविता है "शोकार्त "। इसमें अपनी पौत्री के विवाह के तुरंत बाद अग्निदग्ध हो जाने के हादसे पर आर्तनाद है । कवि को निराला याद आते हैं । सरोज स्मृति का स्मरण हो आता है -
काश लिख पांऊं कोई कविता मैं
विभा की स्मृति में-
देशकाल के शर से विंध कर ?
आखिर कैसे उबर पाऊँगा इस वेदना से-
प्रतिपल मानस मथती
वेदना से ?
कुछ और जो कवितायें हैं , खुद को पढ़ा ले जाती हैं । कुछ सोचने -विचारने के लिये प्रेरित करती हुईं । खास बात यह कि इस संग्रह में पाषाण जी कुछ शांत से दिखते हैं , क्षोभ -असंतोष -पीड़ा की झलक देने के बावजूद ।

शुक्रवार, 31 अगस्त 2018

कहानियाँ


बहुत दिनों बाद चार कहानियों से गुजरना हुआ । वागर्थ के अगस्त अंक में छपी कहानियों से । शुरुआत हुई महावीर राजी की कहानी "ठाकुर का नया कुआँ " से । फिर क्रमश: इश्तियाक सईद की " नई बात ", उर्मिला जैन की "नन्हें मन का आवास " और कमलेश की "अघोरी " पढ़ी । ये सभी कथाकार अपनी कहानियाँ पढ़ा ले गये । इस लिहाज से कहानियाँ कामयाब रहीं । राजी अपनी कहानी में बाल पात्रों के जरिये लगातार विद्रोह करा रहे हैं । अपने समय के विद्रूप को उजागर करते हुये । अब बच्ची महरी से बर्तन , कपड़े , घर तो साफ कराये जा सकते हैं , पर उसे कमरों से लगे टायलेट का इस्तेमाल नहीं करने देंगी पढ़ी लिखी सभ्य आधुनिक मालकिन । नौकर किस्म के जंतुओं के लिये टायलेट भी अलग । लेकिन महावीर जी हीरामणि से बोमी के बहाने सफल विद्रोह करा ही देते हैं । साथ ही मध्यमवर्गीय आडम्बर का पोस्टमार्टम भी !
सईद जी कहानी में सच माने में "नई बात "का अनुकरणीय संदेश है । गरीब जुम्मन मियां की बिटिया का निकाह होना तय है , पर वह गांव के लोगों को दावत देने में सक्षम नहीं है। वह चाहता है कि गांववाले बाराती के स्वागत में मदद करें । लेकिन गांव के चौधरी को यह मंजूर नहीं । वह कर्ज देने का प्रस्ताव , खेत बेचने की राय तो देता है , पर भात यानी दावत खाने से पीछे नहीं हटता । इस बीच एक हाजी की सलाह पर समधी अब्दुल वाहिद महज छह बारातियों के साथ बेटे का ब्याह करा ले जाते हैं । और चौधरी समेत गावं वालों को अपने यहां भोज का दावत भी ।
उर्मिला जैन रिश्ते से बंधे भारतीय समाज की खूबसूरती और इंग्लैंड के मशीनी व लगभग एकाकीपन की कहानी एक बाल पात्र के जरिये पेश करती हैं । अच्छी अनुवादिका के रूप में पहचानी जाने वाली उर्मिला जी की यह कहानी भी बांधे रखती है ।
कमलेश मजे हुये कहानीकार है । बेमेल विवाह या यूं कह लें कि बगैर लड़के के बारे में पूरी जानकारी हासिल किये शादी कर दिये जाने की विडम्बना को "अघोरी " के मार्फ़त पेश करते हैं । नपुंसक आदमी अपने सच को छिपाने के लिये अघोरी बन जाता है । पत्नी एक दिन घर छोड़ कर चली जाती है । कोलकाता में उससे एक दूसरा व्यक्ति शादी कर उसे छोड़ भी देता है । उन्हीं की बेटी , अकेले यात्रा कर एक सुनसान रेलवे स्टेशन देर रात पहुँचती है एक किताब लिखने के बहाने अपनी मां के पहले पति से मिलने । बक्सर के पास । वहीं अपने प्रेमी-मित्र की मदद से । वह किसी तरह गुसैल , बदजुबान अघोरी को वह अलबम दिखाती है , जिसमें उसकी मां की तस्वीरें हैं । और वह अपने अघोरी बन जाने के रहस्य से परदा उठाता है । लगभग फिल्मी अंदाज में ।

मंगलवार, 31 अक्टूबर 2017

तनाव की भट्ठी




तनाव की भट्ठी
शैलेंद्र शांत
बात तो एक छोटे और सस्ते मकान में शिफ्ट होने की थी। भले ही वह एक कमरे का ही क्यों न हो। क्योंकि एक अकेले आदमी के लिए अधिक किराये के मकान की क्या जरूरत। इसलिए छोटे मकान की तलाश जारी थी । इस बाबत परिचितों से मदद की अपेक्षा लाजिमी थी। कुछ परिचित इस कोशिश में लगे थे और कुछ ने इस दिशा में पहल करने का भरोसा भी दिया था। उनमें से एक मैं भी था। 
बहुत पांव घिसाई और झंझटों के बाद दोनों बेटियों की शादी से वे निपट चुके थे। पुत्र जी का भी हाल ही में विवाह हो गया था। जीवन संगनी कुछ साल पहले ही साथ छोड़ कर जा चुकी थीं। बेटियां ससुराल में और पुत्र जी दूसरे शहर में। नौकरी ले गई थी उसे उस शहर में । पुत्र चाहते थे कि पिताश्री साथ में ही रहें। कई परिचितों - रिश्तेदारों की भी यही राय थी। पर वर्मा जी अपने शहर में ही बने रहना चाहते थे। उस इलाके के आसपास जहां उनके 40 साल गुजरे थे। वह एक निजी संस्थान की नौकरी से अवकाश प्राप्त कर चुके थे । संस्थान के क्वाटर के छूटने के बाद किराये के मकान में रहते थे। पत्नी के नहीं रहने और बच्चों की दुनिया बस जाने के बाद अब वह बड़ा और महंगा लगने लगा था। वे शाम को होम्योपैथी की डिस्पेंसरी चलाते थे। थोड़े सामाजिक जीव भी थे। मौके-बेमौके जरूरतमंदों के काम आने वाले। जाहिरा तौर पर स्वाभिमानी भी। सत्तर के करीब पहुंच चुके थे वे, लेकिन लगते नहीं थे। हमेशा उत्साह से भरे रहते थे वर्मा जी। वे अपने लिए खाना बना लेते थे। कपड़े साफ कर लेते थे। यानी पूरी तरह से स्वावलंबी। हालांकि हाल में ही उनको पेसमेकर लगाना पड़ा था। लेकिन हाल तक पूरी तरह स्वस्थ। 
उस दिन वह अपने एक रिश्तेदार के घर पर थे। वहीं इस बात पर बहस छिड़ गई थी कि इस ढलती उम्र में उन्हें अपने पुत्र के साथ ही रहना चाहिए। जाने कब स्वास्थगत परेशानी बढ़ जाए। ऐसे में किसी सगे का पास होना जरूरी है। सो उन्हें अब आराम करना चाहिए। रिश्तेदार के पड़ोसी की इस राय से शायद वह व्यथित थे। उनके चेहरे पर खिंची रेखाएं इसकी गवाह थीं। लेकिन वह उनकी राय पर हंस भर रहे थे। मैं वहां मौजूद था। मुझे यह अच्छा नहीं लग रहा था। मुझे बोलना पड़ा कि वर्मा जी स्वस्थ हैं। अपनी डिस्पेंसरी चलाते रहना चाहते हैं। जिस समाज, माहौल, इलाके से उनका सालों का साथ बना रहा है, उसे वे छोड़ना नहीं चाहते। तो उन पर दूसरे शहर में बेटे के पास चले जाने का सलाह नहीं दी जानी चाहिए। बच्चे उनसे आकर मिल लिया करेंगे। अब शहरों की दूरी उतनी रही भी नहीं। दरअसल, बातचीत का लहजा कुछ ऐसा था, जिससे उसमें दबाव का भाव झलकता था। इस तरह का मनोवैज्ञानिक दबाव उचित नहीं था। 
वैसे भी इन दिनों यह बात आम हो चली है कि बच्चे दूसरे शहरों में नौकरी करते हैं और माता-पिता अपने शहर वाले घर में। कोलकाता में या दूसरे महानगरों में भी बहुत से बुजुर्ग अकेले रहते हैं। बुजुर्ग महिलाएं तक रहती हैं परिचारिकाओं के सहारे। मेरी एक पड़ोसन इसकी साक्षात उदाहरण हैं। उनकी बहू शहर के दूसरे छोर पर फ्लैट लेकर रहती हैं। नौकरीशुदा बहू को वहां से दफ्तर आने-जाने में सुविधा है। जाहिर है, पुत्र भी साथ में रहते हैं। पति दिवंगत हो चुके हैं। वे बीच-बीच में उनसे मिलने आते रहते हैं। ऐसे उदाहरण अब कम नहीं। पेंशन या घर के किराये से या बैंकों में जमा पैसों पर मिलने वाले सूद के सहारे जीवन की गाड़ी खींचती रहती है। लायक बच्चों से भी आर्थिक मदद मिलती ही है। इसके पीछे घर, शहर, इलाके के मोह के साथ ही अपनी तरह से रहने की आजादी की चाह भी होती है। हकीकत तो यह है कि एक ही शहर में नौकरी या व्यवसाय के कारण बच्चे-बहुएं अलग-अलग छोर पर रहने के लिए मजबूर हैं। कुछ स्वतंत्र रूप से रहने के इरादे से भी। 
वर्मा जी की भी शायद यही चाह थी। वह स्वावलंबी भी थे। डिस्पेंसरी से इतनी आय हो जाती थी, जिससे उनका खर्चा निकल जाए। पुराने किराए के मकान को छोड़ अपनी डिस्पेंसरी के आसपास मकान तलाशने की कोशिश उनकी जिजीविषा का ही संकेत था। इसे मान दिया जाना ही अपेक्षित था। सो मैंने भी उनके लिए सस्ता और छोटा मकान लताशने की कोशिश शुरू कर दी थी। दो-एक परिचितों से इस बाबत चर्चा भी की थी। लेकिन इस कोशिश पर विराम लग गया। कोई हफ्ता ही गुजरा होगा कि उनके रिश्तेदार का फोन आया कि वर्मा जी नहीं रहे। दो दिन पहले ही ब्रेन स्ट्रोक के कारण उनका निधन हो गया। हड़बड़ी और घबराहट में वह उस दिन मुझे खबर नहीं कर पाए। पटना से पुत्र जी आ गए थे। यह रिश्तेदार उनके समधी हैं। वर्मा जी की बड़ी बेटी इन्हीं के बेटे से ब्याही गई है। एक बेटी दूसरे शहर में। बेटी भी सगी ही होती ही न। वर्मा जी को शायद इन सगों के सहारे पर कहीं ज्यादा भरोसा रहा होगा। इस शहर और यहां बनाए अपने समाज पर भी। वैसे भरोसा तो जिंदगी पर भी उन्हें कम नहीं था। लेकिन कथित अपनों-परिचितों के दयाभाव वाली चिंताओं - सलाह से वे व्यथित जरूर होते होंगे। कहीं इस दयाभाव ने ही तो नहीं न बुझने वाली तनाव की भट्टी में झोंक दिया, न जाने क्यों मेरे मन में यह सवाल उठ रहा है वर्मा बाबू को याद करते वक्त।

बुधवार, 28 जून 2017

कवि के साथ


कवि के साथ
हाल के दिनों तक बंगाल में इस बात की कल्पना नहीं की जा सकती थी कि कविता लिखने पर किसी कवि को मुकदमे में फंसाया जा सकता है। धमकियों या आपत्तियों की बात दिगर है। लेकिन जो संभव नहीं था या जिसकी कल्पना नहीं की जा सकती थी, वह अब होने लगा है।  एक कवि को कविता लिखने के अपराध में न केवल धमकियां मिलीं , उसके खिलाफ मुकदमा भी दायर किया गया। लेकिन संतोष की बात यह है कि समाज में आजाद कलम के पक्ष में खड़े होने वालों की भी कमी नहीं । यह भरोसे की बात समाचार चैनलों, अखबारों और सोशल मीडिया पर दिखी है। पिछले शनिवार को तो कोलकाता की सड़कें भी इसकी गवाह बनीं। बंगला कवि श्रीजात बनर्जी के बहाने कविता के हक में, यूं कहें कि अभिव्यक्ति की आजादी के हक में सड़क पर उतर आए कवि, लेखक, कलाकार, बुद्धिजीवी। कालेज स्क्वायर से धर्मतला के वाई चैनल तक निकाले गए उस जुलूस में देश में बढ़ती धार्मिक कट्टरता के खिलाफ नारे लगाए गए और कवि पर धार्मिक भावना पर चोट करने के गैर जमानती मामले को वापस लेने की मांग की गई। इस जुलूस में मंदाक्रांता सेन,अंशुमान कर, श्यामलकांति दास, शंकर चक्रवर्ती,रोशानारा मिश्र, किन्नर राय,समीर आईच, सनातन दिंदा, अरूणाभ गांगुली,सारण दत्त,इमानुल हक आदि शामिल हुए। इसमें अम्बिकेश महापात्र भी थे, जिन्हें कार्टून बनाने के अपराध में जेल जाना पड़ा था।जिसकी वजह से ममता सरकार की हर तरफ निंदा हुई थी। बाद में वे बेगुनाह करार दिए गए और उनकी मानहानि के एवज में ममता सरकार को जुर्माना भी अदा करना पड़ा था। लेकिन इस बार ममता जी भी कवि के पास खड़ी हैं। उनके परिवारजन की सुरक्षा के मद्देनजर एक सुरक्षा कर्मी को तैनात किया गया है।
जिस कविता को लेकर विवाद पैदा हुआ उसे 19 मार्च को श्रीजात ने फेसबुक पर पोस्ट किया था। दो दिन बाद विश्व कविता दिवस के दिन उन्हें पता चला कि उनकी कविता से हिंदू संगठन से जुड़े  एक शख्स की धार्मिक भावना को ठेस पहुंची है। इसलिए सिलीगुड़ी के उस नौजवान ने उनके खिलाफ  मुकदमा दर्ज कराया है । श्रीजात बनर्जी ने अपनी कविता में कब्र से निकाल कर बलात्कार करने की मानसिकता पर चोट की है । फेसबुक पर बारह पंक्ति की इस कविता को हजारों लोगों ने पसंद किया, प्रशंसा की तो बहुत सारे लोगों ने इसकी निंदा की और अश्लील टिपण्णियों के साथ कवि को धमकियां भी दी। बाद में विवाद को बढ़ते देख फेसबुक ने उस कविता को हटा दिया । इसको लेकर कुछ सज्जनों को आपत्ति थी। ये सज्जन लगातार उसे शिकायत पहुंचा रहे थे कि उस कविता से उनकी धार्मिक भावना को चोट पहुंची है, सो उसने अभिशाप शीर्षक वाली कविता को हटा दिया।
दिलचस्प इस तथ्य को जानना है कि जिस कविता पर  घमासान के मंजर सामने आए, उसे 19.03.2017 के सुबह 08.25 बजे तक 18 हजार से ज्यादा लोगों ने पसंद किया । 4622 लोगों ने साझा किया  और पक्ष-विपक्ष में हजारों लोगों ने टिप्पणियां की है। दरअसल, नाराज लोगों को कब्र से बाहर निकाल कर बलात्कार करने की मानसिकता पर सवाल उठाती इस कविता के आखिरी दो पंक्तियों से धर्म खतरे में पड़ता नजर आने लगा। इससे  उनकी धार्मिक भावनाओं को चोट पहुंची। यह संभव है। लेकिन इस पर बहस या  महज आपत्ति जताना पर्याप्त नहीं लगा। धमकियां भी काफी नहीं लगी। सो मुकदमा भी दायर कर दिया गया। श्रीजात को इससे पहले भी बांग्लादेश के ब्लागरों की हत्या के बहाने बढ़ती इस्लामी कट्टरता के खिलाफ कविता लिखने पर धमकियां मिल चुकी हैं। लेकिन इस बार मुकदमे का सामना करना पड़ा। बनर्जी की कविता से नाराज इन काव्य मर्मज्ञों को बारह लाइन वाली कविता के मूल स्वर से भी शायद दिक्कत हो, लेकिन इस पद पर ज्यादा गुस्सा है-
आमाके घर्षन कोरबे जदिन कबर थेके तुले
कंडोम पोराने थाकबे, तुमार उई धर्मेर त्रिशूले
 यानी कब्र से निकाल कर जितने दिन मेरा बलात्कार करना अपने धर्म रूपी त्रिशूल को कंडोम पहनाए रखना।
गौरतलब है कि योगी आदित्यनाथ की मौजूदगी में हुई एक सभा में एक वक्ता अपने जोशीले भाषण में महिलाओं को कब्र से निकाल कर बलात्कार करने की बात करता है। इस भाषण का वीडियो सोशल मीडिया में वायरल है। इसी मानसिकता के खिलाफ यह कविता है। जाहिर है कि शर्मनाक और निंदनीय उस  इरादे से बड़ा गुनाह हो गया काव्यात्मक भाषा में कंडोम-त्रिशूल का इस्तमाल करना।
हालांकि, यह संभव है कि कवि की इस भाषा से हम सहमत न हो, पर इसी आधार पर किसी रचनाकार को मुकदमें में घसीटा जाना चाहिए। धमकियों की बौछार शुरू कर देना चाहिए बहस की कोई गुंजाइश ही नहीं छोड़नी चाहिए। यह सोच लिखने-पढ़ने-बोलने की आजादी के रास्ते में बड़ा रोड़ा से कम नहीं। और कोलकाता या बंगाल को इस तरह की बंदिशें मंजूर नहीं। महज 42 साल के इस कवि के हिस्से कविता की दो दर्जन से अधिक किताबें हैं,कई संपादित किताबें हैं। सम्मानित आनंद पुरस्कार है, एक गीत के लिए हासिल फिल्म फेयर पुरस्कार है। भारी संख्या में पाठक हैं। सोशल मीडिया पर भी से जबरदस्त उपस्थिति है।  इनकी किसी भी पोस्ट पर औसतन चार हजार की पसंद, औसतन चार सौ का साझाकरण और टिप्पणियां भी सैकड़ों-हजारों में मिलती रही है। जाहिर है कि कविता अनुरागी समाज इस विवाद से दुखी और चिंतित है।